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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - श्येनः, अश्विनीकुमारः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वराजपुनः स्थापन सूक्त
    34

    श्ये॒नो ह॒व्यं न॑य॒त्वा पर॑स्मादन्यक्षे॒त्रे अप॑रुद्धं॒ चर॑न्तम्। अ॒श्विना॒ पन्थां॑ कृणुतां सु॒गं त॑ इ॒मं स॑जाता अभि॒संवि॑शध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्ये॒न: । ह॒व्यम् । न॒य॒तु॒ । आ । पर॑स्मात् । अ॒न्य॒ऽक्षे॒त्रे । अप॑ऽरुध्दम् । चर॑न्तम् ।अ॒श्विना॑ । पन्था॑म् । कृ॒णु॒ता॒म् । सु॒ऽगम् । ते॒ । इ॒मम् । स॒ऽजा॒ता॒: । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् ॥३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्येनो हव्यं नयत्वा परस्मादन्यक्षेत्रे अपरुद्धं चरन्तम्। अश्विना पन्थां कृणुतां सुगं त इमं सजाता अभिसंविशध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्येन: । हव्यम् । नयतु । आ । परस्मात् । अन्यऽक्षेत्रे । अपऽरुध्दम् । चरन्तम् ।अश्विना । पन्थाम् । कृणुताम् । सुऽगम् । ते । इमम् । सऽजाता: । अभिऽसंविशध्वम् ॥३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (श्येनः) शीघ्रगतिवाले आप (अन्यक्षेत्रे) परदेश में (अपरुद्धम्) रोक दिये गये (चरन्तम्) उत्तम आचरण करते हुए (हव्यम्) बुलाने योग्य पुरुष को (परस्मात्) दूर देश से (आ नयतु) समीप लावें। (अश्विना=०−नौ) सूर्य और चन्द्रमा (ते) तेरे (पन्थाम्=पन्थानम्) मार्ग को (सुगम्) सुगम (कृणुताम्) करें। (सजाताः) हे सजातीय लोगो ! (इमम्) इस [वीर पुरुष] से (अभि−सं−विशध्वम्) चारों ओर से मिलो ॥४॥

    भावार्थ

    यदि कोई सत्पुरुष प्रजागण परदेश में रोक दिया गया हो, राजा उसे प्रयत्नपूर्वक बुला लेवे। और सूर्य-चन्द्रमा के समान नियम से प्रजापालन करे जिससे सब प्रजागण उससे मिले रहें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(श्येनः)। म० ३। शीघ्रगतिः पुरुषः। (हव्यम्)। ह्वेञ्-यत्। आह्वातव्यम्। (नयतु)। प्रापयतु। (आ)। समीपे। (परस्मात्)। दूरदेशात्। (अन्यक्षेत्रे)। परभूमौ। (अपरुद्धम्)। निरुद्धम्। (चरन्तम्)। चर गमने, अदने, आचारे च-शतृ। शुभाचारवन्तम्। (अश्विना)। अ० २।२९।६। सूर्याचन्द्रमसौ-निरु० १२।१। (पन्थाम्)। छान्दसो नलोपः। पन्थानम्। (कृणुताम्)। कुरुताम्। (सुगम्)। सुदुरोरधिकरणे। वा० पा० ३।२।४८। इति सु+गम्लृ ड। सुखेन गन्तव्यम्। (ते)। तव। (इमम्)। प्रशंसितं राजानम्। (सजाताः)। हे समानजन्मानाः। सजातीयाः। बान्धवाः। (अभिसंविशध्वम्)। विशेश्छन्दस्यात्मनेपदम्। अभितः संगच्छध्वम् ॥

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    विषय

    स्वक्षेत्र-स्थापन

    पदार्थ

    १. (श्येन:) = गतिशील राजा (अन्यक्षेत्रे) = दूसरे के क्षेत्र में (अपरुद्धम्) = गलत कामों में, उसके न करने योग्य कार्यों में फंसे हुए (चरन्तम्) = विषयों का चरण करते हुए पुरुष को (परस्मात्) = उस अन्य क्षेत्र से (हव्यम्) = [हातव्यम्-अदने] हव्य की ओर (आनयतु) = सर्वथा अपने-अपने कार्य में स्थापित करे। कोई दुसरे के क्षेत्र में पग न रक्खे। अपना-अपना कार्य ही सब ठीक ढंग से करें। क्षेत्र' शब्द पत्नी के लिए भी प्रयुक्त होता है। तब अर्थ होगा कि यदि कोई व्यक्ति गलती से पर-पत्नीयों में रुद्ध होकर गति करता है तो राजा उसे उस दुष्कर्म से हटाकर ठीक मार्ग पर लाने का प्रयत्न करें। २. हे राजन् ! (अश्विना) = प्राणापान ते (पन्थाम्) = तेरे मार्ग को (सुगं कृणुताम्) = सुखपूर्वक जाने योग्य करें, अर्थात् प्राणापान की साधना से राजा इसप्रकार सशक्त हो कि वह अपने इन दुष्कर कार्यों को भी सुगमता से कर सके। राजा राष्ट्र में भी ऐसी व्यवस्था करे कि लोगों की प्राणापान की साधना की वृत्ति बने, जिससे वे ग़लत कार्यों को करें ही नहीं। ३. हे (सजाता:) = इस राजा के साथ अथवा समान जन्मवाले राजघराने के पुरुषो! (इमं, अभि संविशध्वम्) तुम भी इस राजा के समीप होते हुए राजा की सेवा करनेवाले बनो, अर्थात् इसके राजकार्यों में तुम भी सहायक होओ। राजघराने के अन्य व्यक्तियों को भी उचित प्रशिक्षण दिया जाए और वे भी राजा के साथ राजकार्यों में सहायक हों, अन्यथा 'मृगया' आदि दुर्व्यसनों में पड़कर वे राष्ट्र पर 'भार' ही हो जाएँगे।

