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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भैषज्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिप्पलीभैषज्य सूक्त
    59

    पि॑प्प॒ल्यः सम॑वदन्ताय॒तीर्जन॑ना॒दधि॑। यं जी॒वम॒श्नवा॑महै॒ न स रि॑ष्याति॒ पूरु॑षः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒प्प॒ल्य᳡: । सम् । अ॒व॒द॒न्त॒। आ॒ऽय॒ती: । जन॑नात् । अधि॑ । यम् । जी॒वम् । अ॒श्नवा॑महै । न । स: । रि॒ष्या॒ति॒ । पुरु॑ष: ॥१०९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिप्पल्यः समवदन्तायतीर्जननादधि। यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिप्पल्य: । सम् । अवदन्त। आऽयती: । जननात् । अधि । यम् । जीवम् । अश्नवामहै । न । स: । रिष्याति । पुरुष: ॥१०९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 109; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (पिप्पल्यः) पीपली ओषधियों ने (जननात् अधि) जन्म से ही (आयतीः) आता हुयी (सम्) आपस में (अवदन्त) बातचीत की (यम्) जिस (जीवम्) जीव को (अश्नवामहै) हम प्राप्त होवें, (सः पुरुषः) वह पुरुष (न) नहीं (रिष्याति) नष्ट होवे ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सद्वैद्य परस्पर संवाद से ओषधियों की उत्पत्तिस्थान और काल का विचार करके उनके प्रयोग से रोगियों को नीरोग करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग आपस में वार्तालाप द्वारा दोषों को हटाकर सुखी होते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(पिप्पल्यः) म० १। (ओषधयः) (सम् अवदन्त) व्यक्तवाचां समुच्चारणे। पा० १।३।४८। इत्यात्मनेपदम्। परस्परं सम्वादं कृतवन्त्यः (आयतीः) आयत्यः। आगच्छन्त्यः (जननात्) जन्मनः प्रभृति (अधि) अधिकम् (यम्) (जीवम्) प्राणिनम् (अश्नवामहै) वयं प्राप्नवाम (न) निषेधे (सः) (रिष्याति) रिष हिंसायाम्−लेट्। विनश्येत् (पुरुष) मनुष्यः ॥

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    विषय

    पिप्पलियों का संवाद

    पदार्थ

    १. (पिप्पल्य:) = पिप्पलियाँ (जननात् अधि) = जन्म से ही (आयती:) = आती हुई (सम् अवदन्त) = परस्पर बात करती हैं कि (यं जीवम्) = जिस जीव को (अश्नवामहै) = हम औषधरूपेण प्र.स होती हैं, (स:) = वह (पूरुषः) = पुरुष (न रिष्याति) = नष्ट नहीं होता-हिसित नहीं होता।

    भावार्थ

    पिप्पलियाँ जब अंकुरित होकर भूमि से ऊपर आती है तब मानो परस्पर बात करती हैं कि हमें औषधरूपेण प्राप्त करनेवाला पुरुष कभी हिंसित नहीं होता।




     

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    भाषार्थ

    (जननात् अधि) उत्पत्तिस्थान से (आयती:) आती हुई (पिप्पल्यः) पिप्पलियों ने (सम्) परस्पर मिल कर (अवदन्त) कहा कि (यम्) जिस (जीवम्) जीवित को (अश्नवामहै) विशेषतया हम प्राप्त हो जांय, (सः) वह (पुरुषः) पुरुष (न रिष्याति) न हिंसित हो।

    टिप्पणी

    [पिप्पल्यः = बहुवचन द्वारा पिप्पली के नाना भेद सूचित किये हैं। आयती:= "जनन स्थान से आती हुई" द्वारा पिप्पलियों के ताजापन को सूचित किया है। पुरानी पिप्पली की अपेक्षया ताजी पिप्पली गुणाधिक है। हिंसित होना= विनष्ट होना, मरना]

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    विषय

    पिप्पली औषधि का वर्णन।

    भावार्थ

    (पिप्पल्यः) पिप्पली के पूर्वोक्त सब प्रकार के भेदवाली ओषधियां जो पिप्पली नाम से कहाती हैं (आयतीः) आती हुई (सम् आ वदन्त) परस्पर मानों ऐसा कहती हैं कि (जननाद् अधि) जन्म से लेकर हम (यम्) जिस (जीवम्) जीव या प्राणधारी शरीर को (अश्नवामहै) व्याप लेती हैं (सः) वह (पुरुषः) पुरुष (न रिष्याति) कभी वात आदि रोग से पीड़ित नहीं होता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता पिप्पली, भेषजम् देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pippali Oshadhi

    Meaning

    As the pippali herbs grow, develop and are developed from their very beginning, the physicians say that the person who is given pippali from his earliest age never comes to suffer affliction of ill health of body and mind.

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    Translation

    Coming out of their birth-place, the pippalis said to each other: "The man, whom we reach living, will not suffer any harm".

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    Translation

    These piper longum, as if confabulating mutually tell them that from their origin, the alive man whom they were applied to, does not feel troubled by rheumatic pain.

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    Translation

    Coming from their birth, the different kinds of Pippali spoke among themselves, he who shall use us as medicine, shall never suffer injury.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(पिप्पल्यः) म० १। (ओषधयः) (सम् अवदन्त) व्यक्तवाचां समुच्चारणे। पा० १।३।४८। इत्यात्मनेपदम्। परस्परं सम्वादं कृतवन्त्यः (आयतीः) आयत्यः। आगच्छन्त्यः (जननात्) जन्मनः प्रभृति (अधि) अधिकम् (यम्) (जीवम्) प्राणिनम् (अश्नवामहै) वयं प्राप्नवाम (न) निषेधे (सः) (रिष्याति) रिष हिंसायाम्−लेट्। विनश्येत् (पुरुष) मनुष्यः ॥

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