अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - हरिणः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
155
ह॑रि॒णस्य॑ रघु॒ष्यदोऽधि॑ शी॒र्षणि॑ भेष॒जम्। स क्षे॑त्रि॒यं वि॒षाण॑या विषू॒चीन॑मनीनशत् ॥
स्वर सहित पद पाठह॒रि॒णस्य॑ । र॒घु॒ऽस्यद॑: । अधि॑ । शी॒र्षाणि॑ । भे॒ष॒जम् । स: । क्षे॒त्रि॒यम् । वि॒ऽसान॑या । वि॒षू॒चीन॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
हरिणस्य रघुष्यदोऽधि शीर्षणि भेषजम्। स क्षेत्रियं विषाणया विषूचीनमनीनशत् ॥
स्वर रहित पद पाठहरिणस्य । रघुऽस्यद: । अधि । शीर्षाणि । भेषजम् । स: । क्षेत्रियम् । विऽसानया । विषूचीनम् । अनीनशत् ॥७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पदार्थ
(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) अन्धकार हरनेवाले सूर्यरूप परमेश्वर के (शीर्षणि अधि) आश्रय में ही (भेषजम्) भय जीतनेवाला औषध है, (सः) उस [ईश्वर] ने (विषाणया) विविध सींगों से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर से (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥ दूसरा अर्थ−(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) मस्तक के भीतर (भेषजम्) औषध है। (सः) उस [हरिण] ने (विषाणया) [अपने] सींग से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर ने आदि सृष्टि में वेद द्वारा हमारे स्वाभाविक और शारीरिक रोगों की औषधि दी है, उसी के आज्ञापालन में हमारा कल्याण है ॥१॥ “हरिण” शब्दकल्पद्रुम कोष में विष्णु, शिव, सूर्य, हंस और पशुविशेष मृग का नाम है और पहिले चारों नाम प्रायः परमेश्वर के हैं ॥ दूसरा अर्थ−मृग के सींग आदि से मनुष्य बड़े-२ रोग नष्ट करें। मृग की नाभि में प्रसिद्ध औषधि कस्तूरी होती है। उसका सींग पसली आदि की पीड़ा में लगाया जाता है, प्रायः घरों में रक्खा रहता है और उसमें नौसादर भी होता है। विषाणम्=सींग कुष्ठ का औषध है ॥१॥
टिप्पणी
१−(हरिणस्य)। श्यास्त्याहृञविभ्य इनच्। उ० २।४६। इति हृञ्हरणे-इनच्। दुःखहरणशीलस्य परमेश्वरस्य। सूर्यस्य। पशुविशेषस्य मृगस्य। (रघुष्यदः)। लङ्घिबंह्योर्नलोपश्च। उ० १।२९। इति लघि अभुग्गत्योः-कु, नलोपः। बालमूललघ्वसुरालम० वा० पा० ८।२।१८। इति लस्य रत्वम्। स्यन्देः क्विप्। अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। शीघ्रगामिनः। (अधि)। सप्तम्यर्थानुवादी। (शीर्षणि)। श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। इति श्रिञ् सेवने-असुन्। इति शिरः। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन्, इत्यादेशः। आश्रये। मस्तके। (भेषजम्)। अ० १।४।४। भयजेतृसामर्थ्यम्। (सः)। पूर्वोक्तो हरिणः। (क्षेत्रियम्)। अ० २।८।१। क्षेत्र-घच्। क्षेत्रं देहे वंशे वा जातं रोगं दोषं वा। (विषाणया)। वि+षणु दाने, सेवने च-घञ् टाप्। विषाणं विशेषेण मदस्य दातारम्-इति सायणः-ऋ० ५।४४।११। विषाणेन। विविधदानेन। शृङ्गेण। (विषूचीनम्)। विषु+अञ्चतेः-क्विन्। अनिदितां हल उप०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। विभाषाञ्चतेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति स्वार्थे खः। अचः। पा० ६।४।१३८। इत्यकारलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। विष्वक्, सर्वतः। (अनीनशत्)। णश अदर्शने-णिच्, लुङ्। नाशितवान् ॥
