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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    64

    यौ मेधा॑तिथि॒मव॑थो॒ यौ त्रि॒शोकं॒ मित्रा॑वरुणावु॒शनां॑ का॒व्यं यौ। यौ गोत॑म॒मव॑थः॒ प्रोत मुद्ग॑लं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । मेध॑ऽअतिथिम् । अव॑थ: । यौ । त्रि॒ऽशोक॑म् । मित्रा॑वरुणै । उ॒शना॑म् । का॒व्यम् । यौ । यौ । गोत॑मम् । अव॑थ: । प्र । उ॒त । मुद्ग॑लम् । तौ न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यौ मेधातिथिमवथो यौ त्रिशोकं मित्रावरुणावुशनां काव्यं यौ। यौ गोतममवथः प्रोत मुद्गलं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । मेधऽअतिथिम् । अवथ: । यौ । त्रिऽशोकम् । मित्रावरुणै । उशनाम् । काव्यम् । यौ । यौ । गोतमम् । अवथ: । प्र । उत । मुद्गलम् । तौ न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यौ) जो (मित्रावरुणौ) दिन रात वा प्राण और अपान तुम दोनों ! (मेधातिथिम्) धारणावती बुद्धि के नित्य प्राप्त करनेवाले को और (यौ) जो तुम दोनों (त्रिशोकम्) कायिक, वाचिक, और मानसिक तीन दोषों पर शोक करनेवाले को, और (यौ) जो तुम दोनों (उशनाम्) कामनायोग्य नीति को और (काव्यम्) बुद्धिमानों के कर्म को (अवथः) बचाते हो। (यौ) जो तुम दोनों (गोतमम्) अतिशय स्तुति करनेवाले वा विद्या की कामना करनेवाले को (उत) और (मुद्गलम्) मोद अर्थात् हर्ष देनेवाले को (प्र) अच्छे प्रकार (अवथः) बचाते हो। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य तपश्चर्या करके अपने समय और शारीरिक मानसिक शक्तियों का यथावत् उपयोग करते हैं, वे उत्तम नीति और कर्म प्राप्त करके आनन्दित होते हैं ॥—६॥

    टिप्पणी

    ६−(यौ) युवाम् (मेधातिथिम्) षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। इति मेधृ वधहिंसासङ्गमेषु-अङ्। टाप्। धीर्धारणावती मेधा-इत्यमरः। ५।२। ऋतन्यञ्जिवन्यञ्ज्यर्पिमद्यत्यङ्गि०। उ० ४।२। इति अत सातत्यगमने-इथिन्। अततीति अतिथिः। मेधां धारणावतीं बुद्धिम् अतति निरन्तरं प्राप्नोति यः, तम्। (अवथः) (त्रिशोकम्) त्रिषु कायिकवाचिकमानसिकदोषेषु शोकः खेदो यस्य तम् (मित्रावरुणौ) अहोरात्रौ प्राणापानौ वा (उशनाम्) रञ्जतेः क्युन्। उ० २।७९। इति वश कान्तौ-क्युन्। टाप्। सम्प्रसारणं च। कमनीयां नीतिम् (काव्यम्) गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च। पा० ५।१।१२४। इति कवि-ष्यञ्। कवीनां मेधाविनां कर्म (गोतमम्) गो-तमप्। गौः स्तोता-निरु० ३।१६। अतिशयेन स्तोतारम्। यद्वा, गौः, वाङ्नाम-निघ० १।११। तमु काङ्क्षायाम् पचाद्यच्। गां वाचं विद्यां ताम्यति काङ्क्षति यस्तं विद्याकामम् (प्र उत) (मुद्गलम्) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। इति मुद हर्षे-गक्। ला दानादनयोः-क। मुद्गलो मुद्गवान् मुद्गिलो वा मदनङ्गिलतीति वा मदङ्गिलो वा मुदङ्गिलो वा निरु० ९।२४। मोदस्य हर्षस्य दातारम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥—

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    विषय

    'मेधातिथि से मुदल' तक

    पदार्थ

    १. हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निढेषता के भावो! (यौ) = जो आप (मेधातिथिम्) = [मेधां अतति] निरन्तर बुद्धि की ओर चलनेवाले को अवथः रक्षित करते हो, अर्थात् स्नेह व निद्वेषता को अपनानेवाला बुद्धिमान् बनता है। (यौ) = जो आप (निकशोकम्) = 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों को दीप्त करनेवाले को रक्षित करते हो, (यौ) = जो आप (उशनाम्) = [वष्टि]प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाले पुरुष को रक्षित करते हो, और (काव्यम्) = [कौति] प्रभु-नामों का उच्चारण करनेवाले ज्ञानी भक्त का रक्षण करते हो। २. (यौ) = जो आप (गोतमम्) = अतिशयेन प्रशस्त इन्द्रियोंवाले का (अवथ:) = रक्षण करते हो (उत) = और (मुद्धलम्) = [मुदं गलति Drops] सांसारिक मौजों को अपने जीवन से पृथक कर देता है, उस मुगल को आप (प्र-प्रकर्षेण) = रक्षित करते हो, (तौ) = वे आप (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चतम्) = पाप से मुक्त करें।

