अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वरुणः, सोमः, इन्द्रः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिक्पङ्क्तिः
सूक्तम् - स्वराजपुनः स्थापन सूक्त
28
अ॒द्भ्यस्त्वा॒ राज॒ वरु॑णो ह्वयतु॒ सोम॑स्त्वा ह्वयतु॒ पर्व॑तेभ्यः। इन्द्र॑स्त्वा ह्वयतु वि॒ड्भ्य आ॒भ्यः श्ये॒नो भू॒त्वा विश॒ आ प॑ते॒माः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒त्ऽभ्य: । त्वा॒ । राजा॑ । वरु॑ण: । ह्व॒य॒तु॒ । सोम॑: । त्वा॒ । ह्व॒य॒तु॒ । पर्व॑तेभ्य: ।इन्द्र॑: । त्वा॒ । ह्व॒य॒तु॒ । वि॒ट्ऽभ्य: । आ॒भ्य: । श्ये॒न: । भू॒त्वा । विश॑: । आ । प॒त॒ । इ॒मा: ॥३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्भ्यस्त्वा राज वरुणो ह्वयतु सोमस्त्वा ह्वयतु पर्वतेभ्यः। इन्द्रस्त्वा ह्वयतु विड्भ्य आभ्यः श्येनो भूत्वा विश आ पतेमाः ॥
स्वर रहित पद पाठअत्ऽभ्य: । त्वा । राजा । वरुण: । ह्वयतु । सोम: । त्वा । ह्वयतु । पर्वतेभ्य: ।इन्द्र: । त्वा । ह्वयतु । विट्ऽभ्य: । आभ्य: । श्येन: । भूत्वा । विश: । आ । पत । इमा: ॥३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजराजेश्वर !] (वरुणः) अति श्रेष्ठ (राजा) शासनकर्त्ता पुरुष (त्वा) तुझको (अद्भ्यः) प्राणों के लिये (ह्वयतु) बुलावे, (सोमः) औषधों का रस निकालनेवाला [वैद्यराज] (त्वा) तुझको (पर्वतेभ्यः) [शरीर की] पुष्टियों के लिये (ह्वयतु) बुलावे। (इन्द्रः) बड़ा प्रतापी सेनापति वा निधिपति (त्वा) तुझको (आभ्यः विड्भ्यः) इन प्रजाओं के लिये (ह्वयतु) बुलावे [हे महाराजाधिराज !] (श्यैनः) शीघ्र गतिवाला [वा वाज पक्षी के समान शीघ्र गतिवाला] (भूत्वा) होकर (इमाः) इन (विशः) प्रजाओं में (आ, पत) उड़कर आ ॥३॥
भावार्थ
राजा वरुण, सोम, इन्द्रादि पदवीवाले बड़े-२ अधिकारी अपने अधिकार की उन्नति के लिये राजाज्ञा का पालन करें और प्रधान राजा अपनी प्रजा के हित का उद्योग सदा करता रहे ॥३॥
टिप्पणी
३−(अद्भ्यः)। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। आपः=अन्तरिक्षम्-निघ० १।३। उदकानि-निघ० १।१३। भूस्थानदेवताः, आप आप्नोतेः-निरु० ६।२६। प्राणा जलानि वा-यजु० ४।७। आप्ता, प्रजाः- य० वे० ६।२७, दयानन्दभाष्ये। प्राणेभ्यः। प्रजाभ्यः। (त्वा)। सम्राजम्। (राजा)। अ० १।१०।१। राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये च कनिन्। ऐश्वर्यवान्। वरुणः। अ० १।३।३। वृञ् वरणे-उनन्। वरणीयः पुरुषः। दुष्टनिवारकः। ह्वयतु। आकारयतु। (सोमः)। अ० १।६।२। षुञ् अभिषवे-मन्। सुनोति यः। ओषधिरसानां निःसारकः। वैद्यराजः। (पर्वतेभ्यः)। भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूर्त्तौ-अतच्। पूर्त्तिभ्यः। पुष्टिभ्यः। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान्। सेनापतिः। निधिपतिः। (विड्भ्यः)। अ० १।२१।१। विश प्रवेशने-क्विप्। विशः, मनुष्याः-निघ० २।३। प्रजाः। (आभ्यः)। परिदृश्यमानाभ्यः। (श्येनः)। श्यास्त्याहृञविभ्य इनच्। उ० २।४६। इति श्यैङ् गतौ-इनच्। श्येनासः=अश्वाः-निघ० ४।१४। श्येनः शंसनीयं गच्छति-निरु० ४।२४। श्येन आदित्य आत्मा च भवति श्यायतेर्गतिकर्मणः-निरु० १४।१३। शीघ्रगतिः। श्येनपक्षिवच्छीघ्रगामी। (भूत्वा)। (विशः)। प्रजाः। (आ पत)। शीघ्रमागच्छ (इमाः)। उपस्थिताः ॥
विषय
वरुण+सोम+इन्द्र-श्येन
पदार्थ
