अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
ऋषिः - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
57
ये मा॑ क्रो॒धय॑न्ति लपि॒ता ह॒स्तिनं॑ म॒शका॑ इव। तान॒हं म॑न्ये॒ दुर्हि॑ता॒ञ्जने॒ अल्प॑शयूनिव ॥
स्वर सहित पद पाठये । मा॒ । क्रो॒धय॑न्ति । ल॒पि॒ता: । ह॒स्तिन॑म्। म॒शका॑:ऽइव । तान् । अ॒हम् । म॒न्ये॒ । दु:ऽहि॑तान् । जने॑ । अल्प॑शयून्ऽइव॥३६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
ये मा क्रोधयन्ति लपिता हस्तिनं मशका इव। तानहं मन्ये दुर्हिताञ्जने अल्पशयूनिव ॥
स्वर रहित पद पाठये । मा । क्रोधयन्ति । लपिता: । हस्तिनम्। मशका:ऽइव । तान् । अहम् । मन्ये । दु:ऽहितान् । जने । अल्पशयून्ऽइव॥३६.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (लपिताः) बकवादी लोग (आ) मुझे (क्रोधयन्ति) क्रोध करते हैं, (मशकाः इव) जैसे मच्छड़ (हस्तिनम्) हाथी को। (तान्) उन (दुर्हितान्) दुष्कर्मियों को (जने) मनुष्यों के बीच (अल्पशयून् इव) थोड़े सोनेवाले कीट पतंगों के समान (अहम्) मैं (मन्ये) मानता हूँ ॥९॥
भावार्थ
बतबने दुराचारियों को दण्ड देकर राजा सदा दुर्बल रक्खे ॥९॥
टिप्पणी
९−(ये) दुष्टः (मा) माम् (क्रोधयन्ति) कोपयन्ति (लपिताः) लप कथने-क्त। लपितं कथनमस्यास्तीति, अर्शआद्यच्। बहुवचनयुक्ताः। वाचालाः (हस्तिनम्) गजम् (मशकाः) कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। इति मश ध्वनौ−वुन्। दंशकाः (इव) यथा) तान् (अहम्) (मन्ये) जानामि (दुर्हितान्) दुष्कर्मिणः (जने) जनसमूहे (अल्पशयून्) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति अल्प+शीङ् स्वप्ने-उ। अल्पशयनस्वभावान् क्षुद्रजन्तून् ॥
विषय
जन-मार्ग से पिशाचों को दूर करना
पदार्थ
१. राजा कहता है कि (ये) = जो पिशाच (लपिता:) = व्यर्थ बकवास करनेवाले होते हुए-झूठ के द्वारा अपने अपराध को छिपाने का प्रयत्न करते हुए (मा क्रोधयन्ति) = मुझे क्रुद्ध कर देते हैं, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (मशका:) = शब्द करते हुए मच्छर (हस्तिनम्) = हाथी को, (तान्) = उन्हें (अहम्) = मैं (दुर्हितान् मन्ये) = लोक में दुःख बढ़ानेवाला-अस्थान में स्थित [दुर् हित] (मन्ये) = मानता हूँ। २. (जने) = जनसंघ में-जनसमूह के सञ्चरण स्थल में अवस्थित (अल्पशयून् इव) = अल्पकाय शयनस्वभाव [संचार-अक्षम] कीटों की भाँति मैं उन्हें मार्ग से हटाने योग्य ही समझता हूँ। ये पिशाच लोक-व्यवहार में विघ्नरूप ही होते हैं। इन्हें दूर करना नितान्त आवश्यक होता है।
भावार्थ
झूठे, चोर, ऊटपटौंग बातें बनानेवाले व्यक्ति राजा के क्रोध के पात्र होते हैं। राजा इन्हें प्रजा के मार्ग से हटा देना आवश्यक समझता है।
भाषार्थ
(ये) जो (लपिताः) बकवासी (मा) मुझ सेनाध्यक्ष को (क्रोधयन्ति) [निज व्यवहारों द्वारा] क्रुद्ध करते हैं, (इव) जैसेकि (मशका:) मच्छर (हस्तिनम्) हाथी को, (तान् दुर्हितान्) उन अहितकारियों को (अहम्) मैं सेनाध्यक्ष (मन्ये) मानता हूँ, (जने) जन-समुदाय में (अल्पशयून् इव) सड़क पर सोये हुए क्षुद्र कीड़ों की तरह।
टिप्पणी
[लपिताः= रल लप व्यक्तायां वाचि (भ्वादिः)। मच्छर भी "लपिताः" हैं, वे घुं-घुं की आवाजें कानों में करते हैं।]
विषय
न्याय-विधान और दुष्टों का दमन।
भावार्थ
(मशकाः) मच्छर जिस प्रकार (हस्तिनम् इव) हाथी को कुपित कर देते हैं उस प्रकार (ये) जो (मां) मुझ दमनकारी, सत्यनिष्ठ राजा को (लपिताः) व्यर्थ झूठे मूंठे, चुगलखोर, व्यर्थ बक झक करके (क्रोधयन्ति) क्रुद्ध कर देते हैं (तान्) उनको (अहं) मैं (जने) राष्ट्रवासी जनता में (अल्पशयून्) स्वल्पवृत्ति, तुच्छ-स्वभाव के छिद्रान्वेषी, छोटे २ बिलों में रहने वाले, हानिकारक कीड़ों या मूसे के समान (दुर्हितान्) सदा दुःखकारी अनिष्टजनक (मन्ये) समझता हूं।
टिप्पणी
राजा खुशामदी लोगों पर कान न दे, वे प्रजा के बड़े अपकारी होते हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। सत्यौजा अग्निर्देवता। १-८ अनुष्टुभः, ९ भुरिक्। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Power of Truth
Meaning
Those whisperers, jabbers and idle protesters who try to provoke my anger as mosquitoes buzzzing around an elephant do, I reject as ineffectual undesirables like short lived moths among the people.
Translation
Those who provoke and enrage me talking abusively as stinging flies torment an elephant, then I think very badly placed, just as tiny insects lying on a crowded. path.
Translation
To them who are troublesome in the state like small insects and who enrage with their idle talks like the mosquitoes who trouble the elephant. I deem unhappy and undesirable creatures.
Translation
Those who enrage me with their garrulity, as dies torment an elephant,I deem unhappy creatures, like small insects troublesome to man.
Footnote
‘I’ , ‘me’ refers to a king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(ये) दुष्टः (मा) माम् (क्रोधयन्ति) कोपयन्ति (लपिताः) लप कथने-क्त। लपितं कथनमस्यास्तीति, अर्शआद्यच्। बहुवचनयुक्ताः। वाचालाः (हस्तिनम्) गजम् (मशकाः) कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। इति मश ध्वनौ−वुन्। दंशकाः (इव) यथा) तान् (अहम्) (मन्ये) जानामि (दुर्हितान्) दुष्कर्मिणः (जने) जनसमूहे (अल्पशयून्) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति अल्प+शीङ् स्वप्ने-उ। अल्पशयनस्वभावान् क्षुद्रजन्तून् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal