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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुक्र देवता - वज्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलप्राप्ति सूक्त
    37

    यत्पिबा॑मि॒ सं पि॑बामि समु॒द्र इ॑व संपि॒बः। प्रा॒णान॒मुष्य॑ सं॒पाय॒ सं पि॑बामो अ॒मुं व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । पिबा॑मि । सम् । पि॒बा॒मि॒ । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । स॒म्ऽपि॒ब: । प्रा॒णान् । अ॒मुष्य॑ । स॒म्ऽपाय॑ । सम् । पि॒बा॒म॒: । अ॒मुम् । व॒यम् ॥१३५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पिबामि सं पिबामि समुद्र इव संपिबः। प्राणानमुष्य संपाय सं पिबामो अमुं वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । पिबामि । सम् । पिबामि । समुद्र:ऽइव । सम्ऽपिब: । प्राणान् । अमुष्य । सम्ऽपाय । सम् । पिबाम: । अमुम् । वयम् ॥१३५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    खान-पान का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो कुछ [जल दुग्ध आदि] (पिबामि) मैं पीता हूँ, (सम्) यथाविधि (पिबामि) पीता हूँ (इव) जैसे (संपिबः) यथाविधि पीनेवाला (समुद्रः) समुद्र [खाकर पचा लेता है]। (अमुष्य) उस [पदार्थ] के (प्राणान्) जीवन बलों को (संपाय) चूस कर (अमुम्) उस [पदार्थ] को (सम्) यथाविधि (वयम्) हम (पिबामः) पीवें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य न्यूनाधिक मात्रा और देश काल का विचार करके जल दुग्ध आदि पीकर पुष्टि बढ़ाकर सुख प्राप्त करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यत्) जलदुग्धादिपानम् (पिबामि) (सम्) यथाविधि (संपिबः) पाघ्राध्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति पा पाने−श प्रत्ययः। सम्यक् पाता (प्राणान्) जीवनबलानि (अमुष्य) तस्य पदार्थस्य (सम्पाय) सम्यक् पीत्वा (सम्) (पिबामः) (अमुम्) पदार्थम् (वयम्) पानकर्तारः ॥

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    विषय

    सं-पान-संगरण

    पदार्थ

    १. (यत् पिबामि) = मैं जो जल पीता हूँ तो (संपिबामि) = शत्रु का निग्रह करके उसके रस को ही पी जाता है, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (समुद्रः) = समुद्र नदीमुख से सारे जल को लेकर (संपिबः) = सम्यक् पी जाता है। (वयम्) = हम भी (अमुष्य) = उस शत्रु के (प्राणान् संपाय) = प्राणापान आदि व्यापार को पीकर (अमुम्) = उस शत्रु को ही (संपिबाम:) = पी जाते हैं। २. (यत् गिरामि) = जो कुछ मैं खाता हूँ तो (संगिरामि) = शत्रु को ही निगल जाता हूँ। (इव) = जैसेकि (समुद्रः) = समुद्र (संगिरः) = नदी-जल को निगीर्ण कर लेता है। (वयम्) = हम भी (अमुष्य) = उस शत्रु के (प्रणान् संगीर्य) = प्राणों को निगलकर (अमुं संगिरामः) = उस शत्र को ही निगल जाते हैं।

    भावार्थ

    हम खाते-पीते इस दृष्टिकोण को न भूलें कि इस खान-पान से शक्ति का सम्पादन करके शत्रुओं को ही खा-पी जाना है, स्वाद का दृष्टिकोण तो हमें ही शत्रुओं का शिकार बना देगा।

     

    विशेष

    स्वस्थ शरीर के लिए वीतहव्य-पवित्र पदार्थों को खानेवाला ही होना चाहिए। यह 'वीतहव्य' शरीर को स्वस्थ बनाता हुआ अपने केशों को भी सुदृढ बनाता है। अगले दो सूक्तों का ऋषि यही है।

     

