अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
ऋषि: - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - पुरोऽनुष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
38
ये अ॒ग्नयो॑ अ॒प्स्वन्तर्ये वृ॒त्रे ये पुरु॑षे॒ ये अश्म॑सु। य आ॑वि॒वेशौष॑धी॒र्यो वन॒स्पतीं॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒ग्नय॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । ये । वृ॒त्रे । ये । पुरु॑षे । ये । अश्म॑ऽसु । य: । आ॒ऽवि॒वेश॑ । ओष॑धी: । य: । वन॒स्पती॑न् । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अग्नयो अप्स्वन्तर्ये वृत्रे ये पुरुषे ये अश्मसु। य आविवेशौषधीर्यो वनस्पतींस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥
स्वर रहित पद पाठये । अग्नय: । अप्ऽसु । अन्त: । ये । वृत्रे । ये । पुरुषे । ये । अश्मऽसु । य: । आऽविवेश । ओषधी: । य: । वनस्पतीन् । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (2)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ [ईश्वर के तेज] (अप्सुअन्तः) जल के भीतर, (ये) जो (वृत्रे) मेघ में, (ये) जो (पुरुषे) पुरुष [मनुष्य शरीर] में और (ये) जो (अश्मसु) शिलाओं में हैं। (यः) जिस [अग्नि] ने (ओषधीः) औषधियों [अन्न, सोम लता आदि] में, और (यः) जिसने (वनस्पतीन्) वनस्पतियों [वृक्ष आदि] में (आ विवेश) प्रवेश किया है, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वर तेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ
इस सूक्त में गुणों के वर्णन से गुणी परमेश्वर का ग्रहण है, अर्थात् जिस परमेश्वर की शक्ति से समुद्र में बड़वानल, मेघ में बिजुली, मनुष्य में अन्न पाचक अग्नि और पत्थर में चकमक, ओषधियों में फलपाक अग्नि आदि अद्भुत उपकारी शक्तियाँ वर्त्तमान हैं, उनके प्रेरक परमेश्वर को हमारा प्रणाम है ॥१॥
टिप्पणी
१−(अग्नयः) ईश्वरतेजांसि। (अप्सु) उदकेषु। (अन्तः) मध्ये। (वृत्रे) अ० २।५।३। वृत्रो वृणोतेर्वा वर्ततेर्वा वर्द्धतेर्वा-निरु० २।१७। मेघे-निघ० १।१०। (पुरुषे) अ० १।१६।४। मानुषशरीरे। (अश्मसु) अ० १।२।२। पाषाणशिलासु। (आविवेश) प्रविष्टवान्। (ओषधीः) व्रीहियवादिरूपाः। (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। सेवकरक्षकान्। वृक्षान्। (हुतम्) हु दाने-क्त। हविः। आत्मसर्पणम् ॥
Vishay
…
Padartha
…
Bhavartha
…
English (1)
Subject
Divine Energy, Kama Fire and Peace
Meaning
In honour and service to those fires, forms of divine energy, which are in the waters, in the cloud, in the human being, in the rocks, and which have entered into herbs and trees and inspire them to play their role in life, to these fires is this oblation offered in homage for peace.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Dhiman
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal