अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राजासंवरण सूक्त
71
इन्द्रे॑न्द्र मनु॒ष्याः परे॑हि॒ सं ह्यज्ञा॑स्था॒ वरु॑णैः संविदा॒नः। स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स्वे स॒धस्थे॒ स दे॒वान्य॑क्ष॒त्स उ॑ कल्पया॒द्विशः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ऽइन्द्र । म॒नु॒ष्या᳡: । परा॑ । इ॒हि॒ । सम् । हि । अज्ञा॑स्था: । वरु॑णै: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: ।स: । त्वा॒ । अ॒यम् । अ॒ह्व॒त् । स्वे । स॒धऽस्थे॑ । स: । दे॒वान् । य॒क्ष॒त् । स: । ऊं॒ इति॑ । क॒ल्प॒या॒त् । विश॑: ॥४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेन्द्र मनुष्याः परेहि सं ह्यज्ञास्था वरुणैः संविदानः। स त्वायमह्वत्स्वे सधस्थे स देवान्यक्षत्स उ कल्पयाद्विशः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रऽइन्द्र । मनुष्या: । परा । इहि । सम् । हि । अज्ञास्था: । वरुणै: । सम्ऽविदान: ।स: । त्वा । अयम् । अह्वत् । स्वे । सधऽस्थे । स: । देवान् । यक्षत् । स: । ऊं इति । कल्पयात् । विश: ॥४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजतिलक का उत्सव।
पदार्थ
(इन्द्रेन्द्र) हे राजराजेश्वर ! (मनुष्याः=मनुष्यान्) मनुष्यों को (परेहि) समीप से प्राप्त कर, (हि) क्योंकि (वरुणैः) श्रेष्ठ पुरुषों से (संविदानः) मिलाप करता हुआ तू (सम्) यथाविधि (अज्ञास्थाः) जाना गया है। (सः अयम्) सो इस [प्रत्येक मनुष्य] ने (त्वा) तुझको (स्वे सधस्थे) अपने समाज में (अह्वत्) बुलाया है। (सः=सः भवान्) सो आप (देवान्) व्यवहारकुशल पुरुषों का (यक्षत्) सत्कार करें, (सः उ=सः उ भवान्) वही आप (विशः) प्रजाओं को (कल्पयात्) समर्थ करें ॥६॥
भावार्थ
प्रजापालक राजा विद्वान् चतुर मनुष्यों से मिलता रहे और सुपात्रों को योग्यतानुसार पदाधिकारी करे ॥६॥
टिप्पणी
६−(इन्द्रेन्द्र)। हे इन्द्राणामिन्द्र। राजराजेश्वर। (मनुष्याः)। मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-यत्-षुक् च। मनुर्मननम्। शसो नत्वाभावश्छान्दसः। मनुष्यजातीन् मनुष्यान्। मननशीलान् प्रजागणान् (परा)। समीपे। (इहि)। गच्छ। प्राप्नुहि। (हि)। यस्मात् कारणात्। (सम्, अज्ञास्थाः)। ज्ञा अवबोधने-लुङि। सम्प्रतिभ्यामनाध्याने। पा० १।३।४६। इत्यात्मनेपदम्। सम्यक्, यथाविधि ज्ञातोऽसि। (वरुणैः)। वरणीयैः। श्रेष्ठैः। वरयितृभिः। (संविदानः)। अ० २।२८।२। सम्+विद ज्ञाने-शानच्। संगच्छमानः। (सः)। स प्रत्येकजनः। (अह्वत्)। आह्वयति स्म। (स्वे)। स्वकीये। (सधस्थे)। सह+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। सधमादस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। इति सहस्य सधादेशः। समाजे। (सः)। स भवान् राजा। (देवान्)। व्यवहारिणः पुरुषोत्तमान्। (यक्षत्)। यजतेर्लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। यजतु। सत्करोतु। (उ)। अवधारणे। (कल्पयात्)। कृपू सामर्थ्ये णिचि लेटि आडागमः। कल्पयतु। समर्थयतु। (विशः)। प्रजाः ॥
विषय
देवयजन-प्रजाकल्पन
पदार्थ
