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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
    ऋषिः - चातनः देवता - सत्यौजा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
    55

    यं ग्राम॑मावि॒शत॑ इ॒दमु॒ग्रं सहो॒ मम॑। पि॑शा॒चास्तस्मा॑न्नश्यन्ति॒ न पा॒पमुप॑ जानते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ग्राम॑म् । आ॒ऽवि॒शते॑ । इ॒दम् । उ॒ग्रम् । सह॑: । मम॑ । पि॒शा॒चा: । तस्मा॑त् । न॒श्य॒न्ति॒ । न । पा॒पम् । उप॑ । जा॒न॒ते॒ ॥३६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं ग्राममाविशत इदमुग्रं सहो मम। पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति न पापमुप जानते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ग्रामम् । आऽविशते । इदम् । उग्रम् । सह: । मम । पिशाचा: । तस्मात् । नश्यन्ति । न । पापम् । उप । जानते ॥३६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम् ग्रामम्) जिस ग्राम में (इदम्) यह (उग्रम्) उग्र (मम) मेरा (सहः) बल (आ विशते) प्रवेश करता है। (पिशाचाः) पिशाच लोग (तस्मात्) उस स्थान से (नश्यन्ति) भाग जाते हैं और (पापम्) पाप को (न) नहीं (उप जानते) जानते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    प्रतापी नीतिनिपुण राजा के शासन में दुष्ट लोग उपद्रव नहीं मचाते हैं ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(यम्) (ग्रामम्) वसतिम् (आविशते) प्रविशति (इदम्) (उग्रम्) तीक्ष्णम् (सहः) बलम् (मम) मदीयम् (पिशाचाः, तस्मात्, नश्यन्ति) म० ७। (न) निषेधे (पापम्) पाति यस्मात् तत्। अनिष्टम् (उप जानते) अवबुध्यन्ते ॥

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    विषय

    पाप का उग्र-दण्ड

    पदार्थ

    १. राजा कहता है कि (मम) = तेरा (इदम्) = यह (उनम्) = तीक्ष्ण-पिशाच-सन्तापनकारी (सह) = बल (यम् ग्रामम्) = जिस भी ग्राम में (आविशते) = प्रविष्ट होकर कार्य करता हूँ, (तस्मात्) = उस ग्राम से (पिशाचा:) = पर-मांसभोजी पिशाच (नश्यन्ति) = भाग जाते हैं। २. राजभय से पिशाच अपनी वृत्ति में परिवर्तन करते हैं और (पापम् न उपजानते) = पाप को नहीं जानते-पाप करना उन्हें भूल ही जाता है। अब ये चोरी आदि का नाम नहीं लेते। पाप का दण्ड उग्र होने पर पाप समाप्त हो जाता है।

    भावार्थ

    राजा पापी को ऐसा उग्र दण्ड दे कि आगे से लोग पाप करना भूल ही जाएँ।

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    भाषार्थ

    (यम् ग्रामम्) जिस ग्राम में (मम) मेरा (इदम्) यह (उग्रम, सहः) उग्रबल (आविशते) प्रविष्ट हो जाता है, (तस्मात्) उस ग्राम से (पिशाचाः) मांसभक्षक आदि (नश्यन्ति) नष्ट हो जाते हैं, (पापम्) पाप को (न उप जानते) जानते तक नहीं [पापकर्म का करना तो सम्भव ही नहीं]।

    टिप्पणी

    [प्रत्येक ग्राम को पाप तथा पापियों से रहित कर देना, वैदिक सदाचार का उद्देश्य है, केवल नागरिक सदाचार पर्याप्त नहीं।]

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    विषय

    न्याय-विधान और दुष्टों का दमन।

    भावार्थ

    (मम) मेरा (उग्रं) भयङ्कर, बलवान् (इदम्) यह (सहः) दमनकारी बल (यं ग्रामम्) जिस ग्राम या बस्ति में भी (आ विशते) पहुंच जाता है (तस्मात् पिशाचाः नश्यन्ति) उस ग्राम से डाकू भाग जाते हैं। वहां के लोगों पर वे (पापम्) पाप, दुष्टाचार और लूट मार (न उपजानते) करना ही नहीं जानते, वहां ये बदमाशी करना भूल जाते हैं, या वहां के लोग बुराई का नाम भी नहीं जानते।

    टिप्पणी

    “न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो नानाहिताग्निर्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः” छान्दोग्य उप०॥ मेरे राज्य में न चोर, न लुटेरा, न अयाज्ञिक, न व्यभिचारी है, फिर व्यभिचारिणी भी कहां से हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Power of Truth

    Meaning

    Whichever the village or human settlement where the heat and awe of my law, justice and power operates, from that place the law breakers and forces of violence disappear, never dare they revive their propensity to sin and crime.

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    Translation

    Whatever village this awful power of mine enters, the blood suckers run-away from there. They plan evil no more.

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    Translation

    These wicked and undesirable elements run away from the village whatever my awful power penetrates through and they plot no further mischief there.

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    Translation

    Into whatever village this mine aweful power penetrates, thence the demons flee away, and plot no further mischief there.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(यम्) (ग्रामम्) वसतिम् (आविशते) प्रविशति (इदम्) (उग्रम्) तीक्ष्णम् (सहः) बलम् (मम) मदीयम् (पिशाचाः, तस्मात्, नश्यन्ति) म० ७। (न) निषेधे (पापम्) पाति यस्मात् तत्। अनिष्टम् (उप जानते) अवबुध्यन्ते ॥

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