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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 11
    ऋषिः - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
    57

    स॒नाद॑ग्ने मृणसि यातु॒धाना॒न्न त्वा॒ रक्षां॑सि॒ पृत॑नासु जिग्युः। स॒हमू॑रा॒ननु॑ दह क्र॒व्यादो॒ मा ते॑ हे॒त्या मु॑क्षत॒ दैव्या॑याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒नात् । अ॒ग्ने॒ । मृ॒ण॒सि॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । न । त्वा॒ । रक्षां॑सि । पृत॑नासु । जि॒ग्यु॒: । स॒हऽमू॑रान् । अनु॑ । द॒ह॒ । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । मा । ते॒ । हे॒त्या: । मु॒क्ष॒त॒ । दैव्या॑या: ॥२९.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्युः। सहमूराननु दह क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनात् । अग्ने । मृणसि । यातुऽधानान् । न । त्वा । रक्षांसि । पृतनासु । जिग्यु: । सहऽमूरान् । अनु । दह । क्रव्यऽअद: । मा । ते । हेत्या: । मुक्षत । दैव्याया: ॥२९.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् [वा भौतिक अग्नि] तू (यातुधानान्) पीड़ा देने हारे [प्राणियों वा रोगों] को (सनात्) नित्य (मृणसि) नष्ट करता है, (रक्षांसि) उन राक्षसों ने (त्वा) तुझे (पृतनासु) संग्रामों में (न) नहीं (जिग्युः) जीता है। (सहमूरान्) समूल (क्रव्यादः) उन मांसभक्षकों को (अनु दह) भस्म करदे। (ते) तेरे (दैव्यायाः) दिव्य गुणवाले (हेत्याः) वज्र से (मा मुक्षत) वे न छूटें ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्यापूर्वक शारीरिक अग्नि अर्थात् बल को स्थिर रख कर अपने वैरियों और रोगों को उनके कारणों सहित नाश करे ॥११॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।८७।१९। और सामवेद पू० १।८।८। में है ॥

    टिप्पणी

    ११−(सनात्) चिरम्−निरु० १२।३६। नित्यम्−(अग्ने) विद्वन् भौतिक वा (मृणसि) नाशयसि (यातुधानान्) अ० १।७।१। पीडाप्रदान् प्राणिनो रोगान् वा (न) निषेधे (त्वा) त्वामग्निम् (रक्षांसि) राक्षसाः प्राणिनो रोगा वा (पृतनासु) अ० ३।२१।३। संग्रामेषु (जिग्युः) जि जये लिट्। जयं प्रापुः (सहमूरान्) मूलेन कारणेन सहितान् (अनु) अनुक्रमेण (दह) भस्मीकुरु (क्रव्यादः) मांसभक्षकान् (मा मुक्षत्) मुच्लृ मोक्षणे−लुङ्, अडभावो माङि। मुक्ता मा भूवन्। न मुक्ता भवन्तु ॥

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    विषय

    दैव्या हेति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी-हमें नीरोग बनाकर आगे ले-चलनेवाले वैद्य ! तू (यातुधानान्) = पीड़ा देनेवाले कृमियों को (सनात् मृणसि) = सदा नष्ट करता है। ये (रक्षांसि) = रोगकृमिरूप राक्षस (त्वा) = तुझे (पृतनासु न जिग्युः) =  संग्रामों में पराभूत नहीं कर पाते। तू उचित औषध द्वारा इनका विनाश कर देता है। २. इन (क्रव्यादः) = मांस खा जानेवाले कृमियों को (सहमूरान्) = मूलसहित (अनुदह) = जला दे। (ते) = तेरी (दैव्याया:) = रोगों को जीतने की कामना में उत्तम (हेत्या:) = औषधरूप वन से (मा मुक्षत) = यह रोग छूट न जाए।

    भावार्थ

    वैद्य रोगकृमियों को विनष्ट करे। रोगकृमियों के साथ संग्राम में वैद्य पराजित न हो। यह उन मांसभक्षक कृमियों को जड़ से उखाड़ दे। उसकी औषधरूप दैव्या हेति से कोई रोगकृमि छूट न जाए।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि! (सनात् ) सनातन काल से (यातुधानान्) यातनाओं के निधिभूत [ राक्षसों को] (मृणसि) तू मारता रहा है, ( पृतनासु) युद्धों में (रक्षांसि) राक्षसरूप शत्रु सैनिक (त्वा) तुझे (न जिग्यु:) नहीं जीत पाए। (क्रव्यादः) कच्चामांस खानेवाले राक्षसों को ( सहमूरान्) मूल सहित (अनु) निरन्तर (दह) तू दग्ध करता रह, (ते) तेरे (दैव्यायाः हेत्याः ) दिव्य-अस्त्र से (मा मुक्षत) वे छूट न पाएं ।

    टिप्पणी

    [अग्ने= राष्ट्र का अग्रणी प्रधानमन्त्री तथा यज्ञियाग्नि। मन्त्र में देवासुरसंग्राम भी अभिप्रेत हैं, तभी हेति को दैव्या कहा है।]

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    विषय

    रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! या तेजोरूप ! (सनात्) चिरकाल से, सदा से तू (यातु-धानान्) पीड़ाजनक रोगों को (मृणसि) विनाश करता है। (रक्षांसि) बाधा, विघ्नकारी जन्तु (त्वा) तुझको (पृतनासु) मनुष्यों में या संग्रामों में (न जिग्युः) न जीत पावें। इसलिये (क्रव्यादः) रोगी का कच्चा मांस खा डालने वाले रोगांशों को (सह-मूरान्) समूल वा विनाशक कारणों सहित (अनु-दह) जलादे। और (दैव्यायाः) दिव्य गुणयुक्त (ते हेत्याः) तेरे आघातकारी शक्तिरूप वज्र से (मा मुक्षत) वे छूट न जायं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs and Insects

    Meaning

    O Agni, physician, heat of fire, radiation of energy, you always destroy life-damaging elements of the environment. Negative forces never win against you in the battles of health and recovery. Pray burn up and destroy all life damaging insects and germs along with their roots and origin. Let none of them escape from the stroke of your life saving force.

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    Translation

    O biological fire, you have always been crushing the pain causing viruses; the germs cannot conquer you in struggles. May you burn the flesh-eaters down to their roots. May they not escape your divine weapon.

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    Translation

    O learned physician! you kill the troublesome disease-germs always, these germs cannot conquer you in your campaign. Burn these flisheating germs from the root and let one of them escape your powerful weapon.

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    Translation

    O fire, thou ever slayest the troublesome germs of diseases, these fiends have never conquered thee in struggles. Consume thou from the rootthe flesh-devourers, let none of them escape thy divine weapon!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सनात्) चिरम्−निरु० १२।३६। नित्यम्−(अग्ने) विद्वन् भौतिक वा (मृणसि) नाशयसि (यातुधानान्) अ० १।७।१। पीडाप्रदान् प्राणिनो रोगान् वा (न) निषेधे (त्वा) त्वामग्निम् (रक्षांसि) राक्षसाः प्राणिनो रोगा वा (पृतनासु) अ० ३।२१।३। संग्रामेषु (जिग्युः) जि जये लिट्। जयं प्रापुः (सहमूरान्) मूलेन कारणेन सहितान् (अनु) अनुक्रमेण (दह) भस्मीकुरु (क्रव्यादः) मांसभक्षकान् (मा मुक्षत्) मुच्लृ मोक्षणे−लुङ्, अडभावो माङि। मुक्ता मा भूवन्। न मुक्ता भवन्तु ॥

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