विषय
मृगशृङ्ग से क्षेत्रिय रोग-निराकरण
पदार्थ
१. (रघुष्यदः) = तीव्र गतिवाले (हरिणस्य) = हरिण के (शीर्षणि अधि) = सिर पर (भेषजम्) = रोग निवारक शृङ्गरूप औषध है। २. (सः) = वह हरिण (विषाणया) = अपने शृङ्ग से (क्षेत्रियम्) = पर क्षेत्र में चिकित्स्य माता-पिता से आये हुए क्षय, कुष्ठ, अपस्मार आदि रोगों को (विषचीनम्) = सब ओर से (अनीनशत्) = नष्ट कर दे। 'वैद्यक शब्दसिन्धु' में लिखा है-('मृगशृङ्गं भस्म हद्रोगे वृक्कशूलादौ प्रशस्तम्') = अर्थात् मृगशृङ्ग की भस्म हद्रोग व वृक्कशूल आदि में उपयोगी है।
भावार्थ
तीन गतिवाले मृग के सींग की ओषधि से क्षेत्रिय रोगों को दूर किया जाए।
भाषार्थ
(रधुष्यदः) शीघ्र स्यन्दन अर्थात् गमन करनेवाले (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) सिर पर (भेषजम्) रोगनिवर्तक औषध है। (सः) वह हरिण (विषाणया) शृङ्ग द्वारा (क्षेत्रियम्) माता पिता के शरीर से प्राप्त (बिषूचीनम्) प्रसृत रोग को (अनीनशत्) नष्ट करता है।
टिप्पणी
[विषुचीनम्= विषु (सर्वत्र)+ अचि या अच (गतौ) (भ्वादिः)। क्षेत्रियम्= परक्षेत्र में चिकित्सा रोग (अष्टा० ५।२।९२)। अथवा "क्षेत्रियम्= वर्तमान क्षेत्र अर्थात् शरीर का रोग। क्षेत्र = शरोर (गीता १३।१)।]
विषय
क्षेत्रिय व्याधियों का निवारण ।
भावार्थ
क्षेत्रिय व्याधि क्षय, कुष्ठ, अपस्मार आदि के निवारण का उपाय बतलाते हैं—(रघुष्यदः) अति वेग से दौड़ने वाले (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) सिर के ऊपर जो सींग हैं वह (भेषजम्) रोगों को दूर करने वाला पदार्थ है । (सः) वह विद्वान् चिकित्सक (विषाणया) सींग के द्वारा ही (विषूचीनम्) नाना प्रकार के कष्ट देने वाले रोगों को (अनीनशत्) विनाश करता है ।
टिप्पणी
‘हरिणस्यरघुष्यतो’ इति आप० श्रौ० सू०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः । यक्ष्मनाशनो देवता । १-५, ७ अनुष्टुभः । ६ भुरिक् । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Hereditary Disease
Meaning
On the head of the fast running stag, there is medicine. With that, that is, the horn, the physician can cure and destroy hereditary diseases of all kinds in general.
Subject
Hariņah
Translation
On the head of the fast running deer, there lies a remedy. With his horn, may he drive away the hereditary disease in - different directions. (Horn of a deer contains ammonium salts of medicinal virtue.) (Ksettriyam = inherited from parents)
Translation
[N.B. Here is the eradication of Kshetriya disease which include-Tuberculosis, leprosy, fit etc.] The swift footed Reebok (dear) wears healing remedy upon its head (i.e., the horn) The experienced physician removes the various disease rooted in the body with horn.
Translation
The fleet-foot roebuck wears upon his head a healing remedy. A learned physician, cures with the horn, pulmonary consumption, the source of various sorts of ailments.
