अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
ऋषिः - उद्दालकः
देवता - शितिपाद् अविः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अवि सूक्त
63
सर्वा॒न्कामा॑न्पूरयत्या॒भव॑न्प्र॒भव॒न्भव॑न्। आ॑कूति॒प्रोऽवि॑र्द॒त्तः शि॑ति॒पान्नोप॑ दस्यति ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वा॑न् । कामा॑न् । पू॒र॒य॒ति॒ । आ॒ऽभव॑न् । प्र॒ऽभव॑न् । भव॑न् । आ॒कू॒ति॒ऽप्र: । अवि॑: । द॒त्त: । शि॒ति॒ऽपात् । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ ॥२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वान्कामान्पूरयत्याभवन्प्रभवन्भवन्। आकूतिप्रोऽविर्दत्तः शितिपान्नोप दस्यति ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वान् । कामान् । पूरयति । आऽभवन् । प्रऽभवन् । भवन् । आकूतिऽप्र: । अवि: । दत्त: । शितिऽपात् । न । उप । दस्यति ॥२९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सुख पाता है।
पदार्थ
(आकूतिप्रः) संकल्पों का पूरा करनेवाला, [आत्मा को] (दत्तः) दिया हुआ, (शितिपात्) प्रकाश और अप्रकाश में गतिवाला (अविः) रक्षक प्रभु (आभवन्) व्यापक, (प्रभवन्) समर्थ और (भवन्) वर्तमान होता हुआ (सर्वान्) कामान् तब सुन्दर कामनाओं को (पूरयति) पूरा करता है, और (न) नहीं (उपदस्यति) घटता है ॥२॥
भावार्थ
उस सर्वशक्तिमान् परमात्मा का इतना बड़ा कोश है कि सब सृष्टि की शुभ कामनाओं को पूरा करते-करते भी भरपूर ही बना रहते हैं ॥२॥ बृहदारण्यकोपनिषद में पाठ है−पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ बृहदा० ५।१।१ ॥ ओ३म्। वह [ब्रह्म] पूर्ण [भरपूर] है, यह [जगत्] पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण उदय होता है, पूर्ण से पूर्ण लेकर पूर्ण ही बच रहता है ॥२॥
टिप्पणी
२−(सर्वान्) समस्तान् (कामान्) शुभाभिलाषान् (पूरयति)। संपूर्णान् करोति (आभवन्) भू सत्तायां व्याप्तौ च-शतृ। आ समन्ताद् भवन् व्याप्नुवन् (प्रभवन्) समर्थः प्रबलः सन् (भवन्) वर्त्तमानः सन् (आकूतिप्रः) आकूति+प्रा पूरणे-क। संकल्पपूरकः (नोपदस्यति) दसु उपक्षये। नोपक्षीयते। अपितु वर्धते। अन्यद् गतं म० १ ॥
विषय
आभवन, प्रभवन, भवन्
पदार्थ
१. (दत्त:) = जिस राजा के लिए प्रजा से कर व पुण्य का सोलहवाँ भाग दिया गया है, वह राजा (अविः) = प्रजा का रक्षक होता है। (सर्वान् कामान् पूरयति) = बह प्रजा की सब कामनाओं को पूर्ण करता है। यह (आभवन्) = प्रजा में चारों ओर होता है, अर्थात् प्रजा में व्याप्त रहता है, सदा प्रजा में घूमता है, (प्रभवन्) = शक्तिशाली होता है, (भवन्) = वर्धिष्णु होता है। २. यह (आकूति प्र:) = प्रजाओं के संकल्पों का पूर्ण करनेवाला होता है। यह (शितिपात्) = शुद्ध आचरणवाला व्यसनों में न फंसनेवाला राजा (न उपदस्यति) = अपने प्रजारूप शरीर को नष्ट नहीं होने देता।
भावार्थ
प्रजा से कर प्राप्त करनेवाला यह राजा प्रजा में व्यातिवाला बनता है, शक्तिशाली होता है, प्रजा का वर्धन करता है तथा प्रजा की कामनाओं को पूर्ण करता है और प्रजा को नष्ट नहीं होने देता।
भाषार्थ
(आ भवन्) समग्र [राष्ट्र] में सत्तावाला, (प्रभवन्) प्रभाववाला अर्थात् प्रभु हुआ, (भवन्) तथा विद्यमान हुआ, (आकूतिप्रः) संकल्पों को पूर्ण करनेवाला (शितिपात्) शुष्क अर्थात् निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाला [राजा], (अवि:) प्रजारक्षक हुआ, (दत्तः) प्रजा द्वारा निर्वाचित अर्थात् समर्पित किया, (न उपदस्यति) नहीं क्षीण होता।
टिप्पणी
