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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 10
    ऋषिः - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
    42

    क्र॒व्याद॑मग्ने रुधि॒रं पि॑शा॒चं म॑नो॒हनं॑ जहि जातवेदः। तमिन्द्रो॑ वा॒जी वज्रे॑ण हन्तु छि॒नत्तु॒ सोमः॒ शिरो॑ अस्य धृ॒ष्णुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्र॒व्य॒ऽअद॑म्। अ॒ग्ने॒ । रु॒धि॒रम् । पि॒शा॒चम् । म॒न॒:ऽहन॑म् । ज॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तम् । इन्द्र॑: । वा॒जी । वज्रे॑ण । ह॒न्तु॒ । छि॒नत्तु॑ । सोम॑: । शिर॑: । अ॒स्य॒ । धृ॒ष्णु: ॥२९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रव्यादमग्ने रुधिरं पिशाचं मनोहनं जहि जातवेदः। तमिन्द्रो वाजी वज्रेण हन्तु छिनत्तु सोमः शिरो अस्य धृष्णुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रव्यऽअदम्। अग्ने । रुधिरम् । पिशाचम् । मन:ऽहनम् । जहि । जातऽवेद: । तम् । इन्द्र: । वाजी । वज्रेण । हन्तु । छिनत्तु । सोम: । शिर: । अस्य । धृष्णु: ॥२९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे विद्या में प्रसिद्ध (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (क्रव्यादम्) मांस खानेवाले, (रुधिरम्) रोकनेवाले और (मनोहनम्) मन बिगाड़ देनेवाले (पिशाचम्) राक्षस को (जहि) मार डाल। (तम्) उसको (वाजी) पराक्रमी (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाले आप (वज्रेण) वज्र से (हन्तु) मारें, और (धृष्णुः) निर्भय (सोमः) प्रतापी आप (अस्य) इसका (शिरः) शिर (छिनत्तु) काटें ॥१०॥

    भावार्थ

    नीतिज्ञ राजा पराक्रम करके शत्रुओं को मारकर प्रजा को पाले ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (अग्ने) विद्वन् (रुधिरम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।५१। इति रुधिर् आवरणे−किरच्। निरोधकम् (पिशाचम्) म० ६। राक्षसम् (मनोहनम्) चित्तहर्षहन्तारम् (जहि) नाशय (जातवेदः) हे प्रसिद्धविद्य ! (तम्) पिशाचम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् भवान् (वाजी) पराक्रमी (वज्रेण) शस्त्रेण (हन्तु) मारयतु (छिनत्तु) भिनत्तु (सोमः) प्रतापी भवान् (शिरः) मस्तकम् (अस्य) पिशाचस्य (धृष्णुः) आ० १।१३।४। निर्भयः ॥

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    विषय

    क्रव्याद, रुधिरं, मनोहनम्

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः अग्ने) = ज्ञानी अग्नणी वैद्य ! (क्रव्यादम्) = मांस को खा जानेवाले, (रुधिरम्) = रक्त संचारण में रुकावट पैदा करनेवाले, (मनोहनम्) = मन को बिगाड़ देनेवाले (पिशाचम) = रोगकृमि को (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष ( वाजी) = शक्तिशाली होता हुआ (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूपी वत्र से हन्तु नष्ट कर दे। 'जितेन्द्रियता, शक्ति व क्रियाशीलता' रोगकृमियों के विनाश के साधन हैं। शरीर में सुरक्षित (सोमः) = वीर्य (अस्य) = इस रोगकृमि के (शिरः च्छिनत्तु) = सिर को काट डाले। यह सोम (धृष्णु:) = रोगरूप शत्रुओं को धर्षण करनेवाला हो।

