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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मण्डूकसमूहः, पितरगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
    51

    उ॑प॒प्रव॑द मण्डूकि व॒र्षमा आ व॑द तादुरि। मध्ये॑ ह्र॒दस्य॑ प्लवस्व वि॒गृह्य॑ च॒तुरः॑ प॒दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽप्रव॑द । म॒ण्डू॒कि॒ । व॒र्षम् । आ । व॒द॒ । ता॒दु॒रि॒ । मध्ये॑ । हृ॒दस्य॑ । प्ल॒व॒स्व॒ । वि॒ऽगृह्य॑ । च॒तुर॑: । प॒द: ॥१५.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपप्रवद मण्डूकि वर्षमा आ वद तादुरि। मध्ये ह्रदस्य प्लवस्व विगृह्य चतुरः पदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽप्रवद । मण्डूकि । वर्षम् । आ । वद । तादुरि । मध्ये । हृदस्य । प्लवस्व । विऽगृह्य । चतुर: । पद: ॥१५.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मण्डूकि) हे शोभा बढ़ानेवाली वा डुबकी लगानेवाली मेंडुकी ! (उप प्रवद) पास आकर बोल, (तदुरि) हे तैरनेवाली वा उतने [शरीर जितना] उदरवाली (वर्षम्) वर्षा को (आवद) बुला (ह्रदस्य) पोखर के (मध्ये) बीच में (चतुरः) चारों (पदः) पदों को (विगृह्य) फैलाकर (प्लवस्व) तैर ॥१४॥

    भावार्थ

    जैसे मेंडुकी वर्षा होने पर आनन्द से जल के भीतर तैरती फिरती है, ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी लोग ब्रह्मविद्या में मग्न होकर विचरते हैं ॥१४॥ यह मन्त्र निरुक्त ९।७। में उदाहृत है ॥

    टिप्पणी

    १४−(उपप्रवद) उपेत्य प्रकृष्टं घोषं कुरु (मण्डूकि) मण्डूक, म० १२। स्त्रियां ङीप्। हे मण्डनशीले। निमज्जनस्वभावे। भेकि (वर्षम्) वृष्टिम् (आ वद) आभाषय (तदुरि) तरणशीले ! अथवा तावत् उदरि ! यावच्छरीरं तावदेवोदरं तस्याः-इति दुर्गाचार्यो निरुक्तटीकायाम्−९।७। दर्दुरि इत्यस्यैव छान्दसं रूपम्। मकुरदर्दुरौ। उ० १।४०। इति दॄ विदारणे-उरच्, निपातनात् साधुः। दृणाति भूमिं करणौ वा स दर्दुरः। ङीप्। हे दर्दुरि ! मण्डूकि ! (मध्ये) मध्यदेशे (ह्रदस्य) ह्राद अव्यक्तशब्दे-अच्। पृषोदरादि ह्रस्वत्वम्। जलाशयस्य (प्लवस्व) प्रतर (विगृह्य) प्रसार्य (चतुरः) (पद) पादान् ॥

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    विषय

    प्लवस्व विगृह्य चतुरः

    पदार्थ

    १. हे (मण्डूकि) = मेंढकी ! तू हर्ष को (उप) = [उपेत्य] प्राप्त होकर (प्रवद) = प्रकृष्ट घोष करनेवाली हो। (तादुरि) = छोटी मेंढकी! तू (वर्षम् आवद) = वृष्टि को पुकार-वृष्टि को आने के लिए पुकार जैसेकि कोई बालिका माता को पुकारती है। तू ऐसा शब्द कर कि वृष्टि हो जाए। २. वृष्टिजलों  से हृदों [सरोवरों] के पूर्ण हो जाने पर तू उस (हृदस्य मध्ये) = तालाब के बीच में (चतुरः पद:) = अपने चारों पाँवों को (विगृह्य) = तैरने के लिए अनुकूलता पूर्वक फैलाकर (प्लवस्व) = तैर । तैरती हुई तू उस तालाब में आनन्दपूर्वक विहार कर ।

    भावार्थ

    वृष्टि होने पर मेंढक हर्षपूर्वक ध्वनि करते हुए वृष्टि को ही मानो पुकारते हैं। वे वृष्टि-जलपूर्ण तालाबों में आनन्दपूर्वक तैरते हैं।


