अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 11
ऋषिः - अथर्वा
देवता - स्तनयित्नुः, प्रजापतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
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प्र॒जाप॑तिः सलि॒लादाः स॑मु॒द्रादाप॑ ई॒रय॑न्नुद॒धिम॑र्दयाति। प्र प्या॑यतां॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतो॒ऽर्वाङे॒तेन॑ स्तनयि॒त्नुनेहि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑ति: । स॒लि॒लात् । आ । स॒मु॒द्रात् । आप॑: । ई॒रय॑न् । उ॒द॒ऽधिम् । अ॒र्द॒या॒ति॒ । प्र । प्या॒य॒ता॒म् । वृष्ण॑: । अश्व॑स्य । रेत॑: । अ॒वाङ् । ए॒तेन॑ । स्त॒न॒यि॒त्नुना॑ । आ । इ॒हि॒॥१५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिः सलिलादाः समुद्रादाप ईरयन्नुदधिमर्दयाति। प्र प्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोऽर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेहि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपति: । सलिलात् । आ । समुद्रात् । आप: । ईरयन् । उदऽधिम् । अर्दयाति । प्र । प्यायताम् । वृष्ण: । अश्वस्य । रेत: । अवाङ् । एतेन । स्तनयित्नुना । आ । इहि॥१५.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(प्रजापतिः) प्रजापालक सूर्य (सलिलात्) व्यापक (समुद्रात्) आकाश से (आपः=अपः) जल (आ ईरयन्) भेजता हुआ (उदधिम्) [पार्थिव] समुद्र को (अर्दयाति) दबावे [जल खैंचे]। (अश्वस्य) व्यापक (वृष्णः) बरसनेवाले मेघ का (रेतः) जल (प्रप्यायताम्) अच्छे प्रकार बढ़े। [हे पर्जन्य ! तू] (एतेन) इस (स्तनयित्नुना) गर्जन के साथ (अर्वाङ्) सन्मुख (आ इहि) आ ॥११॥
भावार्थ
मन्त्र १० के समान है ॥११॥ इस मन्त्र का चौथा पाद (अर्वाङेतेन....) ऋ० ५।८३।६। का तीसर पाद है ॥
टिप्पणी
११−(प्रजापतिः) प्रजानां पालयिता वृष्टिप्रदः सूर्यः (सलिलात्) सलिकल्यनि०। उ० १।५४। इति पल गतौ-इलच्। व्यापनशीलात् (आ) समन्तात् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। (आपः) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति शसः स्थाने जस्। अपः। उदकानि (ईरयन्) प्रेरयन् (उदधिम्) जलधिम् (अर्दयाति) अर्दयतेर्लेटि आडागमः। अर्दयतु। रश्मिभिर्जलादानेन पीडयतु (प्र प्यायताम्) प्रवर्धताम् (वृष्णः) वर्षकस्य मेघस्य (अश्वस्य) व्यापकस्य (रेतः) स्रुरीभ्यां तुट् च। उ० ४।२०२। इति रि, रीङ् स्रवणे-असुन्, तुट् च। उदकम्-निघ० १।१२। (अर्वाङ्) अभिमुखः सन् (एतेन) पूर्वोक्तेन (स्तनयित्नुना) स्तनिहृषिपुषि०। उ० ३।२९। इति स्तन देवशब्दे-इत्नुच्। गर्जनेन सह (आ-इहि) आगच्छ हे पर्जन्य ॥
विषय
प्रजापति का जल-प्रेरण
पदार्थ
१. (प्रजापति:) = प्रजाओं का पालक वृष्टिप्रद सूर्य (सलिलात्) = जलमय (समुद्रात्) = समुद्र से (आप:) = जलों को (आ ईरयन्) = समन्तात् प्रेरित करता हुआ (उदधिम्) = समुद्र को (अर्दयाति) = हलचलवाला करता है। २. (वृष्ण:) = वृष्टि करनेवाले (अश्वस्य) = आकाश में व्याप्त होनेवाले [अश् व्याप्ती] मेघ का (रेत:) = वृष्टि का उपादानभूत वीर्य (प्र प्यायताम्) = बढ़े-मेघ की शक्ति बढ़े और खूब वर्षा हो। हे वृष्टे ! तू (एतेन) = इस (स्तनयित्नुना) = गर्जन करनेवाले मेघ के साथ (अर्व एहि) = यहाँ-हमारे अभिमुख प्राप्त हो।
भावार्थ
सूर्य समुद्र से जलों को आकाश में प्रेरित करे। मेघ की शक्ति बढ़े और गर्जना के साथ वृष्टि होकर यहाँ पृथिवी पर वृष्टिजल प्राप्त हों।
भाषार्थ
(प्रजापतिः) प्रजाओं का रक्षक सूर्य, (सलिलात्, आ समुद्रात्) समग्र जलमय समुद्र से (अपः आ, ईरयन्) जल को प्रेरित करता हुआ, (उदधिम्) जलाधार समुद्र को (अर्दयाति) पीड़ित करे। (वृष्णः) वर्षा करनेवाले (अश्वस्य) आदित्य का (रेतः) जलरूपी वीर्य (प्र प्यायताम्) प्रवृद्ध हो, बढ़े, (स्तनयित्नुना) गर्जते मेघ के साथ (एतेन) तथा इस प्रवृद्ध रेतस् के साथ (अर्वाङ्) हमारी ओर हे सूर्य ! (एहि) तू आ।
टिप्पणी
