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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्राग्नी, विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्वराजपुनः स्थापन सूक्त
    44

    ह्वय॑न्तु त्वा प्रतिज॒नाः प्रति॑ मि॒त्रा अ॑वृषत। इ॑न्द्रा॒ग्नी विश्वे॑ दे॒वास्ते॑ वि॒शि क्षेम॑मदीधरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह्वय॑न्तु । त्वा॒ । प्र॒ति॒ऽज॒ना: । प्रति॑ । मि॒त्रा: । अ॒वृ॒ष॒त॒ ।इन्द्रा॒ग्नी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । ते । वि॒शि । क्षेम॑म् । अ॒दी॒ध॒र॒न् ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ह्वयन्तु त्वा प्रतिजनाः प्रति मित्रा अवृषत। इन्द्राग्नी विश्वे देवास्ते विशि क्षेममदीधरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ह्वयन्तु । त्वा । प्रतिऽजना: । प्रति । मित्रा: । अवृषत ।इन्द्राग्नी इति । विश्वे । देवा: । ते । विशि । क्षेमम् । अदीधरन् ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रतिजनाः) प्रतिकूलजन (त्वा) तुझे (ह्वयन्तु) बुलावें। (मित्राः) स्नेही पुरुषों ने (प्रति) प्रत्यक्ष (अवृषत) सेवा की है। (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि [के समान गुणवाले] (ते) उन (विश्वे देवाः) सब तेजस्वी पुरुषों ने (विशि) प्रजा में (क्षेमम्) कुशल (अदीधरन्) स्थापित की है ॥५॥

    भावार्थ

    जिस राजा को प्रजागण चुनते हैं, बैरी लोग उस राजा के आधीन रहते हैं और विद्वान् शूरवीर पुरुष प्रजा में उन्नति करते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(ह्वयन्तु)। आह्वयन्तु। (त्वा)। त्वां धर्मात्मानम्। (प्रतिजनाः)। प्रतिकूलजनाः। शत्रवः। (प्रति)। प्रत्यक्षम्। (मित्राः)। अ० १।३।२। स्नेहिनः। (अवृषत)। वृङ् संभक्तौ-छान्दसे लुङि रूपम्। सेवितवन्तः। (इन्द्राग्नी)। वायुपावकौ। तद्वद्गुणवन्तः पुरुषाः। (विश्वे)। सर्वे। (देवाः)। तेजस्विनो व्यवहारिणो वा जनाः। (ते)। उदात्तोऽयं शब्दः। प्रसिद्धाः। (विशि)। प्रजायाम्। (क्षेमम्)। अर्त्तिस्तुसुहुसुधृक्षिक्षु०। उ० १।१४०। इति क्षि क्षयैश्वर्ययोः-मन्। क्षयति दुःखं नाशयतीति, ऐश्वर्यवान् भवतीति चानेन। कुशलम्। ऐश्वर्यम्। (अदीधरन्)। धृ धारणे-ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। धृतवन्तः ॥

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    विषय

    त्रिविध शान्ति

    पदार्थ

    १. (प्रतिजनाः) = प्रत्येक व्यक्ति-छोटे-बड़े सभी व्यक्ति (त्वा) = तुझे (ह्वयन्तु) = पुकारें। सभी के लिए तू अभिगम्य [Approachable] हो। प्रजाओं के साथ तेरा सम्पर्क बना रहे। प्रजाओं की स्थिति से तू अच्छी प्रकार परिचित हो। (प्रतिमित्रा:) = तेरे सब साथी (अवृषत) = तुझे शक्तिशाली बनानेवाले हों, अर्थात् आवश्कता के समय वे तुझे सहायता देनेवाले हों। राजा राष्ट्र में प्रजाओं का प्रिय हो। राष्ट्र के बाहर मित्रमण्डल उसका सहायक हो। २. (इन्द्राग्री) = इन्द्र व अग्नि तथा (विश्वे देवा:) = सब देव (ते विशि) = तेरी प्रजा में (क्षेमम्) = कल्याण को (अदीधरन) = धारण करें। राष्ट्र में किसी प्रकार की आधिदैविक आपत्तियाँ न आएँ। यज्ञादि उत्तम कार्यों के प्रणयन से सब देवों की अनुकूलता बनी रहे। ३. ('हृयन्तु त्वा प्रतिजनाः') = इन शब्दों में राष्ट्र में अन्त:कोप न होने का संकेत है। प्रजाप्रिय राजा के राज्य में अन्तर्विप्लव नहीं हुआ करते। राष्ट्र हड़ताल आदि के उपद्वों से बचा रहता है। ('प्रतिमित्रा अवृषत') = ये शब्द बाहर के आक्रमणों से बचाव का संकेत करते हैं और मन्त्र का उत्तरार्ध दैवी प्रकोपों के न होने का उल्लेख कर रहा है। इसप्रकार राष्ट्र अन्त:शान्ति तथा बहि:शान्ति को प्राप्त करके दैवी आपत्तियों के अभाव में निरन्तर आगे बढ़ता जाता है।

