अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 105/ मन्त्र 3
यथा॒ सूर्य॑स्य र॒श्मयः॑ परा॒पत॑न्त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त समु॒द्रस्यानु॑ विक्ष॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सूर्य॑स्य । र॒श्मय॑: । प॒रा॒ऽपत॑न्ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । स॒मु॒द्रस्य॑ । अनु॑ । वि॒ऽक्ष॒रम् ॥१०५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सूर्यस्य रश्मयः परापतन्त्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत समुद्रस्यानु विक्षरम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सूर्यस्य । रश्मय: । पराऽपतन्ति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । समुद्रस्य । अनु । विऽक्षरम् ॥१०५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महिमा पाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मयः) किरणें (आशुमत्) शीघ्र (परापतन्ति) आगे बढ़ती जाती हैं। (एव) वैसे ही [हे मनुष्य !] (त्वम्) तू (कासे) ज्ञान वा उपाय के बीच (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष के (विक्षरम् अनु) प्रवाहस्थान [मेघमण्डल आदि] की ओर (प्रपत) आगे बढ़ ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य सूर्य की किरणों के समान बेरोक शीघ्रगामी होकर विज्ञानपूर्वक पुष्पक विमान आदि द्वारा अन्तरिक्ष में प्रवेश करे ॥३॥
टिप्पणी
३−(सूर्यस्य) भूचन्द्रादिलोकप्रेरकस्यादित्यस्य (रश्मयः) अ० २।३२।१। व्यापनाः किरणाः (समुद्रस्य) अ० १।३।८। अन्तरिक्षस्य−निघ० १।३। (विक्षरम्) विविधं क्षरणं प्रवाहो यस्मिन् तं देशं मेघमण्डलादिलोकम्। अन्यत्पूर्ववत्−म० १ ॥
विषय
यथा सूर्यस्य रश्मयः
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे उदय के पश्चात् (सूर्यस्य रश्मयः) = सूर्य की किरणें (आशुमत् परापतन्ति) = शीघ्रता से सुदूर पहुँच जाती हैं, (एव) = उसी प्रकार हे (कासे) = श्लेष्मरोग! (त्वम्) = तू (समुद्रस्य) = समुद्र के (विक्षरम् अनु) = विविध क्षरणवाले देश का लक्ष्य करके (अनु प्रपत) = शीघ्रता से दूर जा। इस पुरुष को छोड़कर तू सूर्य-रश्मियों को भौति शीघ्र समुद्रपर्यन्त चला जा।
भावार्थ
कासा हमसे इसप्रकार दूर भाग जाए जैसेकि सूर्य-रश्मियों समुद्रपर्यन्त देशों में जा पहुँचती हैं।
विशेष
रोगों से बचने के लिए गृहों का उचित निर्माण नितान्त आवश्यक है। घर का उचित निर्माण करके रोगों को दूर रखनेवाला 'प्रमोचन' अगले सूक्त का ऋषि-द्रष्टा है।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (सूर्यस्य रश्मयः) सूर्य की रश्मियां (आशुमत्) शीघ्रता से (परापतन्ति) दूर के प्रदेशों तक गति करती हैं, (एवा= एवम्) इसी प्रकार (कासे) हे शासनव्यवस्था! (त्वम्) तू (समुद्रस्य) समुद्र [की लहरों] के (विक्षरम्) विविध संचलन स्थानों को (अनु) लक्ष्य करके (प्र पत) शीघ्रता से पहुंच, वहां तक गति कर।
टिप्पणी
[सूक्त में, पृथिवी की ऊर्ध्व दिशा में, समुद्रों से घिरी पृथिवी पर, तथा समुद्रों पर शासन व्यवस्था की व्याप्ति का वर्णन हुआ है। विक्षरम्= वि+क्षर संचलने (भ्वादिः)]।
विषय
‘कासा’ चिति शक्ति की एकाग्रता का उपदेश।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (सूर्यस्य रश्मयः) सूर्य की किरणें, (आशुमत्) अति वेगवान् होकर (परा पतन्ति) दूर तक फैल जाती हैं उसी प्रकार हे (कासे) प्रकाशमान चितिशक्ते ! तू (समुद्रस्य) समुद्ररूप परम आत्मा के (वि-क्षरम् अनु प्रपत) विशेष प्रवाह के अनुकूल होकर गति कर। ‘कासे’ इस सम्बोधन से कौशिक ने इस सूक्त को कासरोग निवृत्तिपरक माना है। सायण भी उसके पीछे चला है, परन्तु कौशिक ने इस सूक्त को सूर्योपस्थान के लिये भी लिखा है। यह वास्तव में आत्म-ध्यान या ब्रह्मोपासना का मन्त्र है। इसका देवता ‘पुरुष’ है। कासा = चकास्ति इति कासा, प्रकाशमयी ज्योतिष्मती चेतना, चितिशक्तिर्वा। उस चितिशक्ति की तीन साधनाओं का उपदेश किया है। १. मन की गति के अनुकूल उसको यथाभिमत विषय पर लगावें। २. पृथिवी या मूल भाग में किसी अधिष्ठान में स्थिर करें। ३. फिर परम आत्मा के विशाल गुणों में लगादें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उन्मोचन ऋषिः। कासा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Of Flight and Progress
Meaning
Just as sun-rays radiate round at the speed of their own velocity, so do you, O man, fly forth at the speed of mind to the ends of the ocean’s roll and bounds of skies.
Translation
Just as the rays of the sun fly fast far away; so O cough (kasa), may run away to the depths of the ocean.
Translation
As the rapidly expanding sun-rays fly away rapidly to expand in the same manner let this cough flee away over the waves of the sea.
Translation
Rapidly as the beams of light, the rays of the Sun, fly away, so, O mental vigor fly rapidly away over the current of the mighty soul, vast like the ocean.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(सूर्यस्य) भूचन्द्रादिलोकप्रेरकस्यादित्यस्य (रश्मयः) अ० २।३२।१। व्यापनाः किरणाः (समुद्रस्य) अ० १।३।८। अन्तरिक्षस्य−निघ० १।३। (विक्षरम्) विविधं क्षरणं प्रवाहो यस्मिन् तं देशं मेघमण्डलादिलोकम्। अन्यत्पूर्ववत्−म० १ ॥
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