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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
    26

    आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒ते उ॒पाके॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑। दि॒व्ये योष॑णे बृह॒ती सु॑रु॒क्मे अधि॒ श्रियं॑ शुक्र॒पिशं॒ दधा॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सु॒स्वय॑न्ती॒ इति॑ । य॒ज॒ते इति॑ । उ॒पाके॒ इति॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । स॒द॒ता॒म् । नि । योनौ॑ । दि॒व्ये इति॑ । योष॑ण॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । सु॒रु॒क्मे इति॑ सु॒ऽरु॒क्मे । अधि॑ । श्रिय॑म् । शु॒क्र॒ऽपिश॑म् । दधा॑ने॒ इति॑ ॥१२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सुष्वयन्ती यजते उपाके उषासानक्ता सदतां नि योनौ। दिव्ये योषणे बृहती सुरुक्मे अधि श्रियं शुक्रपिशं दधाने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सुस्वयन्ती इति । यजते इति । उपाके इति । उषसानक्ता । सदताम् । नि । योनौ । दिव्ये इति । योषण इति । बृहती इति । सुरुक्मे इति सुऽरुक्मे । अधि । श्रियम् । शुक्रऽपिशम् । दधाने इति ॥१२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुष्वयन्ती=सुसुअयन्त्यौ) अति सुन्दरता से चलती हुयी, (यञ्जते) संगति योग्य, (उपाके) पास पास रहनेवाली, (दिव्ये) दिव्य गुणवाली, (योपणे) सेवा योग्य, (बृहती) वृद्धि करनेवाली, (सुरुक्मे) सुन्दर शोभावाली, (शुक्रपिशम्) शुद्ध रूप युक्त (श्रियम्) सेवनीय श्री को (अधि) अधिक (दधाने) धारण करनेवाली (उषासानक्ता) रात और प्रभात वेलायें [दिन और रात] (योनौ) हमारे घर में (नि) नित्य (आ सदताम्) आवें ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य रात-दिन पुरुषार्थ करके विद्यारूपी और धनरूपी लक्ष्मी को अपने घरों में बढ़ावें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(सुष्वयन्ती) सु+सु+अय गतौ−शतृ, ङीप्। अत्यन्तं सुष्ठु अयन्त्यौ। आसुष्वयन्ती... सेष्मीयमाणे इति वा सुष्वापयन्त्याविति वा−निरु० ८।११। (यजते) यज−अतच्। यष्टव्ये। संगतव्ये (उपाके) उप+अक गतौ−पचाद्यच्। सन्निहिते−अन्तिकनाम−निघ० २।१६। (उषासानक्ता) उषः किच्च। उ० ४।२३४। इति उष दाहे−असि, यद्वा उच्छी विवासे वा वश कान्तौ−असि। उषाः कस्मादुच्छतीति सत्या रात्रेरपरः कालः−निरु० २।१८। नज व्रीडायाम् क्तः। नक्तं रात्रिः। उषाश्च नक्तं च द्वन्द्वे। उषासोषसः। पा० ६।३।३१। इति उषासादेशः। द्विवचनस्याकारः। अहोरात्रे (आसदताम्) आ सीदताम्। आगच्छताम् (नि) नित्यम् (योनौ) गृहे−निघ० ३।४। (दिव्ये) दिव्यस्वरूपे (योषणे) युष सेवने−ल्यु। सेव्ये (बृहती) महत्यौ (सुरुक्मे) सुरोचने (अधि) अधिकम् (श्रियम्) शोभां लक्ष्मीं वा (शुक्रपिशम्) पिश अवयवे−क्विप्। शुक्रपिशम्... शुक्रपेशसम्... शुक्रं शोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। पेश इति रूपनाम पिंशतेर्विपिशितं भवति−निरु० ८।११। शुद्धरूपयुक्ताम् (दधाने) धारयन्त्यौ ॥

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    विषय

    स्मयमान दिन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार इन्द्रियों के उत्तम होने पर हमारे (उषासानक्ता) = दिन व रात (आ सुष्वयन्ती) = सब प्रकार से स्मयमान होते हुए [स्मयते: निरुपसर्गात् मकारस्य वकार:]-खिलते हुए, अर्थात् शरीर, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से विकास को प्राप्त होते हुए, (यजते) = यज्ञशील होते हुए उपाके-[उप अक् गती] प्रभु के समीप उपस्थित होनेवाले (योनौ निसदताम्) = ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति-स्थान प्रभु में नम्रता से स्थित हों। हम दिन के प्रारम्भ और रात्रि के प्रारम्भ में प्रभु की उपासना करनेवाले बनें। यह उपासना ही हमारे सर्वतोमुखी विकास का कारण बनेगी। २. ये दिन-रात हमें (दिव्ये) = प्रकाश में स्थापित करनेवाले हों। ध्यान के बाद हम स्वाध्याय अवश्य करें। (योषणे) = स्वाध्याय के द्वारा ये दिन-रात हमें बुराइयों के अमिश्रण तथा अच्छाइयों से मिश्रित करनेवाले हों। इसप्रकार ये (बृहती) = हमारा वर्धन करनेवाले हों और (सुरुक्मे) = उत्तम सुवर्ण व कान्ति को प्राप्त करानेवाले हों। ये दिन-रात हममें (शुक्रपिशम्) = [पिश to shape] वीर्य के द्वारा जिसका निर्माण होता है, उस (श्रियम्) = शोभा को (अधिदधाने) = आधिक्येन धारण करनेवाले हों। वीर्य-रक्षा से ज्ञान-अग्नि की दीप्ति के द्वारा हमारा जीवन शक्ति-सम्पन्न बनता है।

    भावार्थ

    हमारे दिन-रात स्मयमान हों। ये दिन-रात यज्ञों में व्याप्त तथा प्रभु की उपासना में लगे हुए हमारी बुराइयों को दूर करते हुए तथा अच्छाइयों को प्राप्त कराते हुए हमें श्रीसम्पन्न करें।

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    भाषार्थ

    (आसुष्वयन्ती आ सुष्वयन्ती) सर्वत्र मानो हास करती हुई, हँसती हुई, (यजते) अग्निहोत्ररूपी यज्ञसम्पादन करती हुई, (उपाके) एक दूसरे के साथ मिलकर गति करती हुई (उपासानक्ते) उषा और रात्रि (योनौ) आकाशरूपी गृह में (नि सदताम्) स्थित हों (बृहती) महाकाय, (सुरुक्मे) उत्तम दीप्तिवालो या उत्तम आभूषणोंवाली, (दिव्ये योषणे) ये दो दिव्य स्त्रियां (शुक्र-पिशम् ) सफेद और पिशङ्ग (श्रियम् ) शोभा को (अधि दधाते) धारण करती हुई हों ।

    टिप्पणी

    [उषा और नक्ता [ रात्रि] मानो निजगृह अर्थात् आकाश में बैठी हुईं, प्रसन्नता से हंसती हैं। उषा निज प्रकाशरूपी हास कर रही है, नक्ता मानो रात्रि में चमकते तारागणों के रूप में हास कर रही है। उषा ने मानो निज सिर पर सूर्यरूपी चमकता आभूषण धारण किया हुआ है, और नक्ता ने चाँदरूपी आभूषण। उषा ने शुक्र अर्थात् शुक्ल वर्ण धारण किया हुआ है, नक्ता ने पिश अर्थात पिशङ्ग वर्ण । पिशङ्ग है मिश्रित वर्ण। रात्रि का अन्धकार तथा ताराओं की शुभ्र चमक और धब्वोंवाले चांद की चमक यह मिश्रितवर्ण है। जोकि नक्ता ने धारण किया हुआ है‌। योनिः गृहनाम (निरुक्त ३।४)। उषासानक्ता में 'उषासा' अर्थात 'उषापद' निज अर्थ के साथ-साथ 'दिन' का भी उपलक्षक है। उषा है दिन का प्रारम्भिक काल। तभी 'उपाके' पद सार्थक हो सकता है। उपाके= उपगते, परस्पर की समीपता को प्राप्त; उप (समीपता) +अक् गतौ ('कुटिलायाम्', भ्वादि ), यहाँ केवल गत्यर्थ अभिप्रेत है। उपासानक्ता परस्पर उपगत हैं। दिन की समाप्ति के होते ही उसके साथ रात्रि की उपगति हो जाती है, और रात्रि की समाप्ति के होते ही उसके साथ दिन की उपगति हो जाती है।]

