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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
    58

    अ॒पो नि॑षि॒ञ्चन्नसु॑रः पि॒ता नः॒ श्वस॑न्तु॒ गर्ग॑रा अ॒पां व॑रु॒णाव॒ नीची॑र॒पः सृ॑ज। वद॑न्तु॒ पृश्नि॑बाहवो म॒ण्डूका॒ इरि॒णानु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प: । नि॒ऽसि॒ञ्चन् । असु॑र: । पि॒ता । न॒: । श्वस॑न्तु । गर्ग॑रा: । अ॒पाम् । व॒रु॒ण॒ । अव॑ । नीची॑: । अ॒प: । सृ॒ज॒ । वद॑न्तु । पृश्नि॑ऽबाहव: । म॒ण्डूका॑: । इरि॑णा । अनु॑ ॥१५.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः श्वसन्तु गर्गरा अपां वरुणाव नीचीरपः सृज। वदन्तु पृश्निबाहवो मण्डूका इरिणानु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप: । निऽसिञ्चन् । असुर: । पिता । न: । श्वसन्तु । गर्गरा: । अपाम् । वरुण । अव । नीची: । अप: । सृज । वदन्तु । पृश्निऽबाहव: । मण्डूका: । इरिणा । अनु ॥१५.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 12
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (नः) हमारा (पिता) पालन करनेवाला (असुरः) प्राणदाता मेघ (अपः) जलधाराएँ (निषिञ्चन्) उंडेलता हुआ [वर्तमान हो]। (अपाम्) जलके (गर्गराः) गड़गड़ाते हुए गगरे (श्वसन्तु) श्वास लेवें। (वरुण) हे वरणीय मेघ ! (अपः) जलधाराओं को (नीचीः) नीचे की ओर (अव सृज) छोड़दे। (पृश्निबाहवः) छोटी छोटी भुजावाले (मण्डूकाः) शोभा बढ़ानेवाले वा डुबकी लगानेवाले मेंडके (इरिणा= इरिणानि) ऊसर भूमियों को (अनु= अनुहाय) छोड़कर (वदन्तु) ध्वनि करें ॥१२॥

    भावार्थ

    बरसा होने पर जैसे मेंडकों में फिर प्राण आजाते हैं, इसी प्रकार अनेक पदार्थ उगकर आनन्ददायक होते हैं ॥१२॥ इस मन्त्र का पहिला पाद (अपो....नः) ऋ० ५।८३।६। का चौथा पाद है ॥

    टिप्पणी

    १२−(अपः) जलानि (निषिञ्चन्) न्यग्भावेन नितरां वा वर्षयन् (असुरः) अ० १।१०।१। असून् प्राणान् रातीति। असु+रा दाने-क। प्राणप्रदः। मेघः-निघ० १।१०। (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (श्वसन्तु) उच्छ्वसिता भवन्तु (गर्गराः) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। इति ग शब्दे-ग प्रत्ययः। गर्ग+रा-क। गर्गशब्दं रान्ति ददतीति। शब्दं कुर्वाणः कलसा जलपात्राणि। प्रवाहाः (अपाम्) उदकानाम् (वरुण) हे वरणीय जलेश मेघ (नीचीः) न्यग्भावं गताः (अपः) वृष्टिधाराः (अव) नीचैः (सृज) त्यज (वदन्तु) ध्वनिं कुर्वन्तु (पृश्निबाहवः) स्वल्पभुजयुक्ताः (मण्डूकाः) शलिमण्डिभ्यामूकण्। उ० ४।४२। इति मडि भूषणे-ऊकण्। यद्वा। मस्ज स्नाने-ऊकण्, जकारस्य डकारे नुमि ष्टुत्वम्। मण्डयन्ति भूषयन्ति जलाशयं निमज्जन्ति जले वा। मण्डूका मज्जका मज्जनान्मदतेर्वा मोदतिकर्मणो मन्दतेर्वा तृप्तिकर्मणो मण्डयतेरिति वैयाकरणा मण्ड एषामोक इति वा मण्डो मदेर्वा मुदेर्वा-निरु० ९।५। मण्डनशीलाः। मज्जनस्वभावाः। मज्जूकाः। भेकाः (इरिणा) अर्तेः किदिच्च। उ० २।५१। इति ऋ० हिंसागतिप्रापणेषु-इनन्, शेर्लोपः। इरिणानि। ऊषरभूमीः (अनु) हीने। विहाय ॥

