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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वातः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
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    म॒हान्तं॒ कोश॒मुद॑चा॒भि षि॑ञ्च सविद्यु॒तं भ॑वतु॒ वातु॒ वातः॑। त॒न्वतां॑ य॒ज्ञं ब॑हु॒धा विसृ॑ष्टा आन॒न्दिनी॒रोष॑धयो भवन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान्त॑म् । कोश॑म् । उत् । अ॒च॒ । अ॒भि । सि॒ञ्च॒ । स॒ऽवि॒द्यु॒तम् । भ॒व॒तु॒ । वातु॑ । वात॑: । त॒न्वता॑म् । य॒ज्ञम् । ब॒हु॒ऽधा । विऽसृ॑ष्टा: । आ॒ऽन॒न्दिनी॑: । ओष॑धय: । भ॒व॒न्तु॒ ॥१५.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महान्तं कोशमुदचाभि षिञ्च सविद्युतं भवतु वातु वातः। तन्वतां यज्ञं बहुधा विसृष्टा आनन्दिनीरोषधयो भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान्तम् । कोशम् । उत् । अच । अभि । सिञ्च । सऽविद्युतम् । भवतु । वातु । वात: । तन्वताम् । यज्ञम् । बहुऽधा । विऽसृष्टा: । आऽनन्दिनी: । ओषधय: । भवन्तु ॥१५.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (महान्तम्) बड़े (कोशम्) धनभण्डार को (उत् अच) ऊँचा कर, (अभि) सब ओर से (सिञ्च) बरसा दे। (सविद्युतम्) समान विविध प्रकाशित [जगत्] (भवतु) होवे। (वातः) वायु (वातु) [अनुकूल] चले। (बहुधा) अनेक प्रकार से (विसृष्टाः) फैली हुई (ओषधयः) चावल, यव आदि ओषधें (यज्ञम्) यज्ञ को (तन्वताम्) फैलावें, और (आनन्दिनीः=०-न्यः) आनन्दयुक्त (भवन्तु) होवें ॥१६॥

    भावार्थ

    परमात्मा के अनुग्रह से मनुष्य प्रयत्नपूर्वक धन संचय करें और वायु वृष्टि आदि से उपकार लेकर यज्ञ अर्थात् अनेक विज्ञानयुक्त कर्मों को फैलावें और अन्न आदि पदार्थ को पुष्टिकारक करें ॥१६॥ इस मन्त्र का प्रथम पाद (महान्तं.....षिञ्च) ऋ० ५।८३।८। में है। इति तृतीयोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    १६−(महान्तम्) विशालम् (कोशम्) कुश श्लेषे-घञ्। हिरण्यादिस्थापनगृहम्। मेघम्-निघ० १।१०। (उत् अच) अञ्चु गतौ। ऊर्ध्वं प्राप्नुहि। उत्थापय (अभि) अभितः (सिञ्च) वर्षय (सविद्युतम्) स+वि+द्युत दीप्तौ-क। समानं विविधं प्रकाशितं जगत् (भवतु) (वातु) अनुकूलं संचरतु (वातः) पवनः (तन्वताम्) विस्तारयन्तु (यज्ञम्) यजनीयं कर्म (बहुधा) नानाप्रकारेण (विसृष्टाः) उत्पन्नाः। वितीर्णाः (आनन्दिनीः) आनन्द-इनि, ङीप्। आनन्दिन्यः। हर्षयुक्ताः (ओषधयः) व्रीहियवतरुगुल्मादयः ॥

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    विषय

    यज्ञाद् भवति पर्जन्यः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप सूर्यकिरणों द्वारा (महान्तं कोशम्) = जल के महान् कोशभूत मेघ को (उदच) = समुद्र से उदकपूर्ण करके ऊपर अन्तरिक्ष में प्राप्त कराइए। (अभिषिञ्च) = उस मेघ से वृष्टिजल के द्वारा सम्पूर्ण भूमि को सिक्त कीजिए। अन्तरिक्ष सविद्युतम् (भवतु) = विद्युत्साहित हो जाए। (वात:) = वृष्टयनुकूल वायु (वातु) = बहे। २. (यज्ञं तन्वताम्) = इस पृथिवी पर यज्ञ विस्तृत हो। घर-घर में लोग यज्ञ करनेवाले हों। यज्ञों से वृष्टि होने पर अब (बहुधा) = बहुत प्रकार से (विसृष्टा:) = विविध रूपों में उत्पन्न हुई-हुई (ओषधयः) = ओषधियाँ-नीह-यव आदि ग्राम्य तथा तरू, गुल्म आदि अरण्य ओषधियाँ (आनन्दिनी: भवन्तु) = प्राणिमात्र को आनन्दित करनेवाली हों।

