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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 132/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - त्रिपदा विराण्महाबृहती सूक्तम् - स्मर सूक्त
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    यं विश्वे॑ दे॒वाः स्म॒रमसि॑ञ्चन्न॒प्स्वन्तः शोशु॑चानं स॒हाध्या। तं ते॑ तपामि॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । स्म॒रम् । असि॑ञ्चन् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । शोशु॑चानम् । स॒ह । आ॒ध्या । तम् । ते॒ । त॒पा॒‍मि॒ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा ॥१३२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं विश्वे देवाः स्मरमसिञ्चन्नप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या। तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । विश्वे । देवा: । स्मरम् । असिञ्चन् । अप्ऽसु । अन्त: । शोशुचानम् । सह । आध्या । तम् । ते । तपा‍मि । वरुणस्य । धर्मणा ॥१३२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 132; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम गुणों ने (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के बीच.... म० १ ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(विश्वे) सर्वे (देवाः) उत्तमगुणाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    देवा, विश्वेदेवाः, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी, मित्रावरुणौ

    पदार्थ

    १. (यं स्मरम) = जिस काम को (देवा:) = वासनाओं को जीतने की कामनावाले ज्ञानी लोग (असिञ्चन्) = अपने हृदय में सिक्त करते हैं, (ते) = तेरे लिए भी (तम्) = उस काम को वरुणस्य (धर्मणा) = पापों से निवृत्त करनेवाले प्रभु के धारण के द्वारा (तपामि) = उज्ज्वल बनाता हूँ। सामान्यत: 'काम' वासना का रूप ले-लेता है और यह वासनात्मक काम (आध्या सह) = [कामो गन्धर्वः, तस्याधयोऽप्सरस:-तै० ३.४.७.३] मानस पीड़ारूप अपनी पत्नी के साथ (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं में (शोशचानम्) = अतिशयेन विरहाग्नि से गात्रों को सन्तप्त करनेवाला होता है। यही काम वरुण के धारण से-प्रभु-स्मरण से पवित्र व उज्ज्वल होकर सन्तान को जन्म देनेवाला होता है। [धर्माविरुद्धा कामोऽस्मि भूतेषु भरतर्षभ, प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः]। देवलोग इसी काम को अपने हृदय में सिक्त करते हैं। २. इसीप्रकार (यं स्मरम्) = जिस काम को (विश्वेदेवाः) = देववृत्ति के सब पुरुष अपने में (असिञ्चत्) = सिक्त करते हैं, (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राणी) = इन्द्रपत्नी जितेन्द्रिय पुरुष की आत्मशक्ति (असञ्चत्) = अपने में सिक्त करती हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राग्नी) = शत्रुविद्रावक व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (मित्रावरुणौ) = प्राण-अपान की साधना करनेवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं, तेरे लिए भी उस काम को प्रभु-स्मरण द्वारा उज्ज्वल बनाता है।

    भावार्थ

    सामान्य: 'काम' वासना का रूप धारण करके मानस पीड़ा से मनुष्य को विरहाग्नि में सन्तप्त करनेवाला बनता है, परन्तु यदि हम 'देव, विश्वेदेवा, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी व मित्रावरुणौ' के समान काम को अपने हृदयों में सिक्त करेंगे तो यह काम प्रभु-स्मरण के द्वारा पवित्र बना रहेगा और सन्तति को जन्म देनेवाला होगा। कामवासना को जीतने का उपाय यही है कि हम ज्ञानी बनें [देवाः], देववृत्ति के बनने का यत्न करें [विश्वेदेवाः], आत्मिक शक्ति का वर्धन करें [इन्द्राणी], जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों [इन्द्राग्नी] और प्राणायाम द्वारा प्राणापान की साधना करें [मित्रावरुणी]।

    विशेष

    'काम'-बासना को जीतनेवाला यह व्यक्ति सब अविद्याओं व पापों का विध्वंस करनेवाला 'अग-स्त्य' बनता है। यह पाप को पराजित करने के लिए ही मेखला धारण करता है-कटिबद्ध होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (विश्वे देवाः) संसार के अन्य 'मादक तत्व' जो कि जीवन के घटक हैं, यथा पञ्चभूत, पचतन्मात्राएं, इन्द्रियां तथा मन शेष पूर्ववत् मन्त्र (१)

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    विषय

    प्रेम के दृढ़ करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (विश्वे देवाः) समस्त देवगण (यं स्मरम् अप्सु अन्तः असिञ्चन्) जिस परस्पर-स्मरण-रूप परस्पराभिलाषा या कामना को मानस व्यथा के सहित समस्त प्रजाओं के चित्त में डालते हैं उसी भाव को वरुण=राजा की व्यवस्था से भी मैं तेरे हृदय में परिपक्व करता हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। १ त्रिपदानुष्टुप्। ३ भुरिग्। २, ४, ५ त्रिपदा महा बृहत्यः। १, ४ विराजौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Love and Memory

    Meaning

    That smara, divine love and intimations of cosmic memory, so enlightening and sanctifying, which all saints and sages, scholars, poets and teachers of the world, parents, literature and traditions poured into the human mind and faculties of perception and action with thought, reflection and intuition, that same love and memory I develop, mature and season to perfection with the discipline and Dharma of Varuna, lord of light and judgement, O lord of love in your service.

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    Translation

    The passionate love, which all the bounties of Nature have poured into waters (i.e., semen, burning fiercely and accompanied by pains of longing - that I heat up for you, according to the law of the venerable Lord (Law-maker).

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    Translation

    O wife or husband! I, the either of married dual heat up with the restrain of Varuna, the All-protecting Divinity your that philter which is burning and yearning and is pured down into the waters or the worldly subjects with its consequent troubles by all the mightiest forces of the world.

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    Translation

    I develop in thee through God's law, the brilliant power of recollection, which all the sages have developed in the people, through concentration.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(विश्वे) सर्वे (देवाः) उत्तमगुणाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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