[सलिलात् समुद्रात=जलवाला समुद्र, प्रसिद्धः तथा "समुद्र अन्तरिक्षनाम" (निघंटु १।३)। मन्त्र में जलमय समुद्र अभिप्रेत है। आप:= आ+अपः। अर्दयाति=लेटि आट्। सलिल तो समुद्र की सम्पत्ति है। प्रजापति आदित्य वर्षा ऋतु में इसकी सम्पत्ति का हरण१ करता है। मानो इस कारण प्रजापति, समुद्र को पीड़ित करता है। वृष्णस्य अश्वस्य= "एको अश्वो वहति सप्तनामा आदित्यः। सप्तास्मै रश्मयो रसानभि सन्नामयन्ति" (निरुक्त ४।४।२७), अतः वृषा=अश्व है आदित्य, अर्थात् प्रजापति सूर्य। रेत:= उदक, जल, "रेतः उदकनाम" (निघंटु १।१२)। स्तनयित्नुः= स्तन, गदी देवशब्दे (चुरादिः)।] [१. वेदों में जड़ पदार्थों का भी वर्णन प्रायः ऐसा होता है मानो कि वे चेतन हैं। इसलिए वेदों के वर्णन चेतन की भावनाओं द्वारा मिश्रित होते हैं। इस भावना को सायणाचार्य ने "जलधिम् उदकादानेन पीडय" द्वारा अभिव्यक्त किया है (मन्त्र ६, ११)। अथवा वर्षर्तु में प्रजापति आदित्य निज प्रखर रश्मियों के प्रहारों द्वारा समुद्र-जल में उछल-कूद पैदा करता तथा उसे तरंगित करता रहता है। यह समुद्र का अदन है, पीड़ित होना है।]
विषय
वृष्टि की प्रार्थना।
भावार्थ
(प्रजापतिः) प्रजाओं का पालक परमेश्वर सूर्य द्वारा (सलिलात् समुद्रात्) जलमय समुद्र से (आपः) व्यापनशील वाष्परूप जलों को (आ ईरयन्) सर्वत्र वातावरण में फैलाता हुआ (उदधिम्) ऊपर उठने वाले जल को धारण करने वाले वातावरण को (अर्दयति) पुनः अपनी किरणों से पीड़ित करता है, विक्षुब्ध करता है। इससे क्या होता है ? कि (वृष्णः) वर्षा करने वाले (अश्वस्य) व्यापक मेघ का (रेतः) नीचे आने वाला जल (प्र प्यायताम्) खूब अधिक बढ़ जाता है और (एतेन) इस (स्तनयित्नुना) ध्वनि करने वाले विद्युत् के साथ ही हे पर्जन्य ! तू (अर्वाङ्) नीचे की ओर भी आजाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Song of Showers
Meaning
Prajapati, lord of his people, solar sustainer of life, raising vapours of water from the rolling oceans, forms and breaks the spatial oceans of vapours. By this, may the living vitality of the generous abundant cloud increase, and by this very augmentation, further, may the showers of rain by the catalytic force of lightning come down and bless the earth.
Subject
Prajapati and thunder
Translation
May the creator Lord, moving the waters upwards from all over the spacious sea, set the ocean in agitation. May the seed of the showering horse (the cloud) over-flow. With that roar of thunder may you come down (to us).
Translation
Prajapatih, the sun raising the waters upward from the Ocean and flood agitates the sea and thus, the water of the raining cloud swells up. The rainy water through this lightning comes down.
Translation
Sending up waters from the inundated ocean, the sun moves again the sea to agitation. May, the moisture of the fertilizing rain cloud flow forth.With this thy roar of thunder come thou hither, O cloud!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(प्रजापतिः) प्रजानां पालयिता वृष्टिप्रदः सूर्यः (सलिलात्) सलिकल्यनि०। उ० १।५४। इति पल गतौ-इलच्। व्यापनशीलात् (आ) समन्तात् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। (आपः) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति शसः स्थाने जस्। अपः। उदकानि (ईरयन्) प्रेरयन् (उदधिम्) जलधिम् (अर्दयाति) अर्दयतेर्लेटि आडागमः। अर्दयतु। रश्मिभिर्जलादानेन पीडयतु (प्र प्यायताम्) प्रवर्धताम् (वृष्णः) वर्षकस्य मेघस्य (अश्वस्य) व्यापकस्य (रेतः) स्रुरीभ्यां तुट् च। उ० ४।२०२। इति रि, रीङ् स्रवणे-असुन्, तुट् च। उदकम्-निघ० १।१२। (अर्वाङ्) अभिमुखः सन् (एतेन) पूर्वोक्तेन (स्तनयित्नुना) स्तनिहृषिपुषि०। उ० ३।२९। इति स्तन देवशब्दे-इत्नुच्। गर्जनेन सह (आ-इहि) आगच्छ हे पर्जन्य ॥
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