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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    ऋषिः - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
    58

    आ॒मे सुप॑क्वे श॒बले॒ विप॑क्वे॒ यो मा॑ पिशा॒चो अश॑ने द॒दम्भ॑। तदा॒त्मना॑ प्र॒जया॑ पिशा॒चा वि या॑तयन्तामग॒दोयम॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒मे । सुऽप॑क्वे । श॒बले॑ । विऽप॑क्वे । य: । मा॒ । पि॒शा॒च: । अश॑ने । द॒दम्भ॑ । तत् । आ॒त्मना॑ । प्र॒ऽजया॑ । पि॒शा॒चा: । वि । या॒त॒य॒न्ता॒म् । अ॒ग॒द: । अ॒यम् ।अ॒स्तु॒ ॥२९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आमे सुपक्वे शबले विपक्वे यो मा पिशाचो अशने ददम्भ। तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोयमस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आमे । सुऽपक्वे । शबले । विऽपक्वे । य: । मा । पिशाच: । अशने । ददम्भ । तत् । आत्मना । प्रऽजया । पिशाचा: । वि । यातयन्ताम् । अगद: । अयम् ।अस्तु ॥२९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिस (पिशाचः) पिशाच समूह ने (आमे) कच्चे, (सुपक्वे) अच्छे पक्के, (शबले) चितकबरे अथवा (विपक्वे) विविध प्रकार पके हुए (अशने) भोजन में (मा) मुझे (ददम्भ) धोखा दिया है। (तत्) उससे (पिशाचाः) वे मांसभक्षक (आत्मना) अपने जीव और (प्रजया) प्रजा के साथ (वि) विविध प्रकार (यातयन्ताम्) पीड़ा पावें, और (अयम्) यह पुरुष (अगदः) नीरोग (अस्तु) होवे ॥६॥

    भावार्थ

    भोजन आदि में कुवस्तु मिलानेवाले दुष्टों को दण्ड देकर प्रजा को स्वस्थ रखना चाहिये ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(आमे) अपक्वे (सुपक्वे) यथाविधि कृतपाके (शबले) शपेर्बश्च। उ० १।१०५। इति शप आक्रोशे−कल, पस्य बः। कर्बुरे (विपक्वे) विविधं पक्वे (यः) (मा) माम् (पिशाचः) मांसभक्षकः (अशने) भोजने (ददम्भ) वञ्चितवान् (तत्) तस्मात् (आत्मना) स्वजीवेन (प्रजया) पुत्रपौत्रादिना सह (पिशाचाः) मांसभक्षकाः (वि) विविधम् (यातयन्ताम्) यत ताडने, चुरादिः। यातनां तीव्रपीडां प्राप्नुवन्तु (अगदः) नीरोगः (अयम्) पुरुषः (अस्तु) भवतु ॥

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    विषय

    आमे सुपक्वे शबले विपक्वे

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (पिशाच:) = मांसभोजी रोग-जन्तु (आमे) = कच्चे, (सुपक्वे) = पक्के (शबले) = अधपके, (विपक्वे) = खूब पके (अश्ने) = भोजन में प्रविष्ट होकर (मा ददम्भ) = मुझे हिंसित करता है, (तत्) = वह पिशाच (आत्मना प्रजया) = स्वयं और अपनी सन्ततिसहित नष्ठ हो जाए। २. (पिशाचा:) = सब रोगजन्तु (वियातयन्ताम्) = नाना प्रकार से पीड़ा को प्राप्त हों और शरीर को छोड़ जाएँ। (अयं अगदः अस्तु) = यह पुरुष नीरोग हो जाए।

    भावार्थ

    जो रोगकृमि कच्चे-पक्के भोजनों में प्रविष्ट होकर हमारा हिंसन करते हैं, वे अपनी सन्तानोंसहित नष्ट हो जाएँ। इस रुग्ण पुरुष को वे पीड़ित न करें। यह नीरोग हो जाए।

     

