अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
ऋषिः - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
54
न पि॑शा॒चैः सं श॑क्नोमि॒ न स्ते॒नैर्न व॑न॒र्गुभिः॑। पि॑शा॒चास्तस्मा॑न्नश्यन्ति॒ यम॒हं ग्राम॑मावि॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठन । पि॒शा॒चै: । सम् । श॒क्नो॒मि॒ । न । स्ते॒नै: । न । व॒न॒र्गुऽभि॑: ।पि॒शा॒चा: । तस्मा॑त् । न॒श्य॒न्ति॒ । यम् । अ॒हम् । ग्राम॑म् । आ॒ऽवि॒शे ॥३६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
न पिशाचैः सं शक्नोमि न स्तेनैर्न वनर्गुभिः। पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति यमहं ग्राममाविशे ॥
स्वर रहित पद पाठन । पिशाचै: । सम् । शक्नोमि । न । स्तेनै: । न । वनर्गुऽभि: ।पिशाचा: । तस्मात् । नश्यन्ति । यम् । अहम् । ग्रामम् । आऽविशे ॥३६.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(न) न तो (पिशाचैः) पिशाचों के साथ, (न) न (स्तेनैः) चोरों के साथ, और (न) न (वनर्गुभिः) वनचर डाकुओं के साथ (सम् शक्नोमि) रह सकता हूँ। (यम्) जिस (ग्रामम्) ग्राम में (अहम्) मैं (आविशे) घुसता हूँ, (पिशाचाः) पिशाच लोग (तस्मात्) उस स्थान से (नश्यन्ति) भाग जाते हैं ॥७॥
भावार्थ
राजा प्रबन्ध करे कि बस्तियों में हिंसक चोर आदि लूट-खसोट न करें ॥७॥
टिप्पणी
७−(न) निषेधे (पिशाचैः) पिशिताशिभिः (सम्) संवस्तुम् (शक्नोमि) शक्तो भवामि (स्तेनैः) चौरैः (वनर्गुभिः) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति वन+गम्लृ गतौ-डु रुडागमः। स्तेननाम-निघ० ३।२४। वनर्गू वनगामिनौ-निरु० ३।१४। वनचरैः। दस्युभिः (पिशाचाः) पिशिताशनाः (तस्मात्) ग्रामात् (नश्यन्ति) अदृष्टा भवन्ति पलायन्ते (यम्) (अहम्) (ग्रामम्) अ० ४।७।५। वसतिम् (आविशे) प्रविशामि ॥
विषय
पिशाच-पलायन
पदार्थ
१. राजा कहता है कि मैं (पिशाचैः) = औरों का मांस खानेवाले राक्षसों के साथ (न संशक्नोमि) = किसी प्रकार से मेल नहीं कर सकता- इन्हें कठोर दण्ड देता हूँ, स्तेनैः न-चोरों के साथ भी मेल नहीं कर सकता और न-न ही वनभि:-वनगामी डाकुओं के साथ मेल कर सकता हूँ। २. मैं (यम्) = जिस भी (ग्रामम् आविशे) = ग्राम में प्रवेश करता हूँ (तस्मात्) = उस ग्राम से (पिशाचा: नश्यन्ति) = पिशाच नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ
राजशासन का सौन्दर्य यही है कि राष्ट्र से 'स्तेनों व वनर्गुओं' का नामोनिशान भी मिट जाए। राष्ट्र इनके उपद्रवों से रहित हो।
भाषार्थ
(न) न (पिशाचैः) मांस-भक्षकों के साथ (सम् शक्नोमि) मैं सन्धि कर सकता हूँ, (न स्तेनैः) न चोरों के साथ, (न वन कभी:) न वन में छिपे डाकुओं के साथ (यम् ग्रामम्) जिस ग्राम में (अहम्) मैं सेनाध्यक्ष (आविशे) प्रवेश पाता हूँ (तस्मात्) उस ग्राम से (पिशाचाः) पिशाच आदि (नश्यन्ति) नष्ट हो जाते हैं।
टिप्पणी
[वनर्गुभिः= वनर्गु वनगामिनौ (निरुक्त ३।१४)।]
विषय
न्याय-विधान और दुष्टों का दमन।
भावार्थ
मैं (पिशाचैः) पिशाच, डाकुओं के साथ (न सं शक्नोमि) संधि कर के नहीं रह सकता हूं, (न स्तेनैः) चोरों के साथ भी संधि नहीं कर सकता, (न वनर्गुभिः) अपराध करके जंगल में छिप कर रहने वाले, छापा मारने वाले डाकुओं के साथ भी संधि नहीं कर सकता। इसलिये (यम् ग्रामं) जिस ग्राम में (अहं) मैं (आ विशे) पहुंच जाता हूं (पिशाचाः) वे हत्यारे, परद्रव्य-प्राणापहारी डाकू लोग (तस्मात्) उस बस्ती से ही (नश्यन्ति) भाग जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Power of Truth
Meaning
I cannot tolerate and cannot compromise with thieves, highway men and blood-sucking exploiters. These evils disappear from the village wherever I enter and the rule of law and justice operates.
Translation
I never compromise with blood-suckers, nor with thieves, nor with robbers of the forests. Blood-suckers run I away from the vile, which I enter in.
Translation
I neither have any treaty with the wicked men, nor with the thieves or with those who hide in wood after committing offence. The wicked and undesirable elements flee away from the village which I enter in.
Translation
I can have no agreement with blood-sucking demons, with thieves, with plunderers who roam in woods. Demons flee and vanish from each village as I enter it.
Footnote
‘I’ refer to a king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(न) निषेधे (पिशाचैः) पिशिताशिभिः (सम्) संवस्तुम् (शक्नोमि) शक्तो भवामि (स्तेनैः) चौरैः (वनर्गुभिः) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति वन+गम्लृ गतौ-डु रुडागमः। स्तेननाम-निघ० ३।२४। वनर्गू वनगामिनौ-निरु० ३।१४। वनचरैः। दस्युभिः (पिशाचाः) पिशिताशनाः (तस्मात्) ग्रामात् (नश्यन्ति) अदृष्टा भवन्ति पलायन्ते (यम्) (अहम्) (ग्रामम्) अ० ४।७।५। वसतिम् (आविशे) प्रविशामि ॥
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