अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 8
भूमि॑ष्ट्वा॒ प्रति॑ गृह्णात्व॒न्तरि॑क्षमि॒दं म॒हत्। माहं प्रा॒णेन॒ मात्मना॒ मा प्र॒जया॑ प्रति॒गृह्य॒ वि रा॑धिषि ॥
स्वर सहित पद पाठभूमि॑: । त्वा॒ । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒तु॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । इ॒दम् । म॒हत् । मा । अ॒हम् । प्रा॒णेन॑ । मा । आ॒त्मना॑ । मा । प्र॒ऽजया॑ । प्र॒ति॒ऽगृह्य॑ । वि । रा॒धि॒षि॒ ॥२९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
भूमिष्ट्वा प्रति गृह्णात्वन्तरिक्षमिदं महत्। माहं प्राणेन मात्मना मा प्रजया प्रतिगृह्य वि राधिषि ॥
स्वर रहित पद पाठभूमि: । त्वा । प्रति । गृह्णातु । अन्तरिक्षम् । इदम् । महत् । मा । अहम् । प्राणेन । मा । आत्मना । मा । प्रऽजया । प्रतिऽगृह्य । वि । राधिषि ॥२९.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सुख पाता है।
पदार्थ
(हे) काम (भूमिः) भूमि और (इदम्) यह (महत्) बड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष भी (त्वा) तुझको (प्रति गृह्णातु) स्वीकार करे। (अहम्) मैं जीव, (प्रतिगृह्य) पाकर, (मा) न (प्राणेन) प्राण [शरीर बल] से, (मा) न (आत्मना) आत्मबल से, और (मा) न (प्रजया) प्रजा से, (वि राधिषि) अलग हो जाऊँ ॥८॥
भावार्थ
पुरुषार्थी मनुष्य सत्य कामना से भूमि और आकाश का राज्य हस्तगत कर लेता है, और शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल दृढ़ करके संसार में सुखी रहता है ॥८॥
टिप्पणी
८−(भूमिः) भूमिस्थपदार्थाः, इत्यर्थं (त्वा) कामम् (प्रतिगृह्णातु) अङ्गीकरोतु (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षस्थपदार्थाः। (मा) निषेधे (प्राणेन) मुखनासिकाभ्यां संचरता जीवस्थितिलिङ्गेन वायुना, शारीरिकबलेन। (आत्मना) आत्मिकबलेन। (प्रजया) सामाजिकबलेन। (मा+वि+राधिषि) अ० १।१।४। अहं विराद्धो वर्जितो वियुक्तो मा भूवम् ॥
विषय
का मा प्राणेन, मा आत्मना, मा प्रजया [विराधिषि]
पदार्थ
१. हे कररूप द्रव्य! भूमिः त्वा प्रतिगृहात-यह भूमि तेरा ग्रहण करे । राजा राष्ट्र की रक्षा व राष्ट्र में कृषि आदि कार्यों की उन्नति के लिए कर ग्रहण करे। कर से प्राप्त धन का इन्हीं कार्यों में विनियोग करे। २. (इदम्) = यह (महत् अन्तरिक्षम्) = महान् अन्तरिक्ष तेरा ग्रहण करे। कर से प्राप्त धन का विनियोग विस्तृत अन्तरिक्ष को उत्तम बनाने में किया जाए। 'राष्ट्र का सारा वातावरण उत्तम बने', ऐसा राजा का प्रयत्न होना चाहिए। राष्ट्र के शिक्षणालय युवकों के आचार को उत्तम बनाने का ध्यान करें। राष्ट्र में होनेवाले यज्ञ सब प्राकृतिक देवों की अनुकूलता को सिद्ध करें। ३. राजा कहता है कि (अहम्) = मैं (प्रतिगृह्य) = कामरूप में धन लेकर (प्राणेन मा विराधिषि) = प्राणों से वर्जित न हो जाऊँ, भोगों में फँसकर प्राणशक्ति को ही नष्ट न कर लें। (मा आत्मना) = मैं भोग-प्रवण होकर आत्मतत्त्व को न भूल जाऊँ, (मा प्रजया) = मैं प्रजा से दूर न हो जाऊँ, सदा प्रजाहित में लगा रहूँ।
भावार्थ
कररूप धनों का विनियोग राष्ट्रभूमि को उन्नत करने व राष्ट्र के वातावरण को अच्छा बनाने में करना चाहिए। राजा धनों का विनियोग भोग-विलास में करके अपनी प्राणशक्ति को क्षीण न कर ले। वह आत्मतत्त्व से दूर न हो जाए। भोग-प्रवण राजा तो प्रजा से दूर और दूर होता जाता है। इसे प्रजाहित की कामना नहीं रहती।