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    विषय

    विद्वानों द्वारा आत्मा और ईश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    जमदग्नी रामो ऋषिः। अहोरात्रे देवते। (उषासानक्ता) दिन और रात जिस प्रकार परस्पर प्रेम से सदा एकत्र रह कर परस्पर शोभा धारण करते हुए, समीप रहते और एक ही स्थान सूर्य में आश्रित हैं उसी प्रकार पति और पत्नी दोनों दम्पति (दिव्ये योषणे) दिव्य गुणों से सम्पन्न, परस्पर प्रेम करते हुए, (बृहती) गुणों से महान् होकर, (सु-रुक्मे) सुन्दर कान्तिमान्, सुन्दर सुवर्ण के आभूषण धारण करते हुए, (शुक्रपिशं) क्रम से पतिपत्नी अपने शरीरों में वीर्य और रज की पुष्टता की (श्रियं) शोभा को धारण करते हुए (यजते उपाके) परस्पर संगत होकर रहने के स्थान में, समीप (आ सुष्वयन्ती) शयन करते हुए, जब २ जहां २ मिलें वहां २ परस्पर प्रसन्न मुख से मुस्कराते हुए, (योनी) एक ही गृह में (नि सदतां) निवास करें। गृहस्थ दम्पति के लिये यह उपदेश है। केवल रात दिन पर ‘निसदतां’ आदि क्रियापद संगत नहीं हैं, इसलिये उपमा-मुख से दम्पति का ग्रहण करना ही उचित है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna of Life

    Meaning

    Let the day and night, graciously associated together, both adorable, abiding by the sun, their common progenitor, be present and bless the home. Similarly, let the man and wife, both divine and youthful, broad at heart, holy and brilliant, bearing grace and creative sanctity, abide by the holiness of the home and family as the divine foundation of their togetherness in love.

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    Translation

    Let Dawn and Night (usasanaktà), dripping (susvayanti) worshipful, close, sit down here in the lair (yoni) - the two heavenly, great, well-shining women, putting on beauty (Sri) with bright adornment. (usasà-nakta) (Also.YV. XXIX.31 )

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    Translation

    Let rise and set at their stations the night and morning which playing their part pleasantly remain close to each other, which are united with each other, celestial lofty, favor giving splendorous and which assume all their fair and radiant beauty.

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    Translation

    O learned person, acquire prosperity by properly using day and night, that move continuously in the wheel of time, each close to each, seated at their stations, assuming light and darkness, lofty, fair and radiant beauty like two women!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(सुष्वयन्ती) सु+सु+अय गतौ−शतृ, ङीप्। अत्यन्तं सुष्ठु अयन्त्यौ। आसुष्वयन्ती... सेष्मीयमाणे इति वा सुष्वापयन्त्याविति वा−निरु० ८।११। (यजते) यज−अतच्। यष्टव्ये। संगतव्ये (उपाके) उप+अक गतौ−पचाद्यच्। सन्निहिते−अन्तिकनाम−निघ० २।१६। (उषासानक्ता) उषः किच्च। उ० ४।२३४। इति उष दाहे−असि, यद्वा उच्छी विवासे वा वश कान्तौ−असि। उषाः कस्मादुच्छतीति सत्या रात्रेरपरः कालः−निरु० २।१८। नज व्रीडायाम् क्तः। नक्तं रात्रिः। उषाश्च नक्तं च द्वन्द्वे। उषासोषसः। पा० ६।३।३१। इति उषासादेशः। द्विवचनस्याकारः। अहोरात्रे (आसदताम्) आ सीदताम्। आगच्छताम् (नि) नित्यम् (योनौ) गृहे−निघ० ३।४। (दिव्ये) दिव्यस्वरूपे (योषणे) युष सेवने−ल्यु। सेव्ये (बृहती) महत्यौ (सुरुक्मे) सुरोचने (अधि) अधिकम् (श्रियम्) शोभां लक्ष्मीं वा (शुक्रपिशम्) पिश अवयवे−क्विप्। शुक्रपिशम्... शुक्रपेशसम्... शुक्रं शोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। पेश इति रूपनाम पिंशतेर्विपिशितं भवति−निरु० ८।११। शुद्धरूपयुक्ताम् (दधाने) धारयन्त्यौ ॥

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