    भावार्थ

    स्नेह व निर्देषता के भाव हमें 'मेधातिथि, त्रिशोक, उशना, काव्य, गोतम व मुगल' बनाते हैं। ये हमें पापों से मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (मित्रावरुणी) हे मित्र! और हे वरुण ! (यौ) जो तुम दो (मेधातिथिम्) मेधावी-अतिथियोंवाले की, (यौ) जो तुम दो (त्रिशोकम्) त्रिविध शोकवाले की, (उशनाम्) कान्तिमती महिला की, (यौ) जो तुम दो (काव्यम्) वेदकाव्य के विद्वान्१ की (अवथ:) रक्षा करते हो, (यौ) जो तुम दो (गोतमम्) पृथिवी में सर्वश्रेष्ठ की, (उत) तथा (मुद्गलम्) सांसारिक मोदप्रमाद को खा जाने वाले, नष्ट कर देनेवाले की (प्र अवथ:) प्रकर्षरूप में रक्षा करते हो (तौ) वे दुम दो (न:) हम सबको (अंहस:) पाप से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, छुड़ाओं।

    टिप्पणी

    [त्रिशोकम्= सांसारिक जीवन में दुःख त्रिविध हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक; जो इन त्रिविध दुःखो से दु:खित हुआ, शोकग्रस्त होकर, सांसारिक जीवन से उपगत हो गया है यह है 'त्रिशोक'। उशनाम्= वश कान्तौ (अदादिः), कान्तिमती कमनीया कन्या। काव्यम्= वेदकाव्य का स्वाध्यायी विद्वान;१ 'अर्शआदिभ्योऽच्' द्वारा 'अच्' (अष्टा० ५।२।१२७)। गोतमम्= गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)+तमप्। मुद्गलम्= सांसारिक मोदप्रमोदों को विवेक=ज्ञानपूर्वक त्याग देनेवाला। उशनाम्= राष्ट्र की कन्याओं को भी रक्षा करना मित्र और वरुण का कर्तव्य है, यह राष्ट्र धर्म है।] [१. विद्वान् अर्थात् द्रष्टा। यथा "देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति" (अथर्व १०।८।३२)। वेद में काव्य के द्रष्टा को 'काव्य' कहा है। इस द्रष्टा को 'पश्य' द्वारा निर्दिष्ट किया है। यह द्रष्टा है ऋषि; वेद काव्य है, सम्भवतः अथर्ववेद। इसकी द्रष्टा ऋषि होकर न मरता है, न बुढ़ा होता है। मुक्त हो जाने से पुनर्जन्म नहीं प्राप्त होता। जब शरीर ही न मिला तो उसका मरना और जीर्ण होना सम्भव ही नहीं हो सकता।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin

    Meaning

    O Mitra and Varuna, who protect and promote Medhatithi, man of controlled intelligence, Trishoka, man thrice brilliant in thought, word and deed, Ushana Kabya, enthusiastic seeker and disciple of the brilliant wise, Gotama, seeker and master of the Word and wisdom of the world, and Mudgala, seeker and creator of happiness, pray save us from sin and distress.

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    Translation

    You two, O Mitra and Varuna, who protect medhatithi (one who has attained wisdom), trisóka (one who inquires into three types of sorrows), and usanas (love-poet) the son of the poet; who protect gotama (always active), and also mudgala (ever-happy); as such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    These are Mitra and Varuna which help the soul which is the central store of all consciousness; which protect the animal heat that possesses three kinds of activities; which protect the voluntary and involuntary activities of mind; which preserve the vocal cards and the physical vigour. May these two become the Sources of our safety from the grief and troubles.

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    Translation

    O Prana and Apana, Night and Day, who protect a man of steady intellect, a yogi who burns with knowledge his sins of body, mind, and tongue, a wise policy of statesmen, the action of the wise, a highly spiritually advanced person, a soul emancipated in life and reveling in joy, deliver us, Ye twain, from grief and trouble!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यौ) युवाम् (मेधातिथिम्) षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। इति मेधृ वधहिंसासङ्गमेषु-अङ्। टाप्। धीर्धारणावती मेधा-इत्यमरः। ५।२। ऋतन्यञ्जिवन्यञ्ज्यर्पिमद्यत्यङ्गि०। उ० ४।२। इति अत सातत्यगमने-इथिन्। अततीति अतिथिः। मेधां धारणावतीं बुद्धिम् अतति निरन्तरं प्राप्नोति यः, तम्। (अवथः) (त्रिशोकम्) त्रिषु कायिकवाचिकमानसिकदोषेषु शोकः खेदो यस्य तम् (मित्रावरुणौ) अहोरात्रौ प्राणापानौ वा (उशनाम्) रञ्जतेः क्युन्। उ० २।७९। इति वश कान्तौ-क्युन्। टाप्। सम्प्रसारणं च। कमनीयां नीतिम् (काव्यम्) गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च। पा० ५।१।१२४। इति कवि-ष्यञ्। कवीनां मेधाविनां कर्म (गोतमम्) गो-तमप्। गौः स्तोता-निरु० ३।१६। अतिशयेन स्तोतारम्। यद्वा, गौः, वाङ्नाम-निघ० १।११। तमु काङ्क्षायाम् पचाद्यच्। गां वाचं विद्यां ताम्यति काङ्क्षति यस्तं विद्याकामम् (प्र उत) (मुद्गलम्) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। इति मुद हर्षे-गक्। ला दानादनयोः-क। मुद्गलो मुद्गवान् मुद्गिलो वा मदनङ्गिलतीति वा मदङ्गिलो वा मुदङ्गिलो वा निरु० ९।२४। मोदस्य हर्षस्य दातारम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥—

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