    भावार्थ

    वैद्य औषध-प्रयोग से उन कृमियों का विनाश करे जो मांस खा जानेवाले, रुधिराभिसरण में रुकावट पैदा करनेवाले व मन पर उदासी लानेवाले हैं। हम जितेन्द्रिय व क्रियाशील बनकर सोम-रक्षण करते हुए इन रोगों का विनाश कर दें।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः अग्ने) हे जातप्रज्ञ, अग्निनामक परमेश्वर ! (रुधिरम्) स्वास्थ्यनिरोधक, (मनोहनम्) मन का हनन करनेवाले विचार शक्ति का हनन करनेवाले, (क्रव्यादम्) कच्चे मांस का भक्षण करनेवाले, (पिशाचम् ) मांस-भक्षक रोग-जीवाणु का (जहि) हनन कर । (तम् ) उसे ( वाजी ) बलशाली (इन्द्रः) इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीवात्मा (वज्रेण) आत्मिक बलरूपी वज्र द्वारा (हन्तु) नष्ट करे, (सोमः ) वीर्यशक्ति (धृष्णुः) जोकि धर्षण अर्थात् रोग-जीवाणुओं का पराभव करनेवाली है, (अस्य) इस जीवाणु के (शिरः) सिर को (छिनत्तु) काट दे, छिन्न-भिन्न कर दे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में आध्यात्मिक शक्तियों का वर्णन है जोकि रोग-जीवाणुओं का हनन करती हैं। अग्नि=परमेश्वर (यजु:० ३२।१)। सोमः= वीर्यं (अथर्व० १४।१।१-५)। शिरः= पुरुषविधवर्णन मन्त्र ४। रुधिरम् = रुधिर् आवरणे (रुधादिः) आवरकम्, निरोधकम्, जोकि जीवनीय शक्तियों को निरुद्ध कर देता है।]

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    विषय

    रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) ज्ञानी (अग्ने) तथा ज्ञान से प्रकाशित वैद्य (क्रव्यादम्) कच्चे मांस के आहारी, (रुधिरम्) रक्त में फैलने वाले, (पिशाचं) मांस में जमे हुए और (मनः-हनं) रोगी के चित्त को या मननशक्ति पर आघात पहुंचाने वाले अपस्मार, उन्माद और मदकारी रोग को (जहि) तू विनाश कर। उस रोग को (इन्द्रः) रोग का विनाशक, (वाजी) बलवान्, शक्तिमान् होकर (वज्रेण) अपने रोग विनाशक बल से (हन्तु) मार दे और (सोमः) सोम या ओषधि का सूक्ष्म अंश (धृष्णुः) व्यस्थित होकर, शरीर में चिरकालिक प्रभाव करके (अस्य) इन रोगकारी मूल कीटों के (शिरः) शिर = हिंसाकारी प्रभाव को (छिनत्तु) काट दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs and Insects

    Meaning

    Agni, Jataveda, whatever the life threatening insect and germ, whether in the flesh or in blood or mind damaging, destroy that. Let Indra, energy treatment, destroy that with strike of the current of adequate degree. Let Soma, regenerative sanative of irresistible power, break the head of the damager.

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    Translation

    O biological fire, knowing all the born organisms, may you kill the flesh-eating, red blood-sucker, that destroys willpower. May the mighty resplendent Lord slay it with thunderbolt; may the courageous blissful Lord chop off its head.

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    Translation

    O most efficient man of learning! Kill the germ which eats flish, enters into the blood, makes its place in the flesh an hurt the mind of the patient. Let the powerful electricity slay it with lightning bolt and the highly curative medicinal plant be head it.

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    Translation

    O learned physician, slay the bloody germ, flesh-devourer, mind-destroyer. Let an able doctor strike him with his healing power, let an efficacious medicine cut his head to pieces!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (अग्ने) विद्वन् (रुधिरम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।५१। इति रुधिर् आवरणे−किरच्। निरोधकम् (पिशाचम्) म० ६। राक्षसम् (मनोहनम्) चित्तहर्षहन्तारम् (जहि) नाशय (जातवेदः) हे प्रसिद्धविद्य ! (तम्) पिशाचम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् भवान् (वाजी) पराक्रमी (वज्रेण) शस्त्रेण (हन्तु) मारयतु (छिनत्तु) भिनत्तु (सोमः) प्रतापी भवान् (शिरः) मस्तकम् (अस्य) पिशाचस्य (धृष्णुः) आ० १।१३।४। निर्भयः ॥

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