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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मरुद्गणः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
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    उदी॑रयत मरुतः समुद्र॒तस्त्वे॒षो अ॒र्को नभ॒ उत्पा॑तयाथ। म॑हऋष॒भस्य॒ नद॑तो॒ नभ॑स्वतो वा॒श्रा आपः॑ पृथि॒वीं त॑र्पयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र॒य॒त॒ । म॒रु॒त॒: । स॒मु॒द्र॒त: । त्वे॒ष: । अ॒र्क: । नभ॑: । उत् । पा॒त॒या॒थ॒ । म॒हा॒ऽऋ॒ष॒भस्य॑ । नद॑त: । नभ॑स्वत: । वा॒श्रा: । आप॑: । पृ॒थि॒वीम् । त॒र्प॒य॒न्तु॒ ॥१५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ। महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ईरयत । मरुत: । समुद्रत: । त्वेष: । अर्क: । नभ: । उत् । पातयाथ । महाऽऋषभस्य । नदत: । नभस्वत: । वाश्रा: । आप: । पृथिवीम् । तर्पयन्तु ॥१५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे वायुवेगो ! (अर्कः= अर्कस्य) सूर्य के (त्वेषः= त्वेषेण) प्रकाश द्वारा (नभः) जलको (समुद्रतः) समुद्र से (उदीरयत) उठाओ और (उत् पातयाथ) ऊपर ले जाओ। (मह ऋषभस्य) बड़े गमन शील, (नदतः) गरजते हुए, (नभस्वतः) आकाश में छाये [बादल] की (वाश्राः) धड़धड़ाती (आपः) जल धाराएँ (पृथिवीम्) पृथिवी को (तर्पयन्तु) तृप्त करें ॥५॥

    भावार्थ

    जल, पवन और प्रकाश द्वारा पृथिवी से मेघमण्डल में चढ़ता और फिर पृथिवी पर बरसकर अनेक पदार्थ उपजाता है, इसी प्रकार सज्जन पुरुष विज्ञान से परिपूर्ण होकर संसार में विद्या फैलाते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(उदीरयत) ऊर्ध्वं प्रेरयत जलम् (मरुतः) वायुवेगाः (समुद्रतः) पार्थिवसमुद्रात् (त्वेषः) त्विष दीप्तौ-घञ्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति तृतीयायां प्रथमा। त्वेषेण। प्रकाशेन (अर्कः) अर्क स्तवने तापे च-अच्। षष्ट्यर्थे प्रथमा। सूर्यस्य (नभः) म० ३। उदकम् (उत् पातयाथ) पत गतौ-णिच्, लेट्। उद्गमयत। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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    विषय

    समुद्रजल का वाष्पीभवन व मेघ-निर्माण

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = वायुओ! (समुद्रतः) = समुद्र से वृष्टिजल को (उदीरयत) = ऊपर प्रेरित करो। (त्वेषः अर्क:) = यह दीप्तिवाला सूर्य है। हे मरुतो! इस सूर्य से सहायता प्राप्त करके (नभ:) = जलयुक्त मेघोंको (उत्पातयाथ) = ऊपर आकाश में प्रास कराओ। २. (महऋषभस्य) = महान् ऋषभ के समान (नदत:) = गर्जना करते हुए (नभस्वत:) = वायुप्रेरित मेघ के (वाश्रा:) = शब्दायमान (आप:) = जल (पृथिवीम् तर्पयन्तु) = पृथिवी को तप्त करें-उसे ओषधियों के प्ररोहण में समर्थ करें।

    भावार्थ

    सूर्य का प्रचण्ड ताप तथा वायुएँ मिलकर आकाश में मेघों को प्राप्त कराएँ। 'पृथिवी का समुद्र''आकाश का समुद्र' बन जाए। तब वृष्टि होकर पृथिवी नाना ओषधियों को जन्म देनेवाली हो।

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    भाषार्थ

    (मरुतः) हे मानसून वायुओ! (समुद्रत:) समुद्र से (उदीरयत) ऊपर की ओर प्रेरित करो, (नभः) मेघ को उसे (उत् पातयाथ) ऊर्ध्व की ओर प्रगत करो, प्रेषित करो, जैसेकि (त्वेष:) प्रतप्त (अर्कः) मौर्य इन कार्यों को करता है। (नदतः) गर्जते हुए। (महः ऋषभस्य) महाकाय वृषभ के सदृश (नभस्वतः) मेघवाले अर्थात् मेघाच्छादित वायुमंडल के (वाश्रा:) शब्दायमान (आपः) जल (पृथिवीम्) पृथिवी को (तर्पयन्तु) तृप्त करें।

    टिप्पणी

    [त्वेषः अर्कः = उपमावाचक पद लुप्त है। पातयाथ=पत गतौ (भ्वादिः, चुरादि:)। मन्त्र का उत्तरार्ध देखो, मन्त्र १।)]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) वायुओ ! (समुद्रतः) समुद्र के मध्य से (उद्-ईरयत) ऊपर उठ २ कर आओ और मेघों को उड़ा लाओ, (त्वेषः) तेज चमकता हुआ (अर्कः) सूर्य (नमः) मेघ को (उत् पातयाथ) ऊपर उड़ाए। (नदतः) गर्जते हुए (नभस्वतः) वायु से प्रेरित (मह ऋषभस्य) बड़े वर्षक, मेघ के (वाश्राः) छम छम करती (आपः) जलधाराएं (पृथिवीम् तर्पयन्तु) बरस २ कर पृथिवी को तृप्त करदें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    O winds, stir the vapours of water from the sea evaporated by the heat of the sun and raise them to the sky. Let the profuse showers of rain from the rumbling clouds of the roaring sky fall and fill the earth to the full.

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    Subject

    Marut

    Translation

    O cloud bearing winds, may you move up out of the ocean,as a bright splendour, and make the cloud fly upward. May the waters, the lowing cows of the huge roaring bull, the storm cloud, gratify the earth.

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    Translation

    Let the winds lift up the waters from the ocean as the light and splendor of the sun raise the vapors upward. Let the rattling waters of the thundering tremendous cloud moved by wind satisfy the earth.

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    Translation

    O winds, through warmth of the sun lift water up from the sea, and take them up. Let the fast streams of water flowing from the thundering and highly roaring cloud in the sky satisfy the earth!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(उदीरयत) ऊर्ध्वं प्रेरयत जलम् (मरुतः) वायुवेगाः (समुद्रतः) पार्थिवसमुद्रात् (त्वेषः) त्विष दीप्तौ-घञ्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति तृतीयायां प्रथमा। त्वेषेण। प्रकाशेन (अर्कः) अर्क स्तवने तापे च-अच्। षष्ट्यर्थे प्रथमा। सूर्यस्य (नभः) म० ३। उदकम् (उत् पातयाथ) पत गतौ-णिच्, लेट्। उद्गमयत। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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