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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    122

    पुमा॑न्पुं॒सः परि॑जातोऽश्व॒त्थः ख॑दि॒रादधि॑। स ह॑न्तु॒ शत्रू॑न्माम॒कान्यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुमा॑न् । पुं॒स: । परि॑ऽजात: । अ॒श्व॒त्थ: । ख॒दि॒रात् । अधि॑ । स: । ह॒न्तु॒ । शत्रू॑न् । मा॒म॒कान् । यान् । अ॒हम् । द्वेष्मि॑ । ये । च॒ । माम् ॥६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुमान्पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि। स हन्तु शत्रून्मामकान्यानहं द्वेष्मि ये च माम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुमान् । पुंस: । परिऽजात: । अश्वत्थ: । खदिरात् । अधि । स: । हन्तु । शत्रून् । मामकान् । यान् । अहम् । द्वेष्मि । ये । च । माम् ॥६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उत्साह बढ़ाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह (पुमान्) रक्षाशील (अश्वत्थः) अश्वत्थामा अर्थात् अश्वों, बलवानों में ठहरनेवाला पुरुष, अथवा वीरों के ठहरने का स्थान पीपल का वृक्ष, (पुंसः) रक्षाशील (खदिरात् अधि) स्थिर स्वभाववाले परमेश्वर से, अथवा खैर वृक्ष से (परिजातः) प्रकट होकर (मामकान् शत्रून्) मेरे उन शत्रुओं वा रोगों को (हन्तु) नाश करे (यान्) जिन्हें (अहम्) मैं (द्वेष्मि) वैरी जानता हूँ (च) और (ये) जो (माम्) मुझे [वैरी जानते हैं] ॥१॥

    भावार्थ

    जो पुरुष सर्वरक्षक दृढ़ स्वभावादि गुणवाले परमेश्वर को विचार करके अपने को सुधारते हैं, वे शूरों में महाशूर होकर कुकर्मी शत्रुओं से बचाकर संसार में कीर्ति पाते हैं ॥१॥ २−अश्वत्थ, पीपल का वृक्ष, दूसरे वृक्षों के खोखले, घरों की भीतों और अन्य स्थानों में उगता है और बहुत गुणकारी है। खैर के वृक्ष पर उगने से अधिक गुणदायक हो जाता है। लोग बड़ा आदर करके पवित्र पीपल की चित्तप्रसादक छाया और वायु में सन्ध्या, हवन, व्यायाम आदि करते और इसके दूध, पत्ते, फल, लकड़ी से बहुत ओषधियाँ बनाते हैं। शब्दकल्पद्रुम कोष में इसको मधुर, कसैला, शीतल, कफ-पित्त विनाशी, रक्तदाहशान्तिकारक आदि और खदिर अर्थात् खैर को शीतल, तीखा, कसैला, दाँतों का हितकारी, कृमि, प्रमेह, ज्वर, फोड़े, कुष्ठ, शोथ, आम, पित्त, रुधिर पाण्डु और कफ का विनाशक आदि लिखा है ॥ पद्मोत्तरखण्ड अध्याय १२६, १६०−१६१ में अश्वत्थ की कथा सविस्तर लिखी है ॥

    टिप्पणी

    १−(पुमान्)। पातेर्डुमसुन्। उ० ४।१७८। इति पा रक्षणे-डुमसुन्, डित्वाट् टिलोपः। पातीति पुमान् [पुमस्]। रक्षकः पुरुषः। (पुंसः)। रक्षकात्। (परिजातः)। प्रादुर्भूतो भवति। (अश्वत्थः)। अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। इति अशू व्याप्तिसंहत्योः-क्वन्। अश्नुते कार्याणि स अश्वः, बलवान् पुरुषः। सुपि स्थः। पा० ३।२।४। इति अश्व+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। पृषोदरादित्वाद् रूपम्। अश्वेषु बलवत्सु तिष्ठतीति सः। अतिवीरपुरुषः। अश्वत्थामा। अथवा। अश्वा वीरास्तिष्ठन्ति यत्र स अश्वत्थः पिप्पलवृक्षः। (खदिरात्)। अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। इति खद स्थैर्यहिंसयोः-किरच्। स्थिरस्वभावात् परमेश्वरात्। वृक्षविशेपाद्वा। (अधि)। पञ्चम्यर्थानुवादी। (सः)। स अश्वत्थः। (हन्तु)। नाशयतु। (शत्रून्)। शातयितॄन्। अरीन्। रोगान्। (मामकान्)। अ० १।२९।५। मदीयान्। (यान्)। अपकारिणः। (द्वेष्मि)। द्विष वैरे। प्रतिकूलान् जानामि। (ये)। अपकारिणः। (माम्)। उपासकं द्विषन्तीति विपरिणामेन सम्बन्धः ॥

