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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भृगुः देवता - त्रैककुदाञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
    139

    एहि॑ जी॒वं त्राय॑माणं॒ पर्व॑तस्या॒स्यक्ष्य॑म्। विश्वे॑भिर्दे॒वैर्द॒त्तं प॑रि॒धिर्जीव॑नाय॒ कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒हि॒ । जी॒वम् । त्राय॑माणम् । पर्व॑तस्य । अ॒सि॒ । अक्ष्य॑म् । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । द॒त्तम् । प॒रि॒ऽधि: । जीव॑नाय । कम् ॥९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एहि जीवं त्रायमाणं पर्वतस्यास्यक्ष्यम्। विश्वेभिर्देवैर्दत्तं परिधिर्जीवनाय कम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इहि । जीवम् । त्रायमाणम् । पर्वतस्य । असि । अक्ष्यम् । विश्वेभि: । देवै: । दत्तम् । परिऽधि: । जीवनाय । कम् ॥९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (एहि) आ। (जीवम्) जीव को (त्रायमाणम्) पालता हुआ, (पर्वतस्य) पूर्ति करनेवाले वा अवयवोंवाले मेघ के (अक्ष्यम्) व्यवहार के लिये हितकारक, (विश्वेभिः) सब (देवैः) दिव्य गुणों के साथ (दत्तम्) दिया हुआ (कम्) तू सुखस्वरूप ब्रह्म (जीवनाय) हमारे जीवन के लिये (परिधिः) परकोटा रूप (असि) है ॥१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर मेघ के समान जगत् की रक्षा करनेवाला हमारे हृदयों में विराजमान होकर हमारा प्राणाधार है, ऐसा समझ कर हम पुरुषार्थ के साथ सुख प्राप्त करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(एहि) आगच्छ (जीवम्) इगुपधज्ञा०। पा० ३।१।१३५। इति जीव प्राणधारणे-क। जीवति प्राणयतीति जीवः। प्राणिनम्। आत्मानम् (त्रायमाणम्) त्रैङ् पालने-शानच्। पालयन् (पर्वतस्य) भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे-अतच्। यद्वा। पर्वतो मेघः-निघ० १।१०। पर्वमरुद्भ्यां तन् वक्तव्यः। वा० पा० ५।२।१२२। इति पर्वन्-मत्वर्थे तन्। पर्ववान् पर्वतः पर्व पुनः पृणातेः प्रीणातेर्वा। निरु० १।२०। इष्टपूरकस्य यद्वा अवयवयुक्तस्य मेघस्य (असि) भवसि (अक्ष्यम्) अशेर्देवने। उ० ३।६५। इति अशू व्याप्तौ-स। अक्षो व्यवहारः। अक्ष-यत्। अक्षाय व्यवहाराय हितम् (विश्वेभिः) सर्वैः (देवैः) दिव्यगुणैः सह (दत्तम्) हृदये समर्पितम् (परिधिः) उपसर्गे घोः किः। पा० ३।३।९२। इति परि+धाञ्-कि। परितो धीयते परिधिः प्राकारः (जीवनाय) चिरकालजीवनार्थम् (कम्) कच दीप्तौ-ड। सुखस्वरूपं ब्रह्म ॥

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    विषय

    जीवनाय परिधिः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (त्रायमाणं जीवम्) = वासनाओं व रोगों के आक्रमण से अपनी रक्षा करनेवाले जीव को (एहि) = प्राप्त होओ। आप (पर्वतस्य) = अपना पूरण करनेवाले-अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले पुरुष की (अक्ष्यम् असि) = उत्तम चक्षु हैं। हृदयस्थरूपेण आप ही उसे मार्ग दर्शन कराते हैं। २. आप (विश्वेभिः देवैः दत्तम्) = सब दिव्य गुणों के द्वारा दिये गये (जीवनाय) = जीवन के लिए (परिधिः) = प्राकार हैं-मृत्यु को हम तक न पहुँचने देने के लिए आप परिधि होते हैं, इसप्रकार (कम्) = हमारे सुख का साधन बनते हैं। मृत्यु से बचाने के लिए प्रभु हमारे प्राकार बनते हैं, परन्तु प्रभु हमें प्राप्त तो तभी होते हैं जब हम दिव्य गुणों को धारण करने के लिए यत्नशील होते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु अपने रक्षण में प्रवृत्त पुरुष को प्राप्त होते हैं। अपना पूरण करनेवालों के ये मार्गदर्शक हैं। दिव्य गुणों को धारण करने से प्राप्त होते हैं। हमारे जीवन के लिए-मृत्यु को हम तक न आने देने के लिए ये प्राकार होते हैं।

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    भाषार्थ

    [हे आञ्जन !] (जीवम्) जीवित मनुष्य की ओर (एहि) आ, उसे तू प्राप्त हो, (पर्वतस्य) तु पर्वत-सम्बन्धी है, (अक्ष्यम्) अक्षिरोग के लिए हितकर है, (त्रायमाणम्) तू अक्षि का त्राण करता है, (विश्वेभिः देवैः१) विविध प्राकृतिक दिव्य तत्वों द्वारा (दत्तं) तू दिया गया है, (जीवनाय) जीवन के लिए तू (कम्) सुखदायक (परिधि२) परिधि है, चारों ओर स्थित घेरारूप है, प्राकार है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ७ में आञ्जन को 'पुरुष' शब्द द्वारा सम्बोधित किया है, अतः सूक्त के मन्त्रों में चेतना-तत्व का भी वर्णन प्रतीत होता है। बह है ब्रह्म-पुरुष। ब्रह्म-पूरुष आञ्जन है, संसार की अभिव्यक्ति करता है, और अक्षिगत रोग अर्थात् दृष्टि रोग को शान्त करता है, दृष्टि को अवाञ्छनीय विषयों की ओर जाने से रोकता है। अञ्जन है, सुरमा। आँख में लगाया जाता है।] [१. देवकोटि के योगियों द्वारा ही व्राह्मीरुचि: अर्थात् ब्रह्ममम्बन्धी साक्षात्काररूपी ज्योतिः प्रदत्त होती है। या पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रचाय ब्राह्मये"; "रुचं बाह्म जनयन्तो देवाऽअग्रे तदब्रुवन्" (यजुः० ३१।२०,२१)।] [२. वह ब्रह्म ही जीवन के लिए सुखदायक प्रतिरूप है। यथा "यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम्" (अथर्व० ८।२।२५)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Anjana, Refinement

    Meaning

    This is a hymn in praise of ‘anjana’, collyrium, literally speaking. But all the mantras cannot be properly understood in the literal sense: for example, “it is a good protective for horses and cows” makes no sense. Hence anjana has to be interpreted in an extended sense. ‘Anjana’ is a substantive from the root ‘anj’ which means ‘to make clear, to refine, decorate, beautify, to complete, fulfil’. So ‘anjana’ is to be interpreted in the sense of something that beautifies the body, refines the mind and elevates the soul: beauty aids, manners and culture, knowledge and spirituality. Come Anjana, protective grace of life, beauty of the eye, gift of the clouds and mountain of veteran heights, given by all brilliancies of nature and humanity, beatific perfection at the borders of life’s possibilities.

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    Subject

    Traikakudañjanam - Ointment

    Translation

    May you come to save the living being. You are of the (Trikakut) mountain, beneficial to the eyes and the other sense organs. You have been bestowed by all the bounties of Nature as a protective enclosure for a happy life.

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    Translation

    This Anjanam, the eye ointment is obtained from mountain and it is the useful curative for eyes. Giving protection to life this eye balm is a gift bestowed upon mankind by all the physical forces and it is a happy protection to man like wall or fence.

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    Translation

    Just as antimony derived from the mountain is useful to the eyes, and helpful in the protection of life, so, O all illuminating knowledge, thou, protecting the soul, emanating from the Almighty God, serves as a benefactor to the soul like light to the eye. All learned Persons have preached thee to human beings. Thou art the defence that guardeth life!

    Footnote

    Knowledge is the protector of the soul, and guardian of life, as antimony is the protector of our eyes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(एहि) आगच्छ (जीवम्) इगुपधज्ञा०। पा० ३।१।१३५। इति जीव प्राणधारणे-क। जीवति प्राणयतीति जीवः। प्राणिनम्। आत्मानम् (त्रायमाणम्) त्रैङ् पालने-शानच्। पालयन् (पर्वतस्य) भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे-अतच्। यद्वा। पर्वतो मेघः-निघ० १।१०। पर्वमरुद्भ्यां तन् वक्तव्यः। वा० पा० ५।२।१२२। इति पर्वन्-मत्वर्थे तन्। पर्ववान् पर्वतः पर्व पुनः पृणातेः प्रीणातेर्वा। निरु० १।२०। इष्टपूरकस्य यद्वा अवयवयुक्तस्य मेघस्य (असि) भवसि (अक्ष्यम्) अशेर्देवने। उ० ३।६५। इति अशू व्याप्तौ-स। अक्षो व्यवहारः। अक्ष-यत्। अक्षाय व्यवहाराय हितम् (विश्वेभिः) सर्वैः (देवैः) दिव्यगुणैः सह (दत्तम्) हृदये समर्पितम् (परिधिः) उपसर्गे घोः किः। पा० ३।३।९२। इति परि+धाञ्-कि। परितो धीयते परिधिः प्राकारः (जीवनाय) चिरकालजीवनार्थम् (कम्) कच दीप्तौ-ड। सुखस्वरूपं ब्रह्म ॥

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