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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - उद्दालकः देवता - शितिपाद् अविः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अवि सूक्त
    41

    सर्वा॒न्कामा॑न्पूरयत्या॒भव॑न्प्र॒भव॒न्भव॑न्। आ॑कूति॒प्रोऽवि॑र्द॒त्तः शि॑ति॒पान्नोप॑ दस्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वा॑न् । कामा॑न् । पू॒र॒य॒ति॒ । आ॒ऽभव॑न् । प्र॒ऽभव॑न् । भव॑न् । आ॒कू॒ति॒ऽप्र: । अवि॑: । द॒त्त: । शि॒ति॒ऽपात् । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वान्कामान्पूरयत्याभवन्प्रभवन्भवन्। आकूतिप्रोऽविर्दत्तः शितिपान्नोप दस्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वान् । कामान् । पूरयति । आऽभवन् । प्रऽभवन् । भवन् । आकूतिऽप्र: । अवि: । दत्त: । शितिऽपात् । न । उप । दस्यति ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सुख पाता है।

    पदार्थ

    (आकूतिप्रः) संकल्पों का पूरा करनेवाला, [आत्मा को] (दत्तः) दिया हुआ, (शितिपात्) प्रकाश और अप्रकाश में गतिवाला (अविः) रक्षक प्रभु (आभवन्) व्यापक, (प्रभवन्) समर्थ और (भवन्) वर्तमान होता हुआ (सर्वान्) कामान् तब सुन्दर कामनाओं को (पूरयति) पूरा करता है, और (न) नहीं (उपदस्यति) घटता है ॥२॥

    भावार्थ

    उस सर्वशक्तिमान् परमात्मा का इतना बड़ा कोश है कि सब सृष्टि की शुभ कामनाओं को पूरा करते-करते भी भरपूर ही बना रहते हैं ॥२॥ बृहदारण्यकोपनिषद में पाठ है−पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ बृहदा० ५।१।१ ॥ ओ३म्। वह [ब्रह्म] पूर्ण [भरपूर] है, यह [जगत्] पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण उदय होता है, पूर्ण से पूर्ण लेकर पूर्ण ही बच रहता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सर्वान्) समस्तान् (कामान्) शुभाभिलाषान् (पूरयति)। संपूर्णान् करोति (आभवन्) भू सत्तायां व्याप्तौ च-शतृ। आ समन्ताद् भवन् व्याप्नुवन् (प्रभवन्) समर्थः प्रबलः सन् (भवन्) वर्त्तमानः सन् (आकूतिप्रः) आकूति+प्रा पूरणे-क। संकल्पपूरकः (नोपदस्यति) दसु उपक्षये। नोपक्षीयते। अपितु वर्धते। अन्यद् गतं म० १ ॥

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    विषय

    आभवन, प्रभवन, भवन्

    पदार्थ

    १. (दत्त:) = जिस राजा के लिए प्रजा से कर व पुण्य का सोलहवाँ भाग दिया गया है, वह राजा (अविः) = प्रजा का रक्षक होता है। (सर्वान् कामान् पूरयति) = बह प्रजा की सब कामनाओं को पूर्ण करता है। यह (आभवन्) = प्रजा में चारों ओर होता है, अर्थात् प्रजा में व्याप्त रहता है, सदा प्रजा में घूमता है, (प्रभवन्) = शक्तिशाली होता है, (भवन्) = वर्धिष्णु होता है। २. यह (आकूति प्र:) = प्रजाओं के संकल्पों का पूर्ण करनेवाला होता है। यह (शितिपात्) = शुद्ध आचरणवाला व्यसनों में न फंसनेवाला राजा (न उपदस्यति) = अपने प्रजारूप शरीर को नष्ट नहीं होने देता।

    भावार्थ

    प्रजा से कर प्राप्त करनेवाला यह राजा प्रजा में व्यातिवाला बनता है, शक्तिशाली होता है, प्रजा का वर्धन करता है तथा प्रजा की कामनाओं को पूर्ण करता है और प्रजा को नष्ट नहीं होने देता।