    भावार्थ

    राजा का मूल कर्तव्य है कि वह सबको स्वक्षेत्र में स्थापित करे, स्वयं प्राणसाधना करता हुआ औरों को भी प्राणसाधना में प्रवृत्त करे। सजात राजघराने के पुरुषों को भी राजकार्यों में शिक्षित करके उनमें व्याप्त रहनेवाला बनाए।

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    भाषार्थ

    [हे पदच्युत सम्राट् !] (श्येन:) बाजपक्षी के सदृश उड़नेवाला सामयिक सम्राट्, (हव्यम्) आह्वातव्य (त्वा) तुझे, (परस्मात्) परराष्ट्र से (आ नयतु) ले आए, जो तू कि (अन्यक्षेत्रे२) परराष्ट्र में (अपरुद्धम) स्वेच्छापूर्वक रुका हुआ है, और (चरन्तम्) स्वेच्छया परराष्ट्र में विचर रहा है। (अश्विना) अश्वों तथा अश्वरथों के अध्यक्ष अर्थात् अश्वारोही तथा अश्वरथारोही द्विविध अध्यक्ष (ते पन्थाम्) तेरे वापस आने के मार्ग को (सुगम्) सुगम (कुरुताम्) कर दें। (सजाताः) समान जातिवाले है प्रजाजनो ! (इमम् अभि) इस आनेवाले सम्राट् के अभिमुख (संविशध्वम्) तुम परस्पर मिलकर बैठो, [सामाजिक तथा साम्राज्य के कार्यों के लिए] "सजाता:" द्वारा यह दर्शाया है कि तुम और आगन्तुक सम्राट् एक ही जाति के हों, अतः भेदभाव त्याग दो। हव्यम्=ह्वातव्यम् (सायण)।]

    टिप्पणी

    [२. क्षेत्रसम्भवना कृषि के लिये, उसके जीवनार्थ परराष्ट्र में दिया गया खेत।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Re-establishment of Order

    Meaning

    Let Shyena, information and communication department, bring you information important for political and administrative purposes about what is happening in other and far off regions, information that has been suppressed and blocked by nefarious forces. Let Ashvins, special network of complementary powers of information render the channels of information simple and clear. O citizens of settled and undisturbed cooperation, be together in loyalty with the ruler and the ruling order and live in peace all round.

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    Translation

    From far away, here may the Lord of excellent speed bring him, who is worthy of being invited, but at present is moving on alien land as an exile. May the divine twin-riders make your path easy. O kinsmen, let you join and group around him.

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    Translation

    O’ Praiseworthy ruler; may the sharp-witted messanger bring you from far away if you are an exile in alien land and may the priest and premier make your path-way easy. O’ Ye kinsmen; unite yourselves with him.

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    Translation

    May a learned, wise, active person, bring from far away, the king, whomust be summoned back, roaming secretly in an alien land. May both thespies make thy pathway easy. Come and unite yourselves with him, Okinsmen.

    Footnote

    Thy, him refer to the king brought back from exile.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(श्येनः)। म० ३। शीघ्रगतिः पुरुषः। (हव्यम्)। ह्वेञ्-यत्। आह्वातव्यम्। (नयतु)। प्रापयतु। (आ)। समीपे। (परस्मात्)। दूरदेशात्। (अन्यक्षेत्रे)। परभूमौ। (अपरुद्धम्)। निरुद्धम्। (चरन्तम्)। चर गमने, अदने, आचारे च-शतृ। शुभाचारवन्तम्। (अश्विना)। अ० २।२९।६। सूर्याचन्द्रमसौ-निरु० १२।१। (पन्थाम्)। छान्दसो नलोपः। पन्थानम्। (कृणुताम्)। कुरुताम्। (सुगम्)। सुदुरोरधिकरणे। वा० पा० ३।२।४८। इति सु+गम्लृ ड। सुखेन गन्तव्यम्। (ते)। तव। (इमम्)। प्रशंसितं राजानम्। (सजाताः)। हे समानजन्मानाः। सजातीयाः। बान्धवाः। (अभिसंविशध्वम्)। विशेश्छन्दस्यात्मनेपदम्। अभितः संगच्छध्वम् ॥

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