    भावार्थ

    प्रभु के अनुग्रह से सारा वातावरण वृष्टि के लिए अनुकूल हो। सब घरों में यज्ञों का विस्तार हो। उत्पन्न हुई-हुई विविध ओषधियाँ प्राणियों के लिए आनन्द देनेवाली हों।

     

    विशेष

    यज्ञों को उत्तमता से सम्पादित करनेवला 'ब्रह्मा' अगले सूक्त का ऋषि है। यह सत्य व अनृत के समीक्षक वरुण का स्मरण करता है और जीवन में सत्य [यज्ञ] को अपनाने का निश्चय करता है -

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    भाषार्थ

    (महान्तम्) महान् (कोशम्) जल के निधिरूप मेघ को (उद् अच) समुद्र से तू उद्-गत कर, उद्धृत कर, (अभिषिञ्च) और भूमि के अभिमुख उसे सिंचित कर (सविद्युतम्१, भवतु) यह कोश अर्थात् मेध या अन्तरिक्ष विद्युत-सहित हो, (वातः वायु) वायु [वृष्टि के अनुकूल] बहै। (बहुधा) बहुत प्रकार से (विसृष्टा:) मेघ से पैदा हुए जल (यज्ञम्) यज्ञ का (तन्वताम्) विस्तार करें, यज्ञों के विस्तार के हेतु बनें (ओषधयः) और ओषधियां (आनन्दिनीः) आनन्दयुक्त२ (भवन्तु) हो जायें [फूलें, फलें और वृद्धि को प्राप्त हों।]

    टिप्पणी

    [कोशम केशः मेघनाम (निघंटु १।१०)। मन्त्र में सूर्य सम्बोधित हुआ है।] [१.‌समासान्त: 'टच्।'] [२. अथवा टुनदि समृद्धौ (भ्वादि:), समृद्धि को प्राप्त हों।]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! (महान्तं) बड़े भारी (कोशं) जल के ख़जाने रूप मेघ को (उद् अच) ऊपर उठा, और (अभि षिञ्च) समस्त संसार में जल का सेचन कराओ, और वह (सविद्युतं) विद्युत् के साथ (भवतु) हो, और (वातः) पवन (वातु) बहे। (यज्ञं तन्वतां) हे पुरुषो ! तुम लोग पुण्य कार्य, यज्ञ को करो, और (बहुधा विसृष्टाः) नाना प्रकार से विविध रूपों में वर्षी हुई धाराएं (यज्ञं) इस महान् जीवन यज्ञ को (तन्वतां) सम्पादन करें, और (आनन्दिनीः) आनन्ददायक (ओषधयः) ओषधियां (भवन्तु) उत्पन्न हों अथवा ओषधियां आनन्ददायक हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    O lord, O people, raise the cloud, treasure bearer of rain. Bring rain on the earth. Let the sky flash with thunder and lightning for rain. Let the wind blow favourable for rain. Extend and develop yajna for rain. Let the herbs, sprouted, grown and extended for yajna and rain be great sources of joy and well being.

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    Subject

    Vata

    Translation

    May you life up huge cloud (kosa or vessel) (from the ocean). May you pour it (on earth). May the mid-space become charged with lightning. May the gusty wind blow. May the waters, raining in various forms, make the sacrifice thrive. May the plants and shrubs rejoice (be gladdened).

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    Translation

    Let this sun lift up the mighty treasure of water and pour down water. Let everything be under lightning flash and let the wind blow. Let the people widely extend the Performances of Yajnas broadly based and let the herbs and Plants be full of pleasure.

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    Translation

    O God, lift up the cloud, the mighty treasure of water, and pour down rain; let the wind blow, and lightning’s flash around us. Let us nobly finish this sacrifice of life. Widely scattered let herbs and plants be full of joy and gladness.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(महान्तम्) विशालम् (कोशम्) कुश श्लेषे-घञ्। हिरण्यादिस्थापनगृहम्। मेघम्-निघ० १।१०। (उत् अच) अञ्चु गतौ। ऊर्ध्वं प्राप्नुहि। उत्थापय (अभि) अभितः (सिञ्च) वर्षय (सविद्युतम्) स+वि+द्युत दीप्तौ-क। समानं विविधं प्रकाशितं जगत् (भवतु) (वातु) अनुकूलं संचरतु (वातः) पवनः (तन्वताम्) विस्तारयन्तु (यज्ञम्) यजनीयं कर्म (बहुधा) नानाप्रकारेण (विसृष्टाः) उत्पन्नाः। वितीर्णाः (आनन्दिनीः) आनन्द-इनि, ङीप्। आनन्दिन्यः। हर्षयुक्ताः (ओषधयः) व्रीहियवतरुगुल्मादयः ॥

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