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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - द्यावापृथिवी, सप्तसिन्धुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषघ्न सूक्त
    104

    याव॑ती॒ द्यावा॑पृथि॒वी व॑रि॒म्णा याव॑त्स॒प्त सिन्ध॑वो वितष्ठि॒रे। वाचं॑ वि॒षस्य॒ दूष॑णीं॒ तामि॒तो निर॑वादिषम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑ती॒ । इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । व॒रि॒म्णा । याव॑त् । स॒प्त । सिन्ध॑व: । वि॒ऽत॒स्थि॒रे । वाच॑म् । वि॒षस्य॑ । दूष॑णीम् । ताम् । इ॒त: । नि:। अ॒वा॒दि॒ष॒म् ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावती द्यावापृथिवी वरिम्णा यावत्सप्त सिन्धवो वितष्ठिरे। वाचं विषस्य दूषणीं तामितो निरवादिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावती । इति । द्यावापृथिवी इति । वरिम्णा । यावत् । सप्त । सिन्धव: । विऽतस्थिरे । वाचम् । विषस्य । दूषणीम् । ताम् । इत: । नि:। अवादिषम् ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विष दूर करने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यावापृथिवी=०-व्यौ) सूर्य और पृथिवीलोक (वरिम्णा) अपने विस्तार से (यावती=०-त्यौ) जितने हैं, और (सप्त) जीव से मिली हुई वा गमनशील, वा सात (सिन्धवः) बहनेवाली नदी रूप इन्द्रियाँ [दो कान, दो नथने, दो आँखे और एक मुख] (यावत्) जितने (वितष्ठिरे) फैलकर स्थित हैं। (इतः) इस स्थान से (विषस्य) विष की (दूषणीम्) खण्डन करनेवाली (ताम्) उस (वाचम्) वाणी को (निरवादिषम्) मैंने कह दिया है ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य उपाय करें कि आकाश और पृथिवी के सब गोचर पदार्थों में विष का संसर्ग न हो और पुष्टिकारक और बलवर्धक वस्तुओं के स्पर्श, दर्शन, श्रवण, मनन, संभोग आदि से आनन्द प्राप्त हो ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यावती) यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप् पा० ५।२।३९। इति यत्-वतुप्। ङीप्। आ सर्वनाम्नः। पा० ६।३।९१। इति आत्वम्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। यावत्यौ। यावत्परिमाणयुक्ते (द्यावापृथिवी) पूर्वसवर्णदीर्घः। सूर्यपृथिव्यौ (वरिम्णा) पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा। पा० ५।१।१२२। इति उरु-इमनिच्। प्रियस्थिर०। पा० ६।४।१५७। इति वर् आदेशः। उरुत्वेन। विस्तारेण (सप्त) सप्यशुभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समावये, यद्वा, सृल्पृ गतौ कनिन्। तुट् च, ऋकारस्य अकारः। सप्तपुत्रं सप्तमपुत्रं सर्पणपुत्रमति वा सप्त सृप्ता सङ्ख्या सप्तादित्यरश्मय इति निरु० ४।२६। जीवेन सह समवेताः सर्पणा गमनशीला वा सप्तसङ्ख्याका वा (सिन्धवः) अ० ४।३।१। स्यन्दनशीलानि नदीरूपाणि शीर्षण्यानि कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखानि-व्याख्यातम्। अ० २।१२।७। (वितष्ठिरे) ष्ठा गतिनिवृत्तौ-लिट्। समवप्रविभ्यः स्थः। पा–० १।३।२२। इति आत्मनेपदम्। विस्तारेण स्थिताः (वाचम्) वाणीम् (दूषणीम्) दुष वैकृते-ण्यन्तात् ल्युट्। ङीप्। नाशनीम् (ताम्) तादृशीम् (इतः) अस्माद् देशात् (निः अवादिषम्) वद वाक्ये-लुङ्। वदव्रजहलन्तस्याचः। पा० ७।२।३। इति वृद्धिः। अहं निर्गमय्य उच्चारितवानस्मि ॥

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    विषय

    विषैली भावना को दूर करना

    पदार्थ

    १. (यावती) = जितने ये (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (वरिम्णा) = विस्तार से फैले हैं, (यावत्) = जहाँ तक ये (सप्त सिन्धवः) = सात समुद्र (वितष्ठिरे) = विशेषमा रो रिशत हुए हैं, (इतः) = इस सारे प्रदेश से (ताम्) = उस (विषस्य दूषणीम्) = विष को दूषित करनेवाली, अर्थात विषप्रभाव को नष्ट करनेवाली (वाचम्) = मधुर ज्ञान की वाणी को (निरवादिषम्) = मैंने निश्चय से व्यक्तरूप से कहा। २. हम मधुर ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए लोकहृदय से विषभरे भावों को दूर करने का प्रयत्न करें।

    भावार्थ

    हम उस ज्ञानमयी मधुरवाणी का उच्चारण करें जो लोगों के हृदयों से विषैले भावों को दूर करनेवाली हो।