१. (राजा) = जीवन को व्यवस्थित करनेवाला [regulated] (वरुण:) = पाप से निवारित करनेवाला (त्वा) = तुझे (अद्भ्यः) = शरीरस्थ रेतःकणों के रक्षण के लिए (हृयतु) = पुकारे, अर्थात् जीवन को व्यवस्थित बनाकर, काम-क्रोध से अपने को बचाता हुआ तू रेत:कणों का रक्षण करनेवाला बन। २. (सोमः) = सोम (त्वा) = तुझे (पर्वतेभ्यः) = पर्वतों के लिए (हयतु) = पुकारे । 'पर्व पूरणे' से पर्वत शब्द बना है। यह यहाँ न्यूनताओं को दूर करके पूर्णता की प्राति का सूचक है। ३. (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठता (त्वा) = तुझे (आभ्यः विड्भ्यः) = इन प्रजाओं के लिए (हयतु) = बुलाये। जितेन्द्रिय पुरुष के ही सन्तान उत्तम होते हैं। सन्तानों की उत्तमता के लिए जितेन्द्रियता आवश्यक है। राष्ट्र में भी राजा जितेन्द्रिय होकर ही प्रजाओं का नियमन कर पाता है-(जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः)। ४. (श्येन:) = शीघ्रगतिवाला (भूत्वा) = होकर (इमाः विश:) = इन प्रजाओं को (आपत) = सर्वथा प्राप्त हो-इनमें सब ओर गतिवाला हो। राजा को अकर्मण्य न होकर खूब क्रियाशील होना चाहिए। इस क्रियाशीलता के लिए ही वह 'व्यवस्थित जीवनवाला, सौम्य व जितेन्द्रिय' बना था। ये सब गुण उसे खुब क्रियाशील बनाते हैं। एक पिता भी क्रियाशील होने पर सन्तान को सुप्रभावित कर पाता है।
भावार्थ
हम 'व्यवस्थित जीवनवाले, सौम्य व जितेन्द्रिय' बनकर क्रियाशील' हों। ऐसा होने पर ही हम उत्तम प्रजाओं का निर्माण कर सकेंगे।
सूचना
प्रस्तुत मन्त्र में यह भी संकेत है कि प्रथम आश्रम का सूत्र 'राजा व वरुण बनकर रेत:कणों का रक्षण' है। द्वितीय आश्रम का 'सोम बनकर न्यूनताओं को न आने देना' है। तृतीयाश्रम का 'जितेन्द्रियता' तथा चतुर्थाश्रम का परिव्राजक बनकर 'प्रजाहित' में प्रवृत्त होना है।
भाषार्थ
[हे सम्राट् !] (वरुणः राजा) वरुण राजा (त्वा) तुझे (अद्म्यः) सामुद्रिक जलों से (ह्वयतु) आह्वान करे, (सोमः) सोम (त्वा) तुझे (पर्वतेभ्यः) पर्वतों से (ह्वयतु) आह्वान करे। (इन्द्रः) सम्राट (त्वा) तुझे (आभ्यः विड्भ्यः) इन प्रजाओं से (ह्वयतु) आह्वान करे, (श्येनो१ भूत्वा) वाजपक्षी होकर तू (इमा: विशः) इन प्रजाओं में (पत आ) उड़कर आ जा।
टिप्पणी
[वरुण है राष्ट्राधिपति राजा, यथा "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। वरुण राजा अधिपति है जलों का। वह सामुद्रिक जलों का अधिपति है, यथा "वरुणोऽपामधिपति:" (अथर्व० ५।४)। सोम है सेनाध्यक्षः, सेना-प्रेरक [षू प्रेरणे, तुदादिः), यह पर्वतीय युद्धों का भी अध्यक्ष है। इन्द्र है सम्राट्, जोकि सामयिक सम्राट है, जब तक कि पदच्युत सम्राट् बापस नहीं आ जाता। सोमः=सेनाध्यक्ष (यजु० १७।४९)।] [१. वायुयान द्वारा। सम्भवतः उड़कर (श्येनः भूत्वा)। अश्वारोही तथा श्येनो भुत्वा दो विकल्प हैं 'आपत' में।]
इंग्लिश (4)
Subject
Re-establishment of Order
Meaning
Let Varuna, chief of waters, call on you for the development of water programmes. Let Soma, chief of herbs, vegetation and forests call on you for the development of mountains and rain and river projects. Let Indra, chief of social planning and welfare, call on you for the welfare of the people. And for all these, you be the supreme among them like the eagle in birds, come to them and attend to the people.