    भावार्थ

    राजा प्रजा के लिए अभिगम्य हो, मित्रशक्ति से युक्त हो। राष्ट्र दैवी प्रकोपों से बचानेवाला हो। यज्ञादि की व्यवस्था तथा स्वाध्याय के प्रचार के द्वारा ही यह सम्भव है।

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    भाषार्थ

    [है सम्राट्] (प्रतिजना:) साम्राज्य के सब जन अर्थात् प्रत्येक जन (त्वा) तेरा (ह्वयन्तु) आह्वान करें, (प्रति) प्रतिकूल हुए (मित्रः) मित्र [राजाओं] ने तेरा (अवृषत) वरण कर लिया है, तुझे स्वीकृत कर लिया है। (इन्द्राग्नी) सामयिक सम्राट् और अग्रणी प्रधानमंत्री ने (विश्वदेवाः) तथा साम्राज्य के सब दिव्य व्यक्तियों ने (विशि) प्रजाजनों में (ते) तेरे लिए (क्षेमम्) सुरक्षा के निश्चय की (अदीधरन्) धारण कर ली है।

    टिप्पणी

    [पदपाठ में "प्रतिजनाः" समस्त पद है, और "प्रति, मित्रा;" असमस्त हैं। यह दर्शाने के लिए कि साम्राज्य का प्रति व्यक्ति तो तुझे चाहता ही है, परन्तु साम्राज्य के मित्र-राजा जो तेरा विरोध करते थे, परन्तु उन्होंने भी तेरा वरण कर लिया है, तथा साम्राज्य के सामयिक इन्द्र और अग्नि ने, तथा सब देवों ने तेरी सुरक्षा की धारणा अपनाली है। अवृषत=अट्+ वृञ् (वरणे, क्र्यादि:)। छान्दस लुङ्। ये मित्र राजा साम्राज्य के राष्ट्रों के अधिपति हैं, जिन्हें कि "वरुण" कहा है, यथा “इन्द्रश्च सम्राट वरुणश्च राजा” (यजु० ८।१७)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Re-establishment of Order

    Meaning

    Let the people opposed to you and their friends and corporates, who might have otherwise lost their chance, call on you, meet you and show generosity of mind to cooperate with you. Let Indra, defence and administration, Agni, teachers and researchers, and all the nobilities of humanity and powers of nature in the environment, bear and bring about peace and progress among the people.

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    Translation

    May people invite you to come back. May your friends strengthen you. May the lord resplendent and adorable, and all the bounties of Nature keep you safe and secure amidst your people.(Indragni = Lord resplendent and adorable — vigvedevah = All the bounties of Nature).

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    Translation

    O’ ruler; may your opponents call you back, may your friends chose vou again and may man of power, man of leading acumen and other enlightened persons keep up your prosperity and happiness among the subject.

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    Translation

    Let thy opponents call thee back. Thy friends have chosen thee again,May men active like lightning and fire, and all the learned persons, establishpeace for thee, in thy subjects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(ह्वयन्तु)। आह्वयन्तु। (त्वा)। त्वां धर्मात्मानम्। (प्रतिजनाः)। प्रतिकूलजनाः। शत्रवः। (प्रति)। प्रत्यक्षम्। (मित्राः)। अ० १।३।२। स्नेहिनः। (अवृषत)। वृङ् संभक्तौ-छान्दसे लुङि रूपम्। सेवितवन्तः। (इन्द्राग्नी)। वायुपावकौ। तद्वद्गुणवन्तः पुरुषाः। (विश्वे)। सर्वे। (देवाः)। तेजस्विनो व्यवहारिणो वा जनाः। (ते)। उदात्तोऽयं शब्दः। प्रसिद्धाः। (विशि)। प्रजायाम्। (क्षेमम्)। अर्त्तिस्तुसुहुसुधृक्षिक्षु०। उ० १।१४०। इति क्षि क्षयैश्वर्ययोः-मन्। क्षयति दुःखं नाशयतीति, ऐश्वर्यवान् भवतीति चानेन। कुशलम्। ऐश्वर्यम्। (अदीधरन्)। धृ धारणे-ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। धृतवन्तः ॥

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