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    विषय

    पुमान् पुंसः, अश्वत्थः खदिरात

    पदार्थ

    १. प्रभु (पुमान्) = पुमान् हैं, (पुनाति) = सबको पवित्र करनेवाले हैं। (पुंस:) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाले पुरुष से (परिजात:) = प्रादुर्भूत होते हैं। अपने हृदय को पवित्र करनेवाला पुरुष ही प्रभु के प्रकाश को देखता है। २. प्रभु'अश्वत्थ' हैं-कर्मों में व्याप्त रहनेवाले पुरुष के हृदय में स्थित होते हैं। ये प्रभु (खदिरात्) = स्थिर वृत्तिवाले-वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष से (अधि) = [जातः]-अपने अन्दर प्रादुर्भूत किये जाते हैं[खद स्थैर्य हिंसायां च]। ३. (स:) = वे प्रभु ही (मामकान् शत्रून) = मेरे शत्रुओं को हन्तु नष्ट करें। उन शत्रुओं को (यान्) = जिन्हें (अहम्) = मैं (द्वेष्मि) = अप्रीतिकर समझता हूँ (च) = और (ये) = जो (माम्) = मुझे द्वेष से देखते हैं। काम-क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझ प्रिय नहीं और मैं उनका प्रिय नहीं हूँ। प्रभु मेरे इन शत्रुओं को मुझसे पृथक् करें।

    भावार्थ

    पवित्र बनकर मैं पवित्र प्रभु के प्रकाश को देखें। स्थिर वृत्तिवाला बनकर मैं कर्मशीलों में व्याप्त उस प्रभु को पहचानें। प्रभु मेरे काम आदि शत्रुओं को विनष्ट करें।

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    भाषार्थ

    (पुंसः) अभिवर्धनशील पिता से (पुमान्) अभिवर्धनशीलपुत्र (परिजातः) पैदा होता है, जैसेकि (खदिरात् अधि) खैर से (अश्वत्थः१) पीपल। (सः) वह अभिवर्धनशील पुत्र (मामकान्) मेरे (शत्रून् हन्तु) शत्रुओं का हनन करे, (यान्) जिनके साथ (अहम्) मैं (द्वेष्मि) द्वेष करता हूँ, (च) और (ये) जो (माम्) मेरे साथ द्वेष करते हैं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के प्रारम्भ में "पुमान् पुंसः" का कथन हुआ है, अतः समग्र सूक्त में "पुमान् पुंसः" का भी वर्णन अभीष्ट प्रतीत होता है। "अश्वत्थः खदिरात्" तो दृष्टान्तरूप है। तथा देखो "संस्कारविधि: पुंसवन संस्कार।" जैसे पुत्र पिता के शत्रुओं का हनन करता है, वैसे अश्वत्थ अर्थात् खदिर२ से उत्पन्न अश्वत्थ भी रोगों का हनन करता है। मन्त्र २ से ८ तक में अश्वत्थ पद पठित है, तो भी इस दष्टान्त पद द्वारा दाष्टन्ति या उपमेयरूप में पुमान्-पुरुष भी अभिप्रेत है। [ १. अश्वत्थः -- Figtree (आप्टे)। Fig= सम्भवतः अञ्जीर। २. खदिर के कोटर अर्थात् गड़हे से उत्पन्न अश्वत्थ में खदिर की भी रोग निवारण शक्ति होती है और निज की भी]

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    विषय

    वीर सैनिकों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (खदिराद् अधि) खदिर नामक वृक्ष पर (परिजातः) उत्पन्न हुआ (अश्वत्थः) पीपल का वृक्ष गुणों में अति अधिक हो जाता है उसी प्रकार (पुंसः) वीर्यवान् पुरुष से उत्पन्न हुआ (पुमान्) वीर्यवान् पुरुष भी बड़ा गुणी, बलवान् और निर्भय होता है । राजा ऐसे पुरुषों से यह आशा करे कि (सः) वह वीर पिता के वीर्य से उत्पन्न, वीर पुरुष (अश्वत्थः) अश्व पर आरूढ़ होकर या अश्व सैन्य का प्रमुख होकर (मामकान्) मेरे उन (शत्रून्) शत्रुओं को (हन्तु) विनाश करे (यान्) जिनको (अहं) मैं (द्वेष्मि) प्रेमभाव से नहीं देखता और साथ ही (ये च) और जो (माम्) मुझ से भी द्वेष करते हैं । जिस प्रकार वैद्य तीक्ष्णवीर्य ओषधि को प्राप्त करने की इच्छा से ऐसे पीपल को खोजता है जो तीक्ष्णवीर्य खदिर पर उत्पन्न हुआ हो उसी प्रकार राजा भी युद्ध में शत्रु के विजय के लिये ऐसे पुरुषों को अपनी सेना में ले जिनके पूर्व पुरुषा, मां बाप बलशाली, वीर्यवान् हों। उनके संस्कार साहस के कार्यों में प्रबल होते हैं । ऐसे पुरुषों को अश्वस्थ से उपमा देने के कारण उनको उसी प्रकार का जो चिह्न धारण कराया जावे उसका भी नाम ‘अश्वत्थमणि’ समझना उचित है ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘परिजातो अश्वत्थः’ (च०) ‘यांश्चाहं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जगद्बीजं पुरुष ऋषिः । वनस्पतिरश्वत्थो देवता । अरिक्षयाय अश्वत्थदेवस्तुतिः । १-८ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Brave