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (पिबामिः) मैं पीता हूं (सं पिबामि) सम्यक् रूप में पीता हूं, (समुद्रः इव) समुद्र की तरह (सं पिबः) सम्यक् रूप में पीता हूं, (अमुष्य) उस शत्रु के (प्राणान्) प्राणों को (संपाय) सम्यक् रूप में पीकर (वयम्) हम (अमुम्) उसे भी (सं पिबामः) सम्यक् रूप में या मिलकर पी जाते हैं।

    टिप्पणी

    [काम, क्रोध, लोभ आदि आध्यात्मिक शत्रुओं के प्राण हैं तत्सम्बन्धी वासनाएं। इन वासनाओं को पीने का अभिप्राय है, इन वासनाओं का भी नियन्त्रण करना, नष्ट करना। इन वासनाओं के नष्ट हो जाने पर इन वासनाओं के विषय स्वतः प्रभावरहित हो जाते हैं, सत्तारहित सदृश हो जाते हैं। यथा "विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते" (गीता)। निराहारस्य= इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन न करने वाले के विषय निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु इन विषयों के रस प्रर्थात् वासनाए बनी रहती हैं, जिन का विनिवर्तन केवल आध्यात्मिक उपायों द्वारा ही होता है। स पिबः= पिवतेः कर्तरि "शः" + पिबादेशः]

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    विषय

    वज्र द्वारा शत्रु नाश।

    भावार्थ

    (यत् पिबामि) जो पीऊं (सं पिबामि) अच्छी प्रकार पीऊं। और ऐसा (संपिब) पीऊं (समुद्र इव) जैसे समुद्र समस्त नदियों का जल पी जाता है। (वयम्) हम भी (अमुष्य प्राणान्) शत्रु के प्राणों को, जीवन के साधनों को (संपाय) खून पीकर (अमुं संपिबामः) उसको पी ही जायें, पचा ही जावें, अर्थात् शत्रु को मारना ही शत्रु को पी जाना है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। मन्त्रोक्ता वज्रो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यत् पिबामि सं पिबामि) जो पानीय सोम रसादि मैं सात्विकरस पीता हूं उसे सम्यक् पीता हूं (समुद्रः-इव सम्पिब:) जैसे सम्यक पानकर्त्ता समुद्र नदियों के जल को सम्यक् गीता है (वयम्-अमुष्य प्राणान्) हम उस पाप के प्राणों को- अवकाशों को "प्राणा वा अवकाशाः" शतः १४।१।४।१) (सम्पाय-अमुं-सम्पिबामः ) सम्यक् पीकर-पीने को "कृतो बहुलम्" इत्यपि "भविष्यति भूत प्रत्यय:" उस पानीय को सम्यक पीते हैं ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः-शुक्रः -(तेजस्वी "शुक्रं शोचतेर्ज्वलति कर्मण:) [ निरु० ८-१२] देवता-वज्रः- (पाप से वर्जन कराने वाला आत्मपराक्रम [वीर्य एवं ओजः] "वीर्यं वै वज्र(शत० १।३।७।५ ) वज्रो वा ओजः [शत० ८।४।१।२७ ]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Strength

    Meaning

    Whatever I drink I drink well and wholly like the sea which drinks up and consumes all the streams, and thus having consumed the strength of the enemy, we exhaust him of all his vitality.

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    Translation

    What drink (pibami), I drink completely, drink to the finish like ocean. Drinking up the life of such and such (amusya) person, may we drink such and such person to the finish.

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    Translation

    Whatever I drink, I drink it together like the sea which swallows all, we drinking the life-breath of that man drink him completely.

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    Translation

    I drink well what I drink, just as the sea swallows the water of the streams. Drinking the life-breath of that man, we drink that foe and swallow him.

    Footnote

    Drink and swallow: Destroy and kill.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यत्) जलदुग्धादिपानम् (पिबामि) (सम्) यथाविधि (संपिबः) पाघ्राध्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति पा पाने−श प्रत्ययः। सम्यक् पाता (प्राणान्) जीवनबलानि (अमुष्य) तस्य पदार्थस्य (सम्पाय) सम्यक् पीत्वा (सम्) (पिबामः) (अमुम्) पदार्थम् (वयम्) पानकर्तारः ॥

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