१. (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय राजन्! हे (इन्द्र) = हे राष्ट्र के सञ्चालक ! (मनुष्या:) = मनु की अपत्यभूत इन मानव-प्रजाओं को तू (परेहि) = सुदूर देश में भी प्राप्त हो। इस राष्ट्र में (वरुणैः) = श्रेष्ठ पुरुषों से संज्ञानवाला होता हुआ तू (हि) = निश्चय से (सं अज्ञास्था:) = सम्यक् ज्ञानवाला हो। राजा प्रजा की स्थिति को ठीक से जाने और अपने कर्तव्यों को भी ठीक से जाननेवाला हो। २. (सः अयम्) = वे ये वरुण-सब कष्टों का निवारक प्रभु (त्वा) = तुझे स्वे (सधस्थे) = अपने सह स्थान में (अह्वत्) = पुकारता है, अर्थात् राजा सिंहासन पर बैठते हुए अपने हृदय में स्थित उस प्रभु के साथ भी बैठने का प्रयत्न करता है। प्रभु-स्मरणपूर्वक शासन करनेवाला राजा प्रजा के कष्टों को अवश्य दूर करेगा। (स:) = वह (देवान् यक्षत्) = देवों का-विद्वानों का पूजन व आदर करता है (उ) = और (स:) = वह राजा (विश:) = प्रजाओं को (कल्पयात्) = शक्तिशाली बनाता है। राजा अपने राष्ट्र में विद्वानों का आदर करता है और उनकी सम्मतियों से लाभ उठाता हुआ उत्तम राष्ट्र-व्यवस्था के द्वारा प्रजाओं को निर्वल नहीं होने देता। प्रजा के सामर्थ्य का वर्धन ही राजा का उद्देश्य होता है।
भावार्थ
राजा प्रजा के साथ अपना सम्पर्क बनाए रक्खे। प्रभु-स्मरणपूर्वक प्रजाओं का शासन करता हुआ यह राजा राष्ट्र में विद्वानों का आदर करे सब प्रजाओं को सबल बनाए।
भाषार्थ
(इन्द्रेन्द्र१) हे सम्राटों के भी सम्राट् ! (मनुष्याः) मनुष्य ! (परेहि) परेस्थित सिंहासन की ओर आ, (वरुणै:) वरण करनेवाले माण्डलिक बरुण-राजाओं के साथ (संविदान:) ऐकभत्य को प्राप्त तू, (सम्, हि, अशास्थाः) निश्चय से सम्यक् ज्ञानी हुआ है। (सः) उस वरुण-परमेश्वर ने (त्वा अह्वत्) तेरा आह्वान किया है। (स्वे सधस्थे) अपने साथ बैठने के निज सिंहासन पर, (सः) वह वरुण-परमेश्वर (देवान्) साम्राज्य के दिव्य अधिकारियों के (यक्षत्) साम्राज्य-यज्ञ को सफल करे, (सः उ) वह ही (विशः) प्रजाओं को (कल्पयात्) सामर्थ्यसम्पन्न करे।
टिप्पणी
[मनुष्याः में "दूराद्धूते च" (अष्टा० ८।२।८४) के अनुसार प्लुत होकर "विसर्गान्त आकार" हुआ है। सायणाचार्य ने "मनुष्यान्" अर्थ किया है और कहा है कि "शसो नत्वाभावः छान्दसः"। मन्त्र के उत्तरार्ध में यह दर्शाता है कि हे भावी सम्राट् ! सिंहासन पर तो बरुण-परमेश्वर स्थित है, उसने तेरा आह्वान किया है सिंहासन के अर्धासन पर, निज के साथ बैठने के लिए। तू जान कि शासन करते हुए साथ वरुण-परमेश्वर भी बैठा है तेरी शासन-व्यवस्था के निरीक्षण के लिए। अतः तू न्यायपूर्वक और धर्मपूर्वक शासन करना, तब तेरे राज्याधिकारी, तथा प्रजाएं सामर्थ्यसम्पन्न होगा। कल्पयात् =कृपू सामर्थ्ये (भ्वादिः)।] [१. सम्राटों के भी सम्राट्। भिन्न-भिन्न जातियों के अपने-अपने सम्राट होते हैं। परन्तु भुमण्डल व्यापी संगठन में सम्राटो का भी एक सम्राट् होना आवश्यक है। इसे एकराट् (सूक्त ४।१) तथा जनराट् (अथर्थ ० २०।२१।९) कहते हैं।]
विषय
राजा का राज्याभिषेक ।
भावार्थ