    Meaning

    Just as an ashvattha plant sprouted and grown on a khadira tree is doubly efficacious, so is a man born of strong parents after Punsavana ceremony doubly strong. May the efficacious ashvattha and the brave hero destroy my enemies, physical as well as human, which I hate to suffer and those that injure me. (Ashvattha in this sukta may be interpreted as the herb or as the brave hero. The speaker may be interpreted as an average person, or as the ruler in continuation of the previous sukta. In support of the interpretation of Ashvattha as a settled person, reference may be made to Rgveda 6, 47, 24 and Taittiriya Brahmanam 3, 8, 12, 2; 1, 1, 3, 9; Shatapatha 12, 7, 1, 9; Aitareya 7, 32, 8, 16; Shatapatha 5, 3, 5, 14; and Taittiriya 1, 7, 8, 7.) Reference: Vaidic Kosha (Arsha Sahitya Prachara Trust: Delhi, 1975, p. 138.) by Rajvir Shastri.

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    Subject

    Ašvatthah

    Translation

    Like a manly person born out of a manly father, Ašvattha (Ficus religiosa -holy fig tree) grows upon khadira (Acacia catechu). May it slay my enemies, whom I hate and who hate me.

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    Translation

    As Ashvatthah, the fig tree Springing from the hole of Khadir, the tree of Catechu becomes more powerful for the medicinal purposes so the male springing through the forces of Punsavana cernomy becomes more powerful and brave. Let that plant destroy our enemies, the disease which trouble us and which we do not like.

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    Translation

    Just as the Peepal (Ficus Religiosa) tree grows from Khadira (Acacia Catechu), so is a hero born of a hero. May he destroy my enemies, who hateme and whom I detest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(पुमान्)। पातेर्डुमसुन्। उ० ४।१७८। इति पा रक्षणे-डुमसुन्, डित्वाट् टिलोपः। पातीति पुमान् [पुमस्]। रक्षकः पुरुषः। (पुंसः)। रक्षकात्। (परिजातः)। प्रादुर्भूतो भवति। (अश्वत्थः)। अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। इति अशू व्याप्तिसंहत्योः-क्वन्। अश्नुते कार्याणि स अश्वः, बलवान् पुरुषः। सुपि स्थः। पा० ३।२।४। इति अश्व+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। पृषोदरादित्वाद् रूपम्। अश्वेषु बलवत्सु तिष्ठतीति सः। अतिवीरपुरुषः। अश्वत्थामा। अथवा। अश्वा वीरास्तिष्ठन्ति यत्र स अश्वत्थः पिप्पलवृक्षः। (खदिरात्)। अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। इति खद स्थैर्यहिंसयोः-किरच्। स्थिरस्वभावात् परमेश्वरात्। वृक्षविशेपाद्वा। (अधि)। पञ्चम्यर्थानुवादी। (सः)। स अश्वत्थः। (हन्तु)। नाशयतु। (शत्रून्)। शातयितॄन्। अरीन्। रोगान्। (मामकान्)। अ० १।२९।५। मदीयान्। (यान्)। अपकारिणः। (द्वेष्मि)। द्विष वैरे। प्रतिकूलान् जानामि। (ये)। अपकारिणः। (माम्)। उपासकं द्विषन्तीति विपरिणामेन सम्बन्धः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (পুংসঃ) অভিবর্ধনশীল পিতার দ্বারা (পুমান্) অভিবর্ধনশীলপুত্র (পরিজাতঃ) জন্ম হয়, যেমন (খদিরাত অধি) খয়ের/খদির থেকে (অশ্বত্থঃ১) অশ্বত্থ। (সঃ) সেই অভিবর্ধনশীল পুত্র (মামকান্) আমার (শত্রূন্ হন্তু) শত্রুদের হনন করুক, (যান) যার প্রতি (অহম্) আমি (দ্বেষ্মি) দ্বেষ করি, (চ) এবং (যে) যে (মাম্) আমার সাথে দ্বেষ করে।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রের প্রারম্ভে "পুমান্ পুংসঃ” এর কথন হয়েছে, অতঃ সমগ্র সূক্তে "পুমান্ পুংসঃ" এর বর্ণনা অভীষ্ট প্রতীত হয়। "অশ্বত্থঃ খদিরাত" তো দৃষ্টান্তরূপ। এবং দেখো "সংস্কারবিধিঃ পুংসবন সংস্কার।" যেভাবে পুত্র, পিতার শত্রুদের হনন করে, তেমনই অশ্বত্থ অর্থাৎ খয়ের২ থেকে উৎপন্ন অশ্বত্থও রোগের হনন করে। মন্ত্র ২ থেকে ৮ পর্যন্ত অশ্বত্থ পদ পঠিত হয়েছে, তবুও এই দৃষ্টান্ত পদ দ্বারা দাষ্টন্তি বা উপমেয়রূপে পুমান্-পুরুষও অভিপ্রেত হয়েছে।] [১. অশ্বত্থঃ=FigTree (আপ্টে)। Fig=সম্ভবতঃ অঞ্জীর/ডুমুর। ২. খয়ের এর কোটর অর্থাৎ খোদল থেকে উৎপন্ন অশ্বত্থের মধ্যে খয়েরেরও রোগ নিবারণ শক্তি থাকে এবং নিজেরও ।]

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    मन्त्र विषय

    উৎসাহবর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সঃ) সেই (পুমান্) রক্ষাশীল (অশ্বত্থঃ) অশ্বত্থামা অর্থাৎ অশ্বাদির, বলবানদের মধ্যে অধিষ্ঠিত পুরুষ, অথবা বীরদের অধিষ্ঠানের স্থান অশ্বত্থ বৃক্ষ, (পুংসঃ) রক্ষাশীল (খদিরাৎ অধি) স্থির স্বভাবযুক্ত পরমেশ্বর দ্বারা, অথবা খয়ের বৃক্ষ থেকে (পরিজাতঃ) প্রকট হয়ে (মামকান্ শত্রূন্) আমার সেই শত্রুদের বা রোগসমূহকে (হন্তু) নাশ করুক (যান্) যাদের (অহম্) আমি (দ্বেষ্মি) শত্রু জানি (চ) এবং (যে) যারা (মাম্) আমাকে [শত্রু মনে করে] ॥১॥

    भावार्थ

    যে পুরুষ সর্বরক্ষক দৃঢ় স্বভাবাদি গুণসম্পন্ন পরমেশ্বরের বিচার করে নিজেকে সংশোধন করে, তাঁরা শৌর্যশালীদের মধ্যে মহাশৌর্যশালী হয়ে কুকর্মী শত্রুদের থেকে রক্ষা পেয়ে সংসারে কীর্তি পায় ॥১॥ ২−অশ্বত্থ, এবং এই জাতীয় কিছু গাছ অপর বৃক্ষের খোদলে, ঘরের দেওয়ালে এবং অন্য স্থানে জন্ম হয় এবং অনেক গুণসম্পন্ন হয়। বৃক্ষের মধ্যে খয়ের জন্মালে অধিক গুণদায়ক হয়ে যায়। লোকেরা পরম আদরে পবিত্র অশ্বত্থের চিত্তপ্রসাদক ছায়া এবং বায়ুতে সন্ধ্যা, হবন, ব্যায়াম আদি করে এবং এর তরুক্ষীর, পাতা, ফল, কাঠ থেকে অনেক ঔষধি তৈরি করে। শব্দকল্পদ্রুম কোষে একে মধুর, কষা, শীতল, কফ-পিত্ত বিনাশী, রক্তদাহশান্তিকারক ইত্যাদি এবং খদির অর্থাৎ খয়ের-কে শীতল, ঝাল, কষা, দাঁতের হিতকারী, কৃমি, প্রমেহ, জ্বর, ফোঁড়া, কুষ্ঠ, স্ফীতি, আমাশয়, পিত্ত, রক্তক্ষরণ এবং কফের বিনাশক প্রভৃতি লেখা রয়েছে ॥ পাদ্মোত্তরখণ্ড অধ্যায় ১২৬, ১৬০−১৬১ এ অশ্বত্থ এর কথা সবিস্তার লেখা আছে ॥

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