Footnote
A healing remedy: the horn. The horn possesses the medicinal virtue of ammonia which it contains. Pt. Khem Karan Das Trivedi has translated as God, and givena spiritual interpretation to the verse.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(हरिणस्य)। श्यास्त्याहृञविभ्य इनच्। उ० २।४६। इति हृञ्हरणे-इनच्। दुःखहरणशीलस्य परमेश्वरस्य। सूर्यस्य। पशुविशेषस्य मृगस्य। (रघुष्यदः)। लङ्घिबंह्योर्नलोपश्च। उ० १।२९। इति लघि अभुग्गत्योः-कु, नलोपः। बालमूललघ्वसुरालम० वा० पा० ८।२।१८। इति लस्य रत्वम्। स्यन्देः क्विप्। अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। शीघ्रगामिनः। (अधि)। सप्तम्यर्थानुवादी। (शीर्षणि)। श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। इति श्रिञ् सेवने-असुन्। इति शिरः। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन्, इत्यादेशः। आश्रये। मस्तके। (भेषजम्)। अ० १।४।४। भयजेतृसामर्थ्यम्। (सः)। पूर्वोक्तो हरिणः। (क्षेत्रियम्)। अ० २।८।१। क्षेत्र-घच्। क्षेत्रं देहे वंशे वा जातं रोगं दोषं वा। (विषाणया)। वि+षणु दाने, सेवने च-घञ् टाप्। विषाणं विशेषेण मदस्य दातारम्-इति सायणः-ऋ० ५।४४।११। विषाणेन। विविधदानेन। शृङ्गेण। (विषूचीनम्)। विषु+अञ्चतेः-क्विन्। अनिदितां हल उप०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। विभाषाञ्चतेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति स्वार्थे खः। अचः। पा० ६।४।१३८। इत्यकारलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। विष्वक्, सर्वतः। (अनीनशत्)। णश अदर्शने-णिच्, लुङ्। नाशितवान् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(রঘুষ্যদঃ) শীঘ্র স্যন্দন অর্থাৎ গমনকারী (হরিণস্য) হরিণের (শীর্ষণি অধি) মস্তকে (ভেষজম্) রোগ নিবর্তক/নিবারক ঔষধ রয়েছে। (সঃ) সেই হরিণ (বিষাণয়া) শৃঙ্গ দ্বারা (ক্ষেত্রিয়ম্) মাতা-পিতা এর শরীর থেকে প্রাপ্ত (বিষূচীনম্) প্রসৃত রোগকে (অনীনশৎ) নষ্ট করে।
टिप्पणी
[বিষূচীনম্= বিষু (সর্বত্র)+অচি বা অচ (গতৌ) (ভ্বাদিঃ)। ক্ষেত্রিয়ম্=পরক্ষেত্রে চিকিৎসা রোগ (অষ্টা০ ৫।২।৯২)। অথবা "ক্ষেত্রিয়ম্=বর্তমান ক্ষেত্র অর্থাৎ শরীরের রোগ। ক্ষেত্র=শরীর (গোতা ১৩।১)।]
मन्त्र विषय
রোগনাশনায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(রঘুষ্যদঃ) শীঘ্রগামী (হরিণস্য) অন্ধকার হরনকারী সূর্যরূপ পরমেশ্বরের (শীর্ষণি অধি) আশ্রয়েই (ভেষজম্) ভয় জয়কারী ঔষধ রয়েছে, (সঃ) তিনি [ঈশ্বর] (বিষাণয়া) বিবিধ শৃঙ্গ দ্বারা (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের রোগকে (বিষূচীনম্) সব দিক থেকে/সর্বতোভাবে (অনীনশৎ) নষ্ট করেছেন/নাশ করেছেন॥১॥ অপর অর্থ−(রঘুষ্যদঃ) শীঘ্রগামী (হরিণস্য) হরিণের (শীর্ষণি অধি) মস্তকের ভিতরে (ভেষজম্) ঔষধ রয়েছে। (সঃ) সেই [হরিণ] (বিষাণয়া) [নিজের] শিং দিয়ে (ক্ষেত্রিয়ম্) শরীর বা বংশের রোগকে (বিষূচীনম্) সব দিক থেকে (অনীনশৎ) নষ্ট করে দিয়েছে ॥১॥
भावार्थ
পরমেশ্বর আদি সৃষ্টিতে বেদ দ্বারা আমাদের স্বাভাবিক ও শারীরিক রোগের ঔষধি প্রদান করেছেন, উনার আজ্ঞাপালনের মাধ্যমে আমাদের কল্যাণ হবে ॥১॥ “হরিণ” শব্দকল্পদ্রুম কোষে বিষ্ণু, শিব, সূর্য, হংস এবং পশুবিশেষ মৃগ এর নাম রয়েছে এবং প্রথম চারটি নাম প্রায়ঃ পরমেশ্বরের ॥ অপর ভাবার্থ−মৃগ এর শিং আদি দিয়ে মনুষ্য কঠিন রোগ নষ্ট করুক। মৃগ-এর নাভিতে প্রসিদ্ধ ঔষধি কস্তুরী থাকে। তার শিং মাংসপেশি আদির পীড়ায়/ব্যাথায় লাগানো হয়/প্রয়োগ করা হয়, প্রায়ঃ ঘরে রাখা থাকে এবং তার মধ্যে নিশাদল থাকে। বিষাণম্=শিং কুষ্ঠের ঔষধ ॥১॥
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