(इन्द्र, इन्द्र) हे ऐश्वर्यशील ‘इन्द्र’ नाम से पुकारने योग्य, साक्षात् इन्द्ररूप राजन् ! (मनुष्याः=मनुष्यान्) समस्त मानवों को (परा इहि) लांघ कर उनसे परे रह, उनको अपने वशकर और (वरुणैः) शासक विभाग में नियुक्त अधिकारियों या वरण करने वाले प्रजा के प्रतिनिधियों, उसको घेर कर बैठने वाले अमात्यों द्वारा (संविदानः) समस्त राष्ट्र की बातों पर विचार और सहमति कर (हि) निश्चय से तू सब कुछ (सं अज्ञास्थाः) ठीक २ प्रकार से निश्चय कर लिया कर । (सः अयम्) वह यह मनुष्य-लोक ही (त्वा) तुझ को (स्वे) अपने (सधस्थे) सभास्थान, समाज और गृहों पर (अह्वत्) आदरपूर्वक बुलाता है। (सः) वह तू राजा ही (देवान्) विद्वान् पुरुषों को (यक्षत्) स्थान पर नियुक्त करता है । (सः उ) वह राजा ही (विशः) समस्त प्रजानों को (कल्पयात्) सुव्यवस्थित करता है उनको उनके व्यापारों में लगाता है । अथवा—(स अयम्) हे प्रजाजनो ! वह राजा ही राष्ट्र-प्रजा को (स्वे सधस्थे) अपने राजभवन में (अह्वत्) बुलाकर एकत्र करता है । (स देवान् यक्षत्) विद्वानों को सादर एकत्र करता और (सः उ विशः कल्पयात्) वह ही प्रजाओं को उनके कार्यों में व्यवस्थित करता है ।
टिप्पणी
‘इन्द्र इव मनुष्यः परे हि संह्यज्ञास्था वर्णैः संविदानः’ इति ह्विटनिकामितः पाठः । ‘इन्द्रो इदं मनुष्यः प्रेहि संयज्ञियास्त्वा वरुणेन संविदानः’ [ ? ] इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १ जगती । ५, ६ भुरिजौ । २, ३, ४, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Re-establishment of Order
Meaning
Indra, ruler of rulers, go far among the people. Meeting with the best, you would know them and their problems. It is the people who call upon you to visit their homes. So you honour the noble and brilliant and develop the community to a higher level.
Translation
O king of kings, may you come to all the ranks of your men. Having full concord with the Varuna (Police-Chief and ` Police officers) , you are aware of this invitation. As such he has invited you to his own office, his own residence . He has adored the enlighted ones. He will also manoeuvre and guide the people.
Translation
O’ Imperial ruler, you pass to your man as you having the company of good persons know the nature of men. He who calls you in his society respond him amicably. You serve the learned men and make the people of the nation strong and able.
Translation
O Emperor, control all men, consult thy ministers on all state affairs,undoubtedly arrive at definite decisions after day thought. O subjects, thisking, calling ye to his palace, unifies ye. He reverently assembles the learned.He directs his subjects to fulfill their duties.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(इन्द्रेन्द्र)। हे इन्द्राणामिन्द्र। राजराजेश्वर। (मनुष्याः)। मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-यत्-षुक् च। मनुर्मननम्। शसो नत्वाभावश्छान्दसः। मनुष्यजातीन् मनुष्यान्। मननशीलान् प्रजागणान् (परा)। समीपे। (इहि)। गच्छ। प्राप्नुहि। (हि)। यस्मात् कारणात्। (सम्, अज्ञास्थाः)। ज्ञा अवबोधने-लुङि। सम्प्रतिभ्यामनाध्याने। पा० १।३।४६। इत्यात्मनेपदम्। सम्यक्, यथाविधि ज्ञातोऽसि। (वरुणैः)। वरणीयैः। श्रेष्ठैः। वरयितृभिः। (संविदानः)। अ० २।२८।२। सम्+विद ज्ञाने-शानच्। संगच्छमानः। (सः)। स प्रत्येकजनः। (अह्वत्)। आह्वयति स्म। (स्वे)। स्वकीये। (सधस्थे)। सह+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। सधमादस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। इति सहस्य सधादेशः। समाजे। (सः)। स भवान् राजा। (देवान्)। व्यवहारिणः पुरुषोत्तमान्। (यक्षत्)। यजतेर्लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। यजतु। सत्करोतु। (उ)। अवधारणे। (कल्पयात्)। कृपू सामर्थ्ये णिचि लेटि आडागमः। कल्पयतु। समर्थयतु। (विशः)। प्रजाः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইন্দ্রেন্দ্র১) হে সম্রাটদেরও সম্রাট! (মনুষ্যাঃ) মনুষ্য! (পরেহি) দূরস্থিত সিংহাসনের দিকে এসো (বরুণৈঃ) বরণকারী মাণ্ডলিক বরুণ-রাজাদের সাথে (সংবিদানঃ) ঐকমত্য প্রাপ্ত তুমি, (সম্, হি, অজ্ঞাস্থাঃ) নিশ্চিতরূপে সম্যক্ জ্ঞানী হয়েছো। (সঃ অয়ম্) সেই বরুণ-পরমেশ্বর (ত্বা অহ্বৎ) তোমার আহ্বান করেছে (স্বে সধস্থে) নিজের সাথে বসার/উপবেশনের নিজ সিংহাসনে, (সঃ) সেই বরুণ-পরমেশ্বর (দেবান্) সাম্রাজ্যের দিব্য অধিকারীদের (যক্ষৎ) সাম্রাজ্য-যজ্ঞকে সফল করেন/করবেন, (সঃ উ) তিনিই (বিশঃ) প্রজাদের (কল্পয়াৎ) সামর্থ্যসম্পন্ন করে/করুক।
टिप्पणी
[মনুষ্যাঃ তে "দূরাদ্ধূতে চ" (অষ্টা০ ৮।২।৮৪) এর অনুসারে প্লুত হয়ে "বিসর্গান্ত আকার" হয়েছে। সায়ণাচার্য "মনুষ্য" অর্থ করেছে এবং বলেছে যে, "শসো নত্বাভাবঃ ছান্দসঃ"। মন্ত্রের উত্তরার্ধে এটা প্রদর্শিত করানো হয়েছে যে, হে হবু সম্রাট্! সিংহাসনে তো বরুণ পরমেশ্বর স্থিত রয়েছেন, তিনি তোমার আহ্বান করেছেন সিংহাসনের অর্ধাসনে, নিজের সাথে বসার জন্য। তুমি এটা জানো যে, শাসনরত অবস্থায় বরুণ-পরমেশ্বরও স্থিত রয়েছেন, তোমার শাসন-ব্যবস্থা এর নিরীক্ষণের জন্য। অতঃ তুমি ন্যায়পূর্বক এবং ধর্মপূর্বক শাসন করো, তবেই তোমার রাজ্যাধিকারী, এবং প্রজাগণ সামর্থ্যসম্পন্ন হবে। কল্পয়াৎ=কৃপূ সামর্থ্যে (ভ্বাদিঃ)] [১. সম্রাটদেরও সম্রাট্ ! ভিন্ন-ভিন্ন রাজ্যের নিজ-নিজ সম্রাট্ থাকে। কিন্তু ভূমণ্ডল ব্যাপী সংগঠনে সম্রাটদেরও একজন সম্রাট্ হওয়া আবশ্যক। একে একরাট্ (সূক্ত ৪।১) এবং জনরাট্ (অথর্ব০ ২০।২১।৯) বলা হয়।]
मन्त्र विषय
রাজ্যাভিষেকোৎসবঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রেন্দ্র) হে রাজরাজেশ্বর ! (মনুষ্যাঃ=মনুষ্যান্) মনুষ্য কে (পরেহি) সম্মুখে প্রাপ্ত করো, (হি) কেননা (বরুণৈঃ) শ্রেষ্ঠ পুরুষদের সাথে (সংবিদানঃ) মিলিত তুমি (সম্) যথাবিধি (অজ্ঞাস্থাঃ) জ্ঞাত হয়েছো। (সঃ অয়ম্) সুতরাং এই [প্রত্যেক মনুষ্য] (ত্বা) তোমাকে (স্বে সধস্থে) নিজের সমাজে (অহ্বৎ) আহ্বান করেছে। (সঃ=সঃ ভবান্) সুতরাং/সেই তুমি (দেবান্) ব্যবহার কুশল পুরুষদের (যক্ষৎ) সৎকার করো, (সঃ উ=সঃ উ ভবান্) সেই তুমি (বিশঃ) প্রজাদের (কল্পয়াৎ) সমৃদ্ধি করো ॥৬॥
भावार्थ
প্রজাপালক রাজা বিদ্বান্ চতুর মনুষ্যদের সাথে মেলামেশা করতে থাকুক এবং সুপাত্রকে যোগ্যতানুসার পদাধিকারী করুক ॥৬॥
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