विशेष
अन्नाभाव की कमी से रहित तथा उत्तम वातावरणवाले राष्ट्र में गृहों के अन्दर पति-पत्नी भी अथर्वा न डाँवाडोल वृत्तिवाले होते हैं। इन घरों में सबके हदय मिले होते हैं, अतः अगले सूक्त का ऋषि 'अथर्वा' है तथा देवता 'सामनस्यम्' है।
भाषार्थ
[हे राजपद!] (त्वा) तुझे (भूमिः) राष्ट्रभूमि (प्रतिगृह्णातु) स्वीकार करे, तथा (इदम्) यह (महत् अन्तरिक्षम्) राष्ट्र का महा अन्तरिक्ष स्वीकार करे। (प्रतिगृह्य) तुझे हे राजपद! स्वीकार करके (अहम्) मैं राजा (मा प्राणेन) न प्राण से, (मा आत्मना) न शरीररथ जीवात्मा से, (मा प्रजया) न प्रजा से (वि राधिषि) कहीं वर्जित हो जाऊँ।
टिप्पणी
[विराधिषि=वि+राध (संसिद्धौ, स्वादिः), संसिद्धि से विमुक्त होना। मा विराधिषि=मैं कहीं संसिद्धि से विमुक्त हो जाऊँ। अभिप्राय यह कि राजपद का ग्रहण करना विपत्ति से रहित नहीं। विरोधी प्रजा के उत्थान हो जाने से राजा स्वयम् और उसका परिवार विपत्तिग्रस्त हो सकता है। अत: मानों राजपद मैंने स्वीकार नहीं किया, अपितु राष्ट्रभूमि ने और राष्ट्र के अन्तरिक्ष ने स्वीकार किया है। मैं तो इनका प्रतिनिधि होकर राजपद को स्वीकार कर रहा हूँ। प्रजा जब भी चाहे मैं प्रतिनिधित्व का परित्याग कर दूंगा। जितने भूखण्ड पर जिसका राज्य होता है, उतने भूखण्ड के ऊपर का महत् अन्तरिक्ष भी उसीका होता है, यह दर्शाने के लिए भूमि के साथ अन्तरिक्ष का भी कथन हुआ है। अन्तरिक्ष वहीं तक होता है, जितनी ऊँचाई तक कि वायुमण्डल होता है, यतः अन्तरिक्ष का देवता वायु है।]
विषय
राजसभा के सदस्यों के कर्तव्य ।
भावार्थ
दान ग्रहण करने वाला ग्रहण करते हुए सदा विचार करे कि (त्वा भूमिः प्रतिगृह्णातु) हे समर्पित द्रव्य ! तुझे यह भूमि स्वीकार करे और (इदं महत् अन्तरिक्षम्) यह बड़ा भारी अन्तरिक्ष भी आश्रय दे। (अहं) मैं समर्पक (प्राणेन मा) प्राण से कोई अपराध न करूं, (म आत्मना) आत्मा, चित्त और देह से कोई अपराध न करूं और (प्रति-गृह्म) स्वीकार करके (प्रजया) अपनी प्रजा से भी (मा विराधिषि) कभी अपराध न करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उद्दालक ऋषिः। शितिपादोऽविर्देवता। ७ कामो देवता। ८ भूमिर्देवता। १, ३ पथ्यापंक्तिः, ७ त्र्यवसाना षट्षदा उपरिष्टादेवीगृहती ककुम्मतीगर्भा विराड जगती । ८ उपरिष्टाद् बृहती २, ४, ६ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Taxation, Development, Administration
Meaning
The Benediction: May the earth receive you with love. May this expansive space receive you with love. The Promise: O Lord, let me, never by prana, never by soul, never by my people, transgress the bond of love. Having been received by earth and space, having received this cherished gift of life, let me never transgress the bond of piety. (The bond is between the ruler and the people at the earthly level. The bond is between the Creator and the creature at the spiritual level.)
Translation
May earth receive you and may this vast midspace. Accepting you exclusively, may I not be deprived of my life, of my self, and of my progeny.
