अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - हरिणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
29
अ॒दो यद॑व॒रोच॑ते॒ चतु॑ष्पक्षमिव छ॒दिः। तेना॑ ते॒ सर्वं॑ क्षेत्रि॒यमङ्गे॑भ्यो नाशयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द: । यत् । अ॒व॒ऽरोच॑ते । चतु॑ष्पक्षम्ऽइव । छ॒दि: । तेन॑ । ते॒ । सर्व॑म् । क्षे॒त्रि॒यम् । अङ्गे॑भ्य: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अदो यदवरोचते चतुष्पक्षमिव छदिः। तेना ते सर्वं क्षेत्रियमङ्गेभ्यो नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअद: । यत् । अवऽरोचते । चतुष्पक्षम्ऽइव । छदि: । तेन । ते । सर्वम् । क्षेत्रियम् । अङ्गेभ्य: । नाशयामसि ॥७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पदार्थ
(अदः) वह (यत्) जो [वा पूजनीय ब्रह्म] (चतुष्पक्षम्) याचनीय व्यवहारों से युक्त, अथवा चार पक्षवाले (छदिः इव) घर के समान (अवरोचते) चमकता है। (तेन) उसके द्वारा (ते अङ्गेभ्यः) तेरे अङ्गों से (सर्वम्) सब (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (नाशयामसि=०−मः) हम नाश करते हैं ॥३॥
भावार्थ
ज्ञानी पुरुष उस सर्वत्र विराजमान परब्रह्म की रचनाओं में उत्तम कर्मों से युक्त घर के समान आनन्द पाकर अपने सब विघ्नों का सब जगह नाश करके आगे बढ़े चले जाते हैं ॥३॥ २−हरिण के सींग आदि औषध से रोग नष्ट करना चाहिये ॥३॥
टिप्पणी
३−(अदः)। न+दसु उत्क्षेपे-क्विप्। एतत्। पुरोवर्त्ति। (यत्)। त्यजितनियजि०। उ० १।१३२। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-अदि, स च डित्। सर्वत्र संगतं सर्वपूजनीयं ब्रह्म। अथवा, सर्वनामैतत्। (अवरोचते)। निश्चयेन व्याप्य वा दीप्यते। (चतुष्पक्षम्)। चते याचने-उरन्। म० २। गृधिपण्योर्दकौ च। उ० ३।६९। इति षणङ् व्यवहारे स्तुतौ च-स, कश्चान्तादेशः। यद्वा। पक्ष परिग्रहे-घञ्। याचनीयव्यवहारयुक्तम्। चतुकोषो वा। (छदिः)। अर्चिशुचिहुसृपिछदिछर्दिभ्य इसिः। ड० २।१०८। इति छद संवृतौ+णिच्-इसि। इस्मन्त्रन्क्विप्। पा० ६।४।९७। इति ह्रस्वः। पटलम्। गृहम्। आच्छादनम्। (तेन)। ब्रह्मणा। (ते)। तव। (सर्वम्)। अखिलम्। (क्षेत्रियम्)। नाशकरं रोगम्। (अङ्गेभ्यः)। शरीरावयवेभ्यः। (नाशयामसि)। वयं नाशयामः ॥
विषय
चतुष्पक्ष छदि के समान
पदार्थ
१. (अदः) = वह (यत्) = जो (चतुष्पक्षम् छदिः इव) = चारपक्षोंवाली छत के समान यह सींग (अवरोचते) = चमकता है, (तेन) = तेरे (सर्व क्षेत्रियम्) = सब क्षेत्रिय रोगों को (अड़ेभ्य:) = सब अङ्गों से (आनाशयामसि) = सर्वथा नष्ट करते हैं। २. बारहसिंगा के सिर पर सींग चतुष्पक्ष छदि के समान प्रतीत होते हैं। इन सींगों के औषध-प्रयोग द्वारा सब क्षेत्रियरोग नष्ट किये जा सकते हैं।
भावार्थ
बारहसिंगे का सींग सब अङ्गों से क्षेत्रियरोगों को दूर करने के लिए उपयुक्त होता है |
भाषार्थ
(अद्) वह दृश्यमान (यद्) जोकि (अवरोचते) नीचे पृथिवी की ओर चमकता है, (चतुष्पक्षम्) चार कोनोंवालो (छदिः) छत की (इव) तरह। (तेन) उस द्वारा (ते अङ्गेभ्यः) तरे अंगों से (सर्वम् क्षेत्रियम्) सब क्षेत्रिय रोग को (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं।
टिप्पणी
[छदिः=अथवा "छदिः गृहनाम" (निघं० ३।४)। चतुष्पक्ष छत या-गृह कौन-सा तारामण्डल अर्थात् constellation है, अनुसन्धेय है। इस काल में भी क्षेत्रिय रोग की चिकित्सा का विधान हुआ है। देखो मन्त्र ४ की व्याख्या।]
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Hereditary Disease
Meaning
That deer skin which shines glossy and smooth like the four sided cover of a chariot, with that, O patient, we drive out the chronic disease from all parts of your body.
Translation
What shines there (spread on the floor) like a rectangular bed-cover (chadi) (i.e. dear-skin), with that we drive out of your limbs all the chronic disease.
Translation
We drive away all the chronic malady from your body with that skin of deer which looks nice like a cover wrapping the body from four sides.
Translation
That deer-skin which covers the body on all four sides; therewith fromout thy organs we drive all the chronic malady.
Footnote
Thy! refers to the patient. ‘We’ refers to the skilled physicians. The wearing of the deer-skin cures piles and itching.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अदः)। न+दसु उत्क्षेपे-क्विप्। एतत्। पुरोवर्त्ति। (यत्)। त्यजितनियजि०। उ० १।१३२। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-अदि, स च डित्। सर्वत्र संगतं सर्वपूजनीयं ब्रह्म। अथवा, सर्वनामैतत्। (अवरोचते)। निश्चयेन व्याप्य वा दीप्यते। (चतुष्पक्षम्)। चते याचने-उरन्। म० २। गृधिपण्योर्दकौ च। उ० ३।६९। इति षणङ् व्यवहारे स्तुतौ च-स, कश्चान्तादेशः। यद्वा। पक्ष परिग्रहे-घञ्। याचनीयव्यवहारयुक्तम्। चतुकोषो वा। (छदिः)। अर्चिशुचिहुसृपिछदिछर्दिभ्य इसिः। ड० २।१०८। इति छद संवृतौ+णिच्-इसि। इस्मन्त्रन्क्विप्। पा० ६।४।९७। इति ह्रस्वः। पटलम्। गृहम्। आच्छादनम्। (तेन)। ब्रह्मणा। (ते)। तव। (सर्वम्)। अखिलम्। (क्षेत्रियम्)। नाशकरं रोगम्। (अङ्गेभ्यः)। शरीरावयवेभ्यः। (नाशयामसि)। वयं नाशयामः ॥
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