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    भाषार्थ

    (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (वरिम्णा) विस्तार में (यावती) जितने परिमाणवाले हैं, (सप्तसिन्धवः) सात स्यन्दनशील नदियाँ, या सात समुद्र (यावत्) जितने स्थान में (वितष्ठिरे) विशेषतया स्थित हैं, (इतः) इन स्थानों से (विषस्य दूषणीम्) विष को दूषित कर देनेवाली (ताम्) उस (वाचम्) वेदवाणी को (निरवादिषम्) निश्चित रूप में मैंने कह दिया है।

    टिप्पणी

    [ब्राह्मण अर्थात् वेदज्ञ विद्वान् (मन्त्र १) अपने किसी शिष्य के प्रति कहता है कि पृथिवी के जलभूयिष्ठ प्रदेश के किसी भी निवासी को, या द्युलोकस्थ किसी लोकलोकान्तर के निवासी को यदि सर्प ने काट लिया है, तो विष के प्रतीकार के लिए, वेदों में वर्णित प्रयोगों और विधियों का प्रवचन मैंने तुझे कह दिया है। सूक्त का देवता यतः तक्षक सर्प है, अत: सूक्त में मुख्यरूप में सर्पविषों का कथन ठीक प्रतीत होता है। सात समुद्रों का अभिप्राय है इन द्वीपों के निवासी जन।]

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    विषय

    विष चिकित्सा।

    भावार्थ

    वाणी द्वारा विष के प्रभाव को दूर करने का उपदेश। (द्यावापृथिवी) आकाश और ज़मीन (वरिम्णा) अपने विस्तार से (यावती) जितनी बड़ी हैं और (सप्त सिन्धवः) सातों समुद्र (यावत्) जितनी दूर तक (वि-तस्थिरे) फैले हैं, उतने विस्तार तक (विषस्य दूषणीम्) विष के विनाश करने वाली, प्रबल (तां वाचम्) उस वाणी को मैं (इतः) इस मुख से (निर् अवादिषम्) बोलूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Antidote to Poison

    Meaning

    As far as heaven and earth extend, as far as the seven seas roll, that far effective from here have I spoken of the word of remedy against poison.

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    Subject

    Dyava-Prthivi - Sapta Sindhus

    Translation

    As far as- the spacious heaven and earth extend, ánd as far as the seven seas (rivers) :are spread, so far from here my speech, that I speak, will destroy the poison.

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    Translation

    I, from here, establish that Vedic speech which prescribes the remedy of eradicating poison to the magnitude what- soever the sun and the earth extend by their extensive area and whatsoever the seven meters of the Vedic speech spread out.

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    Translation

    Far as the heaven and earth arc spread in compass, far as the seven rivers are extended, so far my speech, the antidote of poison, have I spoken hence.

    Footnote

    Seven rivers: The seven organs, two eyes, two ears, two nostrils and mouth. Max Muller mentions these seven rivers to be the Indus, the Saraswati, and five rivers of the Punjab. This interpretation is inadmissible as there is no history in the Vedas. My refers to a physician. Men should try to remove poison from all objects and places.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यावती) यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप् पा० ५।२।३९। इति यत्-वतुप्। ङीप्। आ सर्वनाम्नः। पा० ६।३।९१। इति आत्वम्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। यावत्यौ। यावत्परिमाणयुक्ते (द्यावापृथिवी) पूर्वसवर्णदीर्घः। सूर्यपृथिव्यौ (वरिम्णा) पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा। पा० ५।१।१२२। इति उरु-इमनिच्। प्रियस्थिर०। पा० ६।४।१५७। इति वर् आदेशः। उरुत्वेन। विस्तारेण (सप्त) सप्यशुभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समावये, यद्वा, सृल्पृ गतौ कनिन्। तुट् च, ऋकारस्य अकारः। सप्तपुत्रं सप्तमपुत्रं सर्पणपुत्रमति वा सप्त सृप्ता सङ्ख्या सप्तादित्यरश्मय इति निरु० ४।२६। जीवेन सह समवेताः सर्पणा गमनशीला वा सप्तसङ्ख्याका वा (सिन्धवः) अ० ४।३।१। स्यन्दनशीलानि नदीरूपाणि शीर्षण्यानि कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखानि-व्याख्यातम्। अ० २।१२।७। (वितष्ठिरे) ष्ठा गतिनिवृत्तौ-लिट्। समवप्रविभ्यः स्थः। पा–० १।३।२२। इति आत्मनेपदम्। विस्तारेण स्थिताः (वाचम्) वाणीम् (दूषणीम्) दुष वैकृते-ण्यन्तात् ल्युट्। ङीप्। नाशनीम् (ताम्) तादृशीम् (इतः) अस्माद् देशात् (निः अवादिषम्) वद वाक्ये-लुङ्। वदव्रजहलन्तस्याचः। पा० ७।२।३। इति वृद्धिः। अहं निर्गमय्य उच्चारितवानस्मि ॥

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