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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - योनिः, गर्भः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भाधान सूक्त
    162

    पर्व॑ताद्दि॒वो योने॒रङ्गा॑दङ्गात्स॒माभृ॑तम्। शेपो॒ गर्भ॑स्य रेतो॒धाः सरौ॑ प॒र्णमि॒वा द॑धत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पर्व॑तात् । दि॒व: । योने॑: । अङ्गा॑त्ऽअङ्गात् । स॒म्ऽआभृ॑तम् । शेप॑: । गर्भ॑स्य । रे॒त॒:ऽधा । सरौ॑ । प॒र्णम्ऽइ॑व । आ । द॒ध॒त् ॥२५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्वताद्दिवो योनेरङ्गादङ्गात्समाभृतम्। शेपो गर्भस्य रेतोधाः सरौ पर्णमिवा दधत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पर्वतात् । दिव: । योने: । अङ्गात्ऽअङ्गात् । सम्ऽआभृतम् । शेप: । गर्भस्य । रेत:ऽधा । सरौ । पर्णम्ऽइव । आ । दधत् ॥२५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गर्भाधान का उपदेश।

    पदार्थ

    (रेतोधाः) वीर्य वा पराक्रम का रखनेवाला पुरुष (पर्वतात्) पर्वत से [पर्वत आदि की ओषधियों से], (दिवः) आकाश के (योनेः) गर्भ आशय से [आकाशस्थ मेघ, वायु, प्रकाश आदि से] और (अङ्गात्-अङ्गात्) अपने अङ्ग से (समाभृतम्) एकत्र किया हुआ (गर्भस्य) स्तुतियोग्य सन्तान के (शेपः) उत्पन्न करने के सामर्थ्य को (आ) यथावत् (दधत्) स्थापित करे, (पर्णम् इव) जैसे पंख को (सरौ) तीर में [लगाते हैं] ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य ब्रह्मचर्य और औषधों के परीक्षण और सेवन से दृढाङ्ग रह कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके उत्तम बलवान् संतान उत्पन्न करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(पर्वतात्) अ० ४।९।१। शैलात्। तत्रस्थौषधिसमूहात् (दिवः) आकाशस्य (योनेः) गर्भाशयात्। आकाशस्थवायुजलप्रकाशादिप्रभावात् (अङ्गादङ्गात्) सर्वस्मात् स्वशरीराङ्गात् (समाभृतम्) संगृहीतम् (शेपः) अ० ४।३७।७। प्रजननसामर्थ्यम् (गर्भस्य) अ० ३।१०।१२। गरणीयस्य स्तुत्यस्य सन्तानस्य (रेतोधाः) रेतस्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−असुन्। वीर्यस्य पराक्रमस्य धारकः (सरौ) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति सृ गतौ−उन्। शरौ। शरे (पर्णम्) पक्षम् (इव) यथा (आ) समन्तात् (दधत्) लेटि रूपम्। धरेत् ॥

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    विषय

    पर्वतात् दिवः, अङ्गात् अङ्गात्

    पदार्थ

    १. (पर्वतात्) = मेरु-पर्वत-मेरुदण्ड-रोढ़ की हड्डी से (दिवः) = मस्तिष्करूप द्युलोक से (योने:) = शरीर के (अङ्गात् अङ्गात्) = एक-एक अङ्ग से (समाभृतम्) = सम्यक् आभृत किये हुए (शेपः) = वीर्य सामर्थ्य को, शरीर को शेप [आकार] देनेवाले वीर्य को (गर्भस्य रेतोधा:) = गर्भ के मूलभूत बीज का स्थापन करनेवाला पुरुष (आदधत्) = गर्भाशय में इसप्रकार आहित करता है, (इव) = जैसेकि (सरौ पर्णम्) = तीर में पड़ को स्थापित करते हैं। पल के आधान से तीर की गति तीव्र हो जाती है। इसीप्रकार वीर्य के आधान से गर्भाश्य में शरीर-निर्माण की गति आरम्भ हो जाती है।

    भावार्थ

    पुरुष के अङ्ग-प्रत्यङ्ग से समाभूत वीर्य सन्तान के शरीर का निर्माण करता है। इसी से सन्तान माता-पिता के अनुरूप आकृति व स्वभाववाली बनती है।