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    विषय

    गर्गर ध्वनियुक्त वृष्टिजल प्रवाह

    पदार्थ

    १. (असुर:) = [असु क्षेपणे] मेघों को अन्तरिक्ष में क्षेपण करनेवाला अथवा [असून् राति] वृष्टि-जल के द्वारा प्राणों को देनेवाला (नः) = पिता हमारा रक्षक सूर्य (अपः निषिश्चन्) = जलों को इस पृथिवी पर सींचनेवाला हो और तब (अपाम्) = जलों के (गर्गरा:) = गर्गर ध्वनियुक्त प्रवाह (श्वसन्तु) = उच्छसित हों। हे (वरुण) = वृष्टि द्वारा हमारे क्लेशों का निवारण करनेवाले प्रभो! आप (अव नीची: अप:) = [अवनिम् अञ्चन्ति] भूमि पर प्राप्त होनेवाले इन जलों को (सृज) = उत्पन्न कीजिए। २. अब वृष्टि के खूब होने पर (पृश्रिवाहव:) = चित्रित व छोटी-छोटी [पृश्निरल्पतनौ] भुजाओंबाले (मण्डूका:) = मेंढक (इरिण अनु) = निस्तृण भू-प्रदेशों को प्राप्त करके, वृष्टिजल से लब्ध प्राण हुए-हुए (वदन्तु) = शब्दों को करें।

    भावार्थ

    सूर्य अन्तरिक्ष में बादलों को उमड़ाकर वृष्टिजल प्रवाहों को उत्पन्न करे। वृष्टि से प्राणों को प्राप्त करके मेंढक शुष्कप्रदेशों में बैठे हुए शब्द करें, अर्थात् पर्याप्त वृष्टि होकर सब प्राणियों को जीवनशक्ति उपलब्ध हो।

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    भाषार्थ

    (असुरः) प्राण-प्रदाता (नः पिता) हमारा रक्षक, प्रजापति- आदित्य, (अपः) जलों को (निषिञ्चन् [भवतु]) नितरां सींचता रहे, अथवा निचली भूमि को सींचता रहे, (अपाम्) मेघस्थ जलों के (गर्गराः) गड़गड़ाते शब्द (श्वसन्तु) प्राणवान् हों, प्रबल हों; (वरुण) हे उदकाधिपति! (अप:) जलों को (नीची:) नीचे की ओर (अवसृज) प्रेरित कर। (पृश्निबाहव:) शुभ्र बाहुओंवाले अथवा नानावर्णोंवाली बाहुओंवाले (मण्डूकाः) मण्डूक (इरिणा = इरिणानि अनु) जलमय प्रदेशों को प्राप्त हुए (वदन्तु) बोलें।