     

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    भाषार्थ

    (मण्डूकः) हे मण्डूकि ! (उप) हमारे समीप (प्रवद) तू प्रकृष्ट रूप मैं बोल, उच्चैः शब्दोच्चारण कर, (तादुरि) हे तानपूर्वक उच्चारण करनेवाली ! (वर्षम्) वर्षा का (आवद) सर्वत्र कथन कर। (चतुर: पद:) चार पैरों को (विगृह्य) अलग-अलग करके, (ह्रदस्य मध्ये) कच्चे तालाब में (प्लवस्व) तैर, या गति कर।

    टिप्पणी

    [तादूरी= तनु विस्तारे (तनोतीति)। अथवा, तद् =नामधातुः (कर्तरि क्विप्, तस्य लोपः, ततः औणादिकः 'उण्' (१।१)+रः (मत्वर्थीयः +ङीप्, तत्सम्बुद्धौ। तद् =तनोतीति (दशपाद्युणादिः, पाद ६। सूत्र ४३)।]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (मण्डूकि) मेंढकी ! हे (तादुरि!) तदुर = मेंढक की बच्ची ! तू (वर्षम् उप-वद आ वद) वर्षा को देख कर खूब बोल और सब तरफ़ से बोल और (चतुरः पदः) चारों पैर (विगृह्य) फैला कर (ह्रदस्य मध्ये) तालाब के बीच में (प्लवस्व) तैर। अध्यात्म में—उस आनन्दमय ‘धर्ममेघ’ के वर्षण को लक्ष्य कर के उसका वर्णन करते हैं। हे (मण्डूकि) आनन्दरस में निमग्न चित्तवृत्ते ! (तादुरि) तद्-उर=उस परब्रह्म की तरफ जाने वाले, उस में लीन आत्मा की पुत्री स्वरूप तू (आ वद) उसी का सर्वत्र गान कर और (चतुरः पदः) अन्तःकरण चतुष्टय रूप चारों चरणों को फैला कर (ह्रदस्य) उस आह्लादजनक हृदयरूप मानस-सरोवर में (प्लवस्व) आनन्द से तर, सब दुःखों को पार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    O froggy, O little baby froggy, sing and celebrate. Call on the rain, extend your four legs in joy and swim freely in the flood.

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    Translation

    Croak up with joy O she-frog. O taduri ( a she frog of particular variety), cry out welcome to rain. May you swim in the midst of the pond stretching out your all the four feet.

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    Translation

    Let the female frog speak forth the welcome to rain, let the small frog speak accost to rain and let them swim in the lake stretching their four feet.

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    Translation

    Speak forth a welcome, female frog! Do thou O tiny frog, accost the rain. Stretch thy four feet apart, and swim in the middle of the tank!

    Footnote

    Pt. Jaidev Vidyalankar has given a spiritual interpretation also of this verse. O mind, immersed in joy, O daughter of the soul ever marching toward God, ever sing His glory, and stretching thy four feet, swim in the gladdening ocean of the heart. Four feet; Mind(मन)Perception (चित्) Intellect (बुद्धि) Ego (अहंकार) See Nirukta, 9-7.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(उपप्रवद) उपेत्य प्रकृष्टं घोषं कुरु (मण्डूकि) मण्डूक, म० १२। स्त्रियां ङीप्। हे मण्डनशीले। निमज्जनस्वभावे। भेकि (वर्षम्) वृष्टिम् (आ वद) आभाषय (तदुरि) तरणशीले ! अथवा तावत् उदरि ! यावच्छरीरं तावदेवोदरं तस्याः-इति दुर्गाचार्यो निरुक्तटीकायाम्−९।७। दर्दुरि इत्यस्यैव छान्दसं रूपम्। मकुरदर्दुरौ। उ० १।४०। इति दॄ विदारणे-उरच्, निपातनात् साधुः। दृणाति भूमिं करणौ वा स दर्दुरः। ङीप्। हे दर्दुरि ! मण्डूकि ! (मध्ये) मध्यदेशे (ह्रदस्य) ह्राद अव्यक्तशब्दे-अच्। पृषोदरादि ह्रस्वत्वम्। जलाशयस्य (प्लवस्व) प्रतर (विगृह्य) प्रसार्य (चतुरः) (पद) पादान् ॥

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