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    भाषार्थ

    (आमे) कच्चे, (सुपक्वे) उत्तमपके, (शबले) अधपके, (विपक्वे) विशेषतया पके अर्थात् अधिक पके (अशने) भोजन में (य: पिशाच: ) जिस पिशाच ने (मा१ ददम्भ) मुझे हिंसित किया है, रुग्ण किया है, ( तत्) तो बह पिशाच अर्थात् रोग-जीवाणु (आत्मना ), निज स्वरूप से, (प्रजया ) निज सन्तानों से; [वियुक्त कर दिया जाए] (पिशाचाः) और वे सब इसके मांसभक्षक रोग-जीवाणु भी (वियातयन्ताम् ) वियुक्त कर दिये जाएँ, ताकि (अयम् ) यह रुग्ण भी (अगदः) रोगरहित (अस्तु) हो जाए [पुनः रुग्ण न हो सके।]

    टिप्पणी

    [ददम्भ= दभ्नोति वधकर्मा । (निघं० २।१९)। पिशाच:= पिशित अर्थात् मांस का भक्षक, रोग-जीवाणु। अभिप्राय यह कि ऋतु के अनुसार जो रोग-जीवाणु उत्पन्न होकर रोग का प्रसार करते हैं उनका बीजनाश कर देना चाहिए, ताकि वे पुनः उस रोग का प्रसार न कर सकें।] [१. 'मा' द्वारा रोगी का पिता या आचार्य प्रतीत होता है और 'अयम् द्वारा पुत्र या शिष्य-ब्रह्मचारी!]

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    विषय

    रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।

    भावार्थ

    (यः पिशाचः) जो पिशाच, मांसभोजी, रोगजन्तु (आमे) कच्चे, (सुपक्वे) पक्के, (शबले) कच्चे पक्के, (चिपकने) खूब पके (अशने) भोजन में (मा ददम्भ) मुझे हानि पहुंचाता है ! (तद्) वह (आत्मना) स्वयं, (प्र-जया) ओर अपनी सन्तान सहित विनष्ट हो, और उसी जाति के (पिशाचाः) समस्त पिशाच, रोग जन्तु (वि यातयन्ताम्) नाना प्रकार से पीड़ा को प्राप्त हों और शरीर को त्याग कर चले जायं जिससे (अयम्) यह पुरुष (अगदः अस्तु) रोग रहित होजावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs and Insects

    Meaning

    Whatever polluting and life threatening germs enter and pollute our food—whether raw, cooked, half cooked, fully cooked—and damage our health, let these be countered and destroyed in themselves and with their further growth, and let this patient be restored to good health.

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    Translation

    Whosoever a blood-sucker injures me through my unripe, well riped, half-ripe, or over-riped food, let those bloodsuckers themselves along with their progeny be removed. May this person be free from disease.

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    Translation

    If some germs of disease inflict us harm by entering in my food raw, ready thoroughly cooked, or half cooked let these germs with their lives, than offspring’s be terrorized and let the man affected will be healthy.

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    Translation

    If some flesh-consuming germ, entering my raw, cooked, half cooked,thoroughly cooked food, hath injured me, let the germs with their lives and offspring be destroyed, so that this man be free from disease.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(आमे) अपक्वे (सुपक्वे) यथाविधि कृतपाके (शबले) शपेर्बश्च। उ० १।१०५। इति शप आक्रोशे−कल, पस्य बः। कर्बुरे (विपक्वे) विविधं पक्वे (यः) (मा) माम् (पिशाचः) मांसभक्षकः (अशने) भोजने (ददम्भ) वञ्चितवान् (तत्) तस्मात् (आत्मना) स्वजीवेन (प्रजया) पुत्रपौत्रादिना सह (पिशाचाः) मांसभक्षकाः (वि) विविधम् (यातयन्ताम्) यत ताडने, चुरादिः। यातनां तीव्रपीडां प्राप्नुवन्तु (अगदः) नीरोगः (अयम्) पुरुषः (अस्तु) भवतु ॥

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