Translation
O Divinity; May the earth receive yon and May receive you the vast inter-space. I, the soul receiving your effulgence may not be hurs in vita] breath, may not be hurt in body and soul, may not be hurt in progeny.
Translation
May Earth receive thee as her own, and this great atmosphere as well. Having accepted desire, may I commit no offence with my body, mind, soul and progeny.
Footnote
Thee refers to desire.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(भूमिः) भूमिस्थपदार्थाः, इत्यर्थं (त्वा) कामम् (प्रतिगृह्णातु) अङ्गीकरोतु (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षस्थपदार्थाः। (मा) निषेधे (प्राणेन) मुखनासिकाभ्यां संचरता जीवस्थितिलिङ्गेन वायुना, शारीरिकबलेन। (आत्मना) आत्मिकबलेन। (प्रजया) सामाजिकबलेन। (मा+वि+राधिषि) अ० १।१।४। अहं विराद्धो वर्जितो वियुक्तो मा भूवम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
[হে রাজপদ !] (ত্বা) তোমাকে (ভূমিঃ) রাষ্ট্রভূমি (প্রতিগৃহ্ণাতু) স্বীকার করে/করুক, এবং (ইদম্) এই (মহৎ অন্তরিক্ষম্) রাষ্ট্রের মহা অন্তরীক্ষ স্বীকার করে/করুক। (প্রতিগৃহ্য) তোমাকে হে রাজপদ ! স্বীকার করে (অহম্) আমি রাজা (মা প্রাণেন) না প্রাণ থেকে, (মা আত্মনা) না শরীরস্থ জীবাত্মা থেকে, (মা প্রজয়া) না প্রজাদের থেকে (বি রাধিষি) বর্জিত যেন না হই।
टिप्पणी
[বিরাধিষি= বি+রাধ (সংসিদ্ধৌ, স্বাদিঃ), সংসিদ্ধি থেকে বিমুক্ত হওয়া। মা বিরাধিষি=আমি যেন সংসিদ্ধি থেকে বিমুক্ত না হয়ে যাই। অভিপ্রায় এটাই যে, রাজপদ গ্রহণ করা বিপত্তিমুক্ত নয়। বিরোধী প্রজাদের উত্থান হলে রাজা স্বয়ং এবং তাঁর পরিবার বিপত্তিগ্রস্ত হতে পারে। অতঃ রাজপদ আমি স্বীকার করিনি, অপিতু রাষ্ট্রভূমি এবং রাষ্ট্রের অন্তরিক্ষ স্বীকার করেছে। আমি এদের প্রতিনিধি হয়ে রাজপদ স্বীকার করছি। প্রজা যখনই চাইবে আমি প্রতিনিধিত্বের পরিত্যাগ করবো। যতটা ভূখণ্ডে যার রাজ্য হয়, ততটা ভূখণ্ডের উপরের মহৎ অন্তরীক্ষও তাঁর হয়, এটা উল্লেখ করার জন্য ভূমির সাথে অন্তরিক্ষেরও কথন হয়েছে। অন্তরিক্ষ ততটা পর্যন্ত হয়, যতটা উঁচু পর্যন্ত বায়ুমন্ডল থাকে, যতঃ অন্তরিক্ষের দেবতা হলো বায়ু।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যঃ পরমেশ্বরভক্ত্যা সুখং লভতে
भाषार्थ
(হে) কাম (ভূমিঃ) ভূমি ও (ইদম্) এই (মহৎ) বৃহৎ (অন্তরিক্ষম্) অন্তরীক্ষ ও (ত্বা) তোমাকে (প্রতি গৃহ্ণাতু) স্বীকার করে/করুক। (অহম্) আমি জীব, (প্রতিগৃহ্য) প্রাপ্ত করে, (মা) না (প্রাণেন) প্রাণ [শরীর বল] থেকে, (মা) না (আত্মনা) আত্মবল থেকে, এবং (মা) না (প্রজয়া) প্রজাদের থেকে, (বি রাধিষিঃ) আলাদা হয়ে যাই/বিযুক্ত হই ॥৮॥
भावार्थ
পুরুষার্থী মনুষ্য সত্য কামনার দ্বারা ভূমি ও আকাশের রাজ্য হস্তগত করে নেয়, এবং শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক বল দৃঢ় করে সংসারে সুখী থাকে॥৮॥
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