अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
ऋषि: - भृग्वङ्गिराः
देवता - हरिणः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
35
ह॑रि॒णस्य॑ रघु॒ष्यदोऽधि॑ शी॒र्षणि॑ भेष॒जम्। स क्षे॑त्रि॒यं वि॒षाण॑या विषू॒चीन॑मनीनशत् ॥
स्वर सहित पद पाठह॒रि॒णस्य॑ । र॒घु॒ऽस्यद॑: । अधि॑ । शी॒र्षाणि॑ । भे॒ष॒जम् । स: । क्षे॒त्रि॒यम् । वि॒ऽसान॑या । वि॒षू॒चीन॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
हरिणस्य रघुष्यदोऽधि शीर्षणि भेषजम्। स क्षेत्रियं विषाणया विषूचीनमनीनशत् ॥
स्वर रहित पद पाठहरिणस्य । रघुऽस्यद: । अधि । शीर्षाणि । भेषजम् । स: । क्षेत्रियम् । विऽसानया । विषूचीनम् । अनीनशत् ॥७.१॥
विषय - रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पदार्थ -
(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) अन्धकार हरनेवाले सूर्यरूप परमेश्वर के (शीर्षणि अधि) आश्रय में ही (भेषजम्) भय जीतनेवाला औषध है, (सः) उस [ईश्वर] ने (विषाणया) विविध सींगों से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर से (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥ दूसरा अर्थ−(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) मस्तक के भीतर (भेषजम्) औषध है। (सः) उस [हरिण] ने (विषाणया) [अपने] सींग से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥
भावार्थ - परमेश्वर ने आदि सृष्टि में वेद द्वारा हमारे स्वाभाविक और शारीरिक रोगों की औषधि दी है, उसी के आज्ञापालन में हमारा कल्याण है ॥१॥ “हरिण” शब्दकल्पद्रुम कोष में विष्णु, शिव, सूर्य, हंस और पशुविशेष मृग का नाम है और पहिले चारों नाम प्रायः परमेश्वर के हैं ॥ दूसरा अर्थ−मृग के सींग आदि से मनुष्य बड़े-२ रोग नष्ट करें। मृग की नाभि में प्रसिद्ध औषधि कस्तूरी होती है। उसका सींग पसली आदि की पीड़ा में लगाया जाता है, प्रायः घरों में रक्खा रहता है और उसमें नौसादर भी होता है। विषाणम्=सींग कुष्ठ का औषध है ॥१॥
टिप्पणी -
१−(हरिणस्य)। श्यास्त्याहृञविभ्य इनच्। उ० २।४६। इति हृञ्हरणे-इनच्। दुःखहरणशीलस्य परमेश्वरस्य। सूर्यस्य। पशुविशेषस्य मृगस्य। (रघुष्यदः)। लङ्घिबंह्योर्नलोपश्च। उ० १।२९। इति लघि अभुग्गत्योः-कु, नलोपः। बालमूललघ्वसुरालम० वा० पा० ८।२।१८। इति लस्य रत्वम्। स्यन्देः क्विप्। अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। शीघ्रगामिनः। (अधि)। सप्तम्यर्थानुवादी। (शीर्षणि)। श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। इति श्रिञ् सेवने-असुन्। इति शिरः। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन्, इत्यादेशः। आश्रये। मस्तके। (भेषजम्)। अ० १।४।४। भयजेतृसामर्थ्यम्। (सः)। पूर्वोक्तो हरिणः। (क्षेत्रियम्)। अ० २।८।१। क्षेत्र-घच्। क्षेत्रं देहे वंशे वा जातं रोगं दोषं वा। (विषाणया)। वि+षणु दाने, सेवने च-घञ् टाप्। विषाणं विशेषेण मदस्य दातारम्-इति सायणः-ऋ० ५।४४।११। विषाणेन। विविधदानेन। शृङ्गेण। (विषूचीनम्)। विषु+अञ्चतेः-क्विन्। अनिदितां हल उप०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। विभाषाञ्चतेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति स्वार्थे खः। अचः। पा० ६।४।१३८। इत्यकारलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। विष्वक्, सर्वतः। (अनीनशत्)। णश अदर्शने-णिच्, लुङ्। नाशितवान् ॥
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Subject - Cure of Hereditary Disease
Meaning -
On the head of the fast running stag, there is medicine. With that, that is, the horn, the physician can cure and destroy hereditary diseases of all kinds in general.
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