     

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    भाषार्थ

    (आ भवन्) समग्र [राष्ट्र] में सत्तावाला, (प्रभवन्) प्रभाववाला अर्थात् प्रभु हुआ, (भवन्) तथा विद्यमान हुआ, (आकूतिप्रः) संकल्पों को पूर्ण करनेवाला (शितिपात्) शुष्क अर्थात् निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाला [राजा], (अवि:) प्रजारक्षक हुआ, (दत्तः) प्रजा द्वारा निर्वाचित अर्थात् समर्पित किया, (न उपदस्यति) नहीं क्षीण होता।

    टिप्पणी

    [मन्त्र (१) में धार्मिक तथा प्रजोपकारी कार्यों में लगाए धन पर भी राज्य कर लगानेवाले राजाओं में, प्रत्येक राजा के लिए प्रायश्चित्त विधान किया है। उसी राजा का वर्णन मन्त्र (२) में हुआ है। जो राजा प्रायश्चित्त कर लेता है, राष्ट्र में वह (अविः) प्रजारक्षक हुआ, [न कि अनुचित राज्य-कर लगाकर प्रजारक्षक हुआ], (शितिपात्) शारीरिक पाद आदि अङ्गों में निर्मल हुआ, संकल्पों को पूर्ण कर लेता है, और प्रजा का प्रभु बनकर रहता है, तथा प्रजा द्वारा दण्डित नहीं होता। ऐसा राजा प्रजा द्वारा निर्वाचित हुआ शासन के लिए समर्पित किया जाता है शिलपा-"जङ्गाभ्यां पद्भ्यां धर्मोऽस्मि विशि राजा प्रतिष्ठितः" (यजु:० २०.९) में, सम्राट् कहता है कि "मैं जङ्घाओं और पादों द्वारा धर्मरूप हूँ, धार्मिक कार्यों का सम्पादन करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरी प्रतिष्ठा, दीर्घस्थिति या ख्याति प्रजा पर निर्भर है। सम्राट् की यह धार्मिक भावना "शितिपात् या शितिपाद्" में निहित है। आकूतिप्र:-आकूतिः (संकल्प)+प्रा (प्रा पूरणे, अदादिः)। (दसु उपक्षये, दिवादिः)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Taxation, Development, Administration

    Meaning

    The tax money, paid and allocated, white, essential and protective-promotive, helps fulfill all plans and projects of the nation, current, completive, and projected including contingent and emergent ones, according to the intentions and resolutions of the people, and neither fails to achieve the goal nor causes disruption of the plans for want of resources.

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    Translation

    The protection tax, paid white-footed, arising from all sides, capable of producing results, growing in itself, and fulfiller of desires, fulfills all the desires. It is never wasted.

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    Translation

    This matter remaining in the state of equiliberation and disequiliberation fulfils the desires of the souls pervading through its effect-forms, turning it to creation and remaining in the creative processes. Working out the fulfillment of Godly desires this never comes to its total annihilation.

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    Translation

    God, the fulfiller of resolves, worshipped by the soul, same in light and darkness, Omnipresent, Mighty and Ever-Existent, satisfies all hopes and wants and never suffers decay.

    Footnote

    Four Ashramas, four varnas, hearing. श्रवण, reflecting, (मनन) meditating (निदिध्यासन) desire for the unattained, protection of the attained development of the attained, proper use of the developed. The 16th object after the fulfillment of the first fifteen is salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सर्वान्) समस्तान् (कामान्) शुभाभिलाषान् (पूरयति)। संपूर्णान् करोति (आभवन्) भू सत्तायां व्याप्तौ च-शतृ। आ समन्ताद् भवन् व्याप्नुवन् (प्रभवन्) समर्थः प्रबलः सन् (भवन्) वर्त्तमानः सन् (आकूतिप्रः) आकूति+प्रा पूरणे-क। संकल्पपूरकः (नोपदस्यति) दसु उपक्षये। नोपक्षीयते। अपितु वर्धते। अन्यद् गतं म० १ ॥

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