[मन्त्र (१) में धार्मिक तथा प्रजोपकारी कार्यों में लगाए धन पर भी राज्य कर लगानेवाले राजाओं में, प्रत्येक राजा के लिए प्रायश्चित्त विधान किया है। उसी राजा का वर्णन मन्त्र (२) में हुआ है। जो राजा प्रायश्चित्त कर लेता है, राष्ट्र में वह (अविः) प्रजारक्षक हुआ, [न कि अनुचित राज्य-कर लगाकर प्रजारक्षक हुआ], (शितिपात्) शारीरिक पाद आदि अङ्गों में निर्मल हुआ, संकल्पों को पूर्ण कर लेता है, और प्रजा का प्रभु बनकर रहता है, तथा प्रजा द्वारा दण्डित नहीं होता। ऐसा राजा प्रजा द्वारा निर्वाचित हुआ शासन के लिए समर्पित किया जाता है शिलपा-"जङ्गाभ्यां पद्भ्यां धर्मोऽस्मि विशि राजा प्रतिष्ठितः" (यजु:० २०.९) में, सम्राट् कहता है कि "मैं जङ्घाओं और पादों द्वारा धर्मरूप हूँ, धार्मिक कार्यों का सम्पादन करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरी प्रतिष्ठा, दीर्घस्थिति या ख्याति प्रजा पर निर्भर है। सम्राट् की यह धार्मिक भावना "शितिपात् या शितिपाद्" में निहित है। आकूतिप्र:-आकूतिः (संकल्प)+प्रा (प्रा पूरणे, अदादिः)। (दसु उपक्षये, दिवादिः)।]
विषय
राजसभा के सदस्यों के कर्तव्य ।
भावार्थ
राजपक्ष में—(शितिपाद) तीक्ष्ण सेना का पालन करने वाला राजा, (अविः) राष्ट्र का पालक (दत्तः) करादि प्राप्त करके सर्वान् कामान् पूरयति) राष्ट्र की सब अभिलाषाओं, आवश्यकताओं को पूर्ण कर देता है। (आभवन्) सब प्रकार से सामर्थ्यवान् (प्रभवन्) प्रभुता सम्पन्न (भवन्) होकर भी (आकूतिप्रः) प्रजा के समस्त शुभ संकल्पों को पूर्ण करने वाला होकर (न उपदस्यति) राष्ट्र का विनाश नहीं करता। अध्यात्म पक्ष में—अवि यह आत्मा शितिपाद् ज्ञान या प्रकाश का पालक होकर (दत्तः) ब्रह्म में अर्पित होकर, सर्वाप्तकाम, सर्वसामर्थ्य होकर सर्वकामनाओं को पूर्ण करके फिर विनाश को प्राप्त नहीं होता। “इह चेद- वदीदथ सत्यमस्ति न चेहावेदीन् महती विनष्टिः।” उपनि० ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उद्दालक ऋषिः। शितिपादोऽविर्देवता। ७ कामो देवता। ८ भूमिर्देवता। १, ३ पथ्यापंक्तिः, ७ त्र्यवसाना षट्षदा उपरिष्टादेवीगृहती ककुम्मतीगर्भा विराड जगती । ८ उपरिष्टाद् बृहती २, ४, ६ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Taxation, Development, Administration
Meaning
The tax money, paid and allocated, white, essential and protective-promotive, helps fulfill all plans and projects of the nation, current, completive, and projected including contingent and emergent ones, according to the intentions and resolutions of the people, and neither fails to achieve the goal nor causes disruption of the plans for want of resources.
Translation
The protection tax, paid white-footed, arising from all sides, capable of producing results, growing in itself, and fulfiller of desires, fulfills all the desires. It is never wasted.
Translation
This matter remaining in the state of equiliberation and disequiliberation fulfils the desires of the souls pervading through its effect-forms, turning it to creation and remaining in the creative processes. Working out the fulfillment of Godly desires this never comes to its total annihilation.
Translation
God, the fulfiller of resolves, worshipped by the soul, same in light and darkness, Omnipresent, Mighty and Ever-Existent, satisfies all hopes and wants and never suffers decay.