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    भाषार्थ

    (पर्वतात्) पर्वत [की ओषधियों] से, (दिवः योनेः) द्युलोक की योनिरूप परमेश्वर [की कृपा] से, (अङ्गात्, अङ्गात्) शरीर के अङ्ग-अङ्ग से (समाभृतम् =समाहृतम्) एकत्रित हुए, (गर्भस्य रेतोधाः) गर्भ सम्बन्धी रेतस् अर्थात् वीर्य का आधान करनेवाला, (शेप:) लिङ्गेन्द्रिय१, (आ दधतु) [मातृयोनि में] वीर्याधान करे, (इव) जैसेकि [धनुर्धारी], (सरौ) सरण करनेवाले इषु में ( पर्णम् ) पंख का (आ दधत्) आधान करता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्रपदों में वर्णनीय वस्तु का संकेत ही हुआ है, जिसका स्पष्ट वर्णन मन्त्र के भाष्य में कर दिया है। परमेश्वर द्युलोक की योनि अर्थात् कारण है। जैसे वह ऋग्वेदादि शास्त्र की योनि है ('शास्त्रयोनित्वात् वेदान्तशास्त्र १.१.३), वैसे वह द्युलोक की भी योनि है।] [१. उत्पन्न रेतस् का प्रथम धारण लिङ्गेन्द्रिय में होता है, तत्पश्चात् तद्द्वारा मातृयोनि में।]

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    विषय

    गर्भाशय में वीर्यस्थापन का उपदेश।

    भावार्थ

    गर्भाधान के अवसर में वीर्यस्थापन का उपदेश करते हैं। (पर्वतात्) मेघ से जिस प्रकार स्थान २ से जल बरसता है या जिस प्रकार पर्वत से रिस कर स्रोत प्रवाहित होता है, (दिवः) कारणभूत सूर्य से जिस प्रकार तेज निकलता है उसी प्रकार (योनेः) शरीर के (अङ्गात् अङ्गात्) प्रत्येक अंग से (सम् आभृतम्) लाकर एकत्र किये गये (शेपः) वीर्य सामर्थ्य को (गर्भस्य) गर्भ का (रेतोधाः) मूलभूत बीज का स्थापन करने वाला पुरुष (आदधत्) गर्भाशय में इस प्रकार आधान करे जैसे (सरौ पर्णम् इव) आकाश में पर्ण = सूर्य को ईश्वर ने स्थापन किया है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। योनिगर्भो देवता। १-१२ अनुष्टुभः। १३ विराट् पुरस्ताद् बृहती। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Garbhadhanam

    Meaning

    Distilled from the mountain and the cloud, from the sun and the fertility of nature, collected from every cell of the body is the seed of life. The valiant bearer of this seed of life deposits it in the womb as the lord creator places the sun in space.

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    Subject

    Yoni, Garbha and Earth etc.

    Translation

    Brought from the mountain (or from clouds), from the womb of the sky, and from each and every part of the body, the germ of an embryo is laid by the male organ just like a feather on an arrow. [Cloud and mountain both)

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    Translation

    The phallus of man which sows the seminal fluid, lays in the female organ, as feather on a shaft, the steed of embryo which is drawn from limb to limb and from cloud and heavenly region.

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    Translation

    Let an able-bodied man, use for producing laudable progeny, his power of procreation, culled from mountainous medicines, from the cloud, air and light of the atmosphere, and from each of his limbs, like a feather in the flowing water.

    Footnote

    Just as a feather flows peacefully and calmly in a rivulet, so should the semen of a strong person establish itself peacefully and calmly in the womb to ensure conception.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(पर्वतात्) अ० ४।९।१। शैलात्। तत्रस्थौषधिसमूहात् (दिवः) आकाशस्य (योनेः) गर्भाशयात्। आकाशस्थवायुजलप्रकाशादिप्रभावात् (अङ्गादङ्गात्) सर्वस्मात् स्वशरीराङ्गात् (समाभृतम्) संगृहीतम् (शेपः) अ० ४।३७।७। प्रजननसामर्थ्यम् (गर्भस्य) अ० ३।१०।१२। गरणीयस्य स्तुत्यस्य सन्तानस्य (रेतोधाः) रेतस्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−असुन्। वीर्यस्य पराक्रमस्य धारकः (सरौ) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति सृ गतौ−उन्। शरौ। शरे (पर्णम्) पक्षम् (इव) यथा (आ) समन्तात् (दधत्) लेटि रूपम्। धरेत् ॥

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