    टिप्पणी

    [असुर:=असु: प्राणः, तद्वान् अथवा तद्-दाता (रा दाने अदादि:)। असुरिति प्राणनाम, अस्तः शरीरे भवति तेन तद्वन्तः "[असुराः]" (निरुक्त ३।२।८)। असुर: = असु+र: (वाला) मत्वर्थीय, अथवा 'रा दाने' (अदादिः)। श्वसन्तु=श्वस प्राणने (अदादि:)। वरुण="वरुणः अपामधिपतिः" (अथर्व ०५।२४।४)। इरिणा=इरा= जल, यथा "इरावत्यः नद्यः" (निघंटु १।१३) तथा इरा=water (आप्टे)। अथवा "इरिणशब्दो निस्तृणभूवचनः। इरिणानि अनुप्राप्य वृष्टिजलेन लब्धप्राणाः सन्तः वदन्तु शब्दं कुर्वन्तु" (सायण)।]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (असुरः) सब जन्तुओं को प्राण देने हारा सूर्य (अपः) जलों को (निषिञ्चन्) निरन्तर सींचा करता है। वास्तव में इसलिये वही (नः) हम समस्त जीवों का (पिता) पालक है। हे वरुण ! सर्वश्रेष्ठ ! परमात्मन् ! (अपां गर्गराः) जलों के निगल जाने वाले, अजगर के समान पृथिवी पर लोटने वाले, या गड़ २ शब्द करने वाले मेघ, अथवा भूमि के बरसाती नाले (श्वसन्तु) पुनः श्वास लें या भर २ कर बहें या जल के आधार पर जीने वाले अजगर वर्षा से पुनः प्रसन्न होकर लम्बे २ सांस खीचें। हे प्रभो ! (अपः) जलों को (नीचीः) नीचे की ओर (अवसृज) प्रवाहित कर, मेघों को बरसा, जिससे (पृश्निबाहवः) पीले, चितकबरे रंग की बाहुओं वाले (मण्डूकाः) मेंडक (इरिणा अनु) बिना घास की भूमियों या जलाशयों में आकर (बदन्तु) खूब बोलें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    The cloud of waters and showers, giver of life energy, is our protector and promoter. O Varuna, dear cloud, release the showers of rain down and let the streams and pools of water come to life, and then let the colourful frogs croak with joy in the rippling pools and flowing streams in celebration of the earth.

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    Subject

    Varuna

    Translation

    May the bestower of life, our father (the Sun) go on pouring waters down. May the gurgling sounds of waters breethe up. O venerable Lord, may you discharge waters coming towards earth. May the speckled frogs start croaking on bare plains.

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    Translation

    The cloud pouring torrents is our father, the protector. The streams of water breathe upon us. Let the sun or wind pour the floods of water down and let the frogs having yellow hands send out their voice in the brooks and channels.

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    Translation

    The sun that sends down torrents of water is our nourisher. O God, let pools and channels of water flow, let waters flow downwards; let frogs with speckled arms send out their voices in pools of water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(अपः) जलानि (निषिञ्चन्) न्यग्भावेन नितरां वा वर्षयन् (असुरः) अ० १।१०।१। असून् प्राणान् रातीति। असु+रा दाने-क। प्राणप्रदः। मेघः-निघ० १।१०। (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (श्वसन्तु) उच्छ्वसिता भवन्तु (गर्गराः) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। इति ग शब्दे-ग प्रत्ययः। गर्ग+रा-क। गर्गशब्दं रान्ति ददतीति। शब्दं कुर्वाणः कलसा जलपात्राणि। प्रवाहाः (अपाम्) उदकानाम् (वरुण) हे वरणीय जलेश मेघ (नीचीः) न्यग्भावं गताः (अपः) वृष्टिधाराः (अव) नीचैः (सृज) त्यज (वदन्तु) ध्वनिं कुर्वन्तु (पृश्निबाहवः) स्वल्पभुजयुक्ताः (मण्डूकाः) शलिमण्डिभ्यामूकण्। उ० ४।४२। इति मडि भूषणे-ऊकण्। यद्वा। मस्ज स्नाने-ऊकण्, जकारस्य डकारे नुमि ष्टुत्वम्। मण्डयन्ति भूषयन्ति जलाशयं निमज्जन्ति जले वा। मण्डूका मज्जका मज्जनान्मदतेर्वा मोदतिकर्मणो मन्दतेर्वा तृप्तिकर्मणो मण्डयतेरिति वैयाकरणा मण्ड एषामोक इति वा मण्डो मदेर्वा मुदेर्वा-निरु० ९।५। मण्डनशीलाः। मज्जनस्वभावाः। मज्जूकाः। भेकाः (इरिणा) अर्तेः किदिच्च। उ० २।५१। इति ऋ० हिंसागतिप्रापणेषु-इनन्, शेर्लोपः। इरिणानि। ऊषरभूमीः (अनु) हीने। विहाय ॥

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