Footnote
Four Ashramas, four varnas, hearing. श्रवण, reflecting, (मनन) meditating (निदिध्यासन) desire for the unattained, protection of the attained development of the attained, proper use of the developed. The 16th object after the fulfillment of the first fifteen is salvation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सर्वान्) समस्तान् (कामान्) शुभाभिलाषान् (पूरयति)। संपूर्णान् करोति (आभवन्) भू सत्तायां व्याप्तौ च-शतृ। आ समन्ताद् भवन् व्याप्नुवन् (प्रभवन्) समर्थः प्रबलः सन् (भवन्) वर्त्तमानः सन् (आकूतिप्रः) आकूति+प्रा पूरणे-क। संकल्पपूरकः (नोपदस्यति) दसु उपक्षये। नोपक्षीयते। अपितु वर्धते। अन्यद् गतं म० १ ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(আ ভবন্) সমগ্র [রাষ্ট্রে] সত্তাবান, (প্রভাব) প্রভাবশালী অর্থাৎ প্রভু হয়ে, (ভবন্) এবং বিদ্যমান হয়ে, (আকূতিপ্রঃ) সংকল্পপূরণকারী (শিতিপাৎ) শুষ্ক অর্থাৎ নির্মল শারীরিক পাদ আদি অবয়বসমন্বিত [রাজা], (অবিঃ) প্রজারক্ষক হয়ে, (দত্তঃ) প্রজা দ্বারা নির্বাচিত অর্থাৎ সমর্পিত, (ন উপদস্যতি) ক্ষীণ হয় না।
टिप्पणी
[মন্ত্র (১) এ ধার্মিক ও প্রজোপকারী কার্যে প্রয়োগকৃত ধন-সম্পদেও রাজ্য-কর প্রয়োগকারী রাজাদের মধ্যে, প্রত্যেক রাজার জন্য প্রায়শ্চিত্তের বিধান করা হয়েছে। সেই রাজার বর্ণনা মন্ত্র (২) এ হয়েছে। যে রাজা প্রায়শ্চিত্ত করে নেয়, রাষ্ট্রে সে (অবিঃ) প্রজারক্ষক হয়ে, [অনুচিত রাজ্য-কর প্রয়োগ করে প্রজারক্ষক হয়েছে এমন নয়] (শিতিপাৎ) শারীরিক পাদ আদি অঙ্গে নির্মল হয়ে, সংকল্প পূর্ণ করে নেয়, ও প্রজার প্রভু হয়ে থাকে, এবং প্রজা দ্বারা দণ্ডিত হয় না। এমন রাজা, প্রজা দ্বারা নির্বাচিত হয়ে শাসনের জন্য সমর্পিত করা হয়। শিতিপাৎ ="জঙ্ঘাভ্যাং পদ্ভ্যাং ধর্মোঽস্মি বিশি রাজা প্রতিষ্ঠিতঃ” (যজু০ ২০।৯) এ, সম্রাট্ বলে যে, "আমি উরু ও পা দ্বারা ধর্মরূপ, ধার্মিক কার্যের সম্পাদন করি, কারণ আমি জানি যে, আমার প্রতিষ্ঠা, দীর্ঘস্থিতি বা খ্যাতি প্রজাদের ওপর নির্ভরশীল। সম্রাটের এই ধার্মিক ভাবনা "শিতিপাৎ বা শিতিপাদ্" এ নিহিত রয়েছে। আকূতিপ্রঃ= আকূতিঃ (সংকল্প)+ প্রঃ (প্রা পূরণে, অদাদিঃ)। দস্যতি (দসু উপক্ষয়ে, দিবাদিঃ)।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যঃ পরমেশ্বরভক্ত্যা সুখং লভতে
भाषार्थ
(আকূতিপ্রঃ) সংকল্প পূর্ণকারী/সংকল্পপূরক, [আত্মাকে] (দত্তঃ) প্রদত্ত, (শিতিপাৎ) আলো এবং অন্ধকারে গতিসম্পন্ন (অবিঃ) রক্ষক প্রভু (আভবন্) ব্যাপক, (প্রভবন্) সমর্থ ও (ভবন্) বর্তমান হয়ে (সর্বান্ কামান্) সমস্ত সুন্দর কামনাসমূহকে (পূরয়তি) পূর্ণ/পূরণ করেন, এবং (ন) না (উপ দস্যতি) হ্রাস পায়/ক্ষীণ হয়॥২॥
भावार्थ
সেই সর্বশক্তিমান্ পরমাত্মার এত বৃহৎ কোশ আছে যে, সমস্ত সৃষ্টির শুভ কামনাসমূহ পূর্ণ/পূরণ করলেও তা ভরপূর/পরিপূর্ণ থাকে॥২॥ বৃহদারণ্যকোপনিষদে আছে- ও৩ম্ পূর্ণমদঃ পূর্ণমিদং পূর্ণাৎ পূর্ণমুদচ্যতে। পূর্ণস্য পূর্ণমাদায় পূর্ণমেবাবশিষ্যতে ॥ বৃহদা০ ৫।১।১ ॥ ও৩ম্। সেই [ব্রহ্ম] পূর্ণ [পরিপূর্ণ], এই [জগৎ] পূর্ণ, পূর্ণ থেকে পূর্ণ উদয় হয়, পূর্ণ থেকে পূর্ণ নিয়ে পূর্ণ অবশিষ্ট থাকে ॥২॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal