अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः
छन्दः - यवमध्याककुप्
सूक्तम् - आत्मा रक्षा सूक्त
48
अ॑श्मव॒र्म मे॑ऽसि॒ यो मा॑ दि॒शाम॑न्तर्दे॒शेभ्यो॑ऽघा॒युर॑भि॒दासा॑त्। ए॒तत्स ऋ॑च्छात् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्म॒ऽव॒र्म । मे॒ । अ॒सि॒ । य: । मा॒ । दि॒शाम् । अ॒न्त॒:ऽदे॒शेभ्य॑: । अ॒घ॒ऽयु: । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । ए॒तत् । स: । ऋ॒च्छा॒त् ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्मवर्म मेऽसि यो मा दिशामन्तर्देशेभ्योऽघायुरभिदासात्। एतत्स ऋच्छात् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्मऽवर्म । मे । असि । य: । मा । दिशाम् । अन्त:ऽदेशेभ्य: । अघऽयु: । अभिऽदासात् । एतत् । स: । ऋच्छात् ॥१०.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की उत्तमता का उपदेश।
पदार्थ
[हे ब्रह्म !] (मे) मेरे लिये तू (अश्मवर्म) पत्थर के घर [के समान दृढ़] (असि) है। (यः) जो (अघायुः) बुरा चीतनेवाला मनुष्य (दिशाम्) दिशाओं के (अन्तर्देशेभ्यः) मध्यदेशों से (मा) मुझ पर (अभिदासात्) चढ़ाई करे, (सः) वह दुष्ट (एतत्) व्यापक दुःख (ऋच्छात्) पावे ॥७॥
भावार्थ
मन्त्र १। के समान ॥७॥
टिप्पणी
७−(दिशाम्) दिशानाम् (अन्तर्देशेभ्यः) अन्तरालेभ्यः ॥
विषय
अघायु से किया गया अघ उसे ही प्राप्त हो
पदार्थ
१. साधक कहता है कि हे ब्रह्म [प्रभो]! आप मे-मेरे अश्मवर्म असि-पत्थर के [सुदढ़] कवच हैं-बह्मवर्म ममान्तरम्। आपसे रक्षित मा-मुझे यः-जो अघायु:-अघ-[अशुभ, पाप] की कामनावाला प्राच्या: दिश:-पूर्व दिशा की ओर से, दक्षिणायाः दिश:-दक्षिण दिशा की ओर से, प्रतीच्याः दिश:-पश्चिम दिशा की ओर से उदीच्या: दिश: उत्तर दिशा की और से, धवाया: दिश:-धूवा दिशा की ओर से, ऊर्खाया: दिश:-ऊवा दिक की ओर से तथा दिशाम अन्तर्देशेभ्य:-दिशाओं के अन्तर्देशों से अभिदासात्-आक्रमण करके उपक्षीण करना चाहता है, एतत्-इस अघ को-इस उपक्षय को सः ऋच्छात्-वह स्वयं प्राप्त हो। २. हमारे ब्रह्म-कवच से टकराकर यह अघ उस अघायु को ही पुन: प्राप्त हो। यह अघायु हमें हानि न पहुँचा सके। उसके क्रोध को हम अक्रोध से जीतनेवाले बनें, उसके आकाशों को कुशल शब्दों से पराजित करनेवाले हों।
भावार्थ
हम ब्रह्म को अपना कवच बनाकर चलें। उस समय जो कोई भी अघायु पुरुष हमारे प्रति पाप करेगा, वह पाप लौटकर उसे ही व्यथित करेगा।
भाषार्थ
[हे ब्रह्म !] (अश्मवर्म) पत्थर के सदृश सुदृढ़ कवच, (मे ) मेरे लिए, (असि) तू है, (य:) जो (अघायु: ) अघायु ( दिशाम् ) दिशाओं के (अन्तर्देशेभ्यः) अवान्तर अर्थात् मध्यवर्ती प्रदेशों से (मा) मेरा उपक्षय करे (स:) वह (एतत्) इस ब्रह्मरूपी कवच को (ऋच्छत्) प्राप्त हो। अवान्तर प्रदेश= दो दिशाओं के मध्यवर्ती प्रदेश, अर्थात् उपदिशाएँ।
विषय
मन को दृढ़ करने का उपाय।
भावार्थ
इसी प्रकार हे मेरे मन ! तू ही दृढ़ होकर (अश्मवर्म मे असि) मेरे लिये शिला सम दृढ़ अभेद्य कवच के समान है, (दक्षिणायाः दिशः) दक्षिण दिशा से या दायें से, (प्रतीच्याः दिशः) पश्चिम से या पीछे से, (उदीच्याः दिशः) उत्तर दिशा से या वायें से, (ध्रुवायाः दिशः) पृथ्वी की ओर से या नीचे से, या (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊपर की दिशा से, (दिशाम् अन्तर्देशेभ्यः) दिशाओं के बीच के भागों से, (यः अघायुः अभिदासात्) जो पापाचारी दुष्ट पुरुष मेरा विनाश करने का यत्न करे (एतत् स ऋच्छात्) वह इस प्रबल प्रहार को पावे, या वह इस प्रहार को खाकर पछड़ जाय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। वास्तोष्पतिर्देवता। १-६ यवमध्या त्रिपदा गायत्री। ७ यवमध्या ककुप्। पुरोधृतिद्व्यनुष्टुब्गर्भा पराष्टित्र्यवसाना चतुष्पदाति जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Strength of Mind and Soul
Meaning
O mind and soul, you are my total cover all round blest by Brahma Prajapati. Whoever or whatever the evil force that wants to attack from anywhere in all quarters of space and tries to subject me to slavery, let it encounter this cover, and perish.
Translation
You are my stone-hard armour. Whosoever wicked one assail me from the mid-regions (middle of the regions, corners - antardesa), let him have to face it.
Translation
This mind is the shield of stone for me against the offender who assails me from the intermediate points of the regions and let him encounter it.
Translation
O mind, thou art my armour of stone against the sinner who from points intermediate fights against me. May the enemy knock his head against that armour!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(दिशाम्) दिशानाम् (अन्तर्देशेभ्यः) अन्तरालेभ्यः ॥
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