Translation
May the venerable Lord, the sovereign, call you here from across the oceans; may the blissful Lord call you here from the mountains; may the resplendent Lord call you here to these people (to receive help from you). May you fly to these people (as if) becoming a hawk.(Varuna = Venerable Lord; Soma = Blissful Lord; Indra = Resplendent Lord)
Translation
The resplendent water grasp this fire from waters, the vegetative energy grasp it from clouds and mountains, Indra, the air receives it from these living and non-living worldly creatures, speedier or like a falcon or rare in its form it prevails in the subjects of the world.
Translation
May the Emperor call thee hither O King, from watery places, andrestore thee to thy kingdom. May a learned Brahman call thee hither fromhills and mountains, and make the rule over the state. May the majority ofthy prosperous subjects call thee hither to these people. Fly thou like a falcon,O King to these subjects.
Footnote
When a king is vanquished in a battle, and finds himself in distress, he flies and takesshelter in an ocean, or mountain; or with his subjects in a secret place. In this hymn, heis called back from his place of shelter or exile, and restored to his kingdom.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अद्भ्यः)। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। आपः=अन्तरिक्षम्-निघ० १।३। उदकानि-निघ० १।१३। भूस्थानदेवताः, आप आप्नोतेः-निरु० ६।२६। प्राणा जलानि वा-यजु० ४।७। आप्ता, प्रजाः- य० वे० ६।२७, दयानन्दभाष्ये। प्राणेभ्यः। प्रजाभ्यः। (त्वा)। सम्राजम्। (राजा)। अ० १।१०।१। राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये च कनिन्। ऐश्वर्यवान्। वरुणः। अ० १।३।३। वृञ् वरणे-उनन्। वरणीयः पुरुषः। दुष्टनिवारकः। ह्वयतु। आकारयतु। (सोमः)। अ० १।६।२। षुञ् अभिषवे-मन्। सुनोति यः। ओषधिरसानां निःसारकः। वैद्यराजः। (पर्वतेभ्यः)। भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूर्त्तौ-अतच्। पूर्त्तिभ्यः। पुष्टिभ्यः। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान्। सेनापतिः। निधिपतिः। (विड्भ्यः)। अ० १।२१।१। विश प्रवेशने-क्विप्। विशः, मनुष्याः-निघ० २।३। प्रजाः। (आभ्यः)। परिदृश्यमानाभ्यः। (श्येनः)। श्यास्त्याहृञविभ्य इनच्। उ० २।४६। इति श्यैङ् गतौ-इनच्। श्येनासः=अश्वाः-निघ० ४।१४। श्येनः शंसनीयं गच्छति-निरु० ४।२४। श्येन आदित्य आत्मा च भवति श्यायतेर्गतिकर्मणः-निरु० १४।१३। शीघ्रगतिः। श्येनपक्षिवच्छीघ्रगामी। (भूत्वा)। (विशः)। प्रजाः। (आ पत)। शीघ्रमागच्छ (इमाः)। उपस्थिताः ॥
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