अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 139/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त
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शुष्य॑तु॒ मयि॑ ते॒ हृद॑य॒मथो॑ शुष्यत्वा॒स्यम्। अथो॒ नि शु॑ष्य॒ मां कामे॒नाथो॒ शुष्का॑स्या चर ॥
स्वर सहित पद पाठशुष्य॑तु । मयि॑ । ते॒ । हृद॑यम् । अथो॒ इति॑ । शु॒ष्य॒तु॒ । आ॒स्य᳡म् । अथो॒ इति॑ । नि । शु॒ष्य॒ । माम् । कामे॑न । अथो॒ इति॑ । शुष्क॑ऽआस्या । च॒र॒ ॥१३९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शुष्यतु मयि ते हृदयमथो शुष्यत्वास्यम्। अथो नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर ॥
स्वर रहित पद पाठशुष्यतु । मयि । ते । हृदयम् । अथो इति । शुष्यतु । आस्यम् । अथो इति । नि । शुष्य । माम् । कामेन । अथो इति । शुष्कऽआस्या । चर ॥१३९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे ब्रह्मचारिणि !] (मयि) मेरे विषय में (ते हृदयम्) तेरा हृदय (शुष्यतु) सूख जावे, (अथो) और (आस्यम्) मुख (शुष्यतु) सूख जावे। (अथो) और भी (माम्) मुझ को (कामेन) अपने प्रेम से (नि) नित्य (शुष्य) सुखा, (अथो) और तू भी (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली होकर (चर) विचर ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् वर और कन्या परस्पर गुणों का परिचय करके वाचिक और मानसिक प्रेम से गृह आश्रम में प्रवेश करने की चेष्टा करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(शुष्यतु) परितप्तं प्रेममग्नं भवतु (मयि) मद्विषये (ते) तव (हृदयम्) (अथो) अपि च (शुष्यतु) (आस्यम्) मुखम् (अथो) (नि) नित्यम् (शुष्य) शोषय (माम्) वरम् (कामेन) प्रेम्णा (अथो) (शुष्कास्या) परितप्तवदना (चर) गच्छ ॥
विषय
परस्पर प्रेमाकुलता
पदार्थ
१. हे युवति । (ते हृदयम्) = तेरा हृदय (मयि शुष्यतु) = मेरे विषय में प्रेमान्वित होकर शुष्क हो जाए (अथो आस्यं शुष्यतु) = और मेरे वियोग में तेरा मुख भी शुष्कतावाला (अथो) = और (माम्) = मुझे भी तू (कामेन) = तेरे प्रति प्रेम से (निशुष्य) = शुष्क करके स्वयं भी (अथो) = अब (शुष्कास्या) = शुष्क मुखवाली होकर चर-विचर।
भावार्थ
विद्यादि गुणों से अलंकृत युवक व युवति एक-दूसरे के गुणश्रवण से प्रेमाकुलता अनुभव करें और एक-दूसरे को जीवन-साथी बनाने का निश्चय करें।
भाषार्थ
(मयि) मेरे सम्बन्ध में भी (ते) तेरा (हृदयम, शुष्यतु) हृदय प्रेमरस की दृष्टि से सूख जाय (अथो) तथा (आस्यम्) मुख भी (शुष्यतु) रसीली बातें करने की दृष्टि से सुख जाय। (अथो) और (कामेन) कामवासना की दृष्टि से (माम्) मुझको (निशुष्य१) नितरां सूखा कर, (अथो) तदनन्तर (शुष्कास्या) रसीली बातों से रहित हुई (चर) गृहकार्यों में तू विचर।
विषय
सौभाग्यकरण और परस्परवरण।
भावार्थ
हे प्रियतमे ! वियोगावस्था में (ते हृदयम्) तेरा हृदय (मयि) मेरे में मग्न होकर, मेरे प्रेम में (शुष्यतु) सूखे, कृश हो जाय, (अथो) और (आस्यम् शुध्यतु) मुख भी सूख जाय, मुख पर दुर्बलता के चिह्न प्रकट हों, (अथो) और (मां कामेन) मेरे प्रति अपनी प्रबल अभिलाषा से तू (नि शुष्य) सर्वथा कृश होकर (शुष्कआस्या) निर्बल, कृशमुखी होकर (चर) रह। इतने पर भी हे प्रियतमे ! तू अन्य किसी को हृदय से मत चाह।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् जगती। २-३ अनुष्टुभौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Conjugal Happiness
Meaning
Let your heart be afflicted with love for me. Let your mouth be parched with love. Afflict me too with love, excite me with care, and live you too and roam around with mouth parched for love.
Translation
May your heart parch for me; then may your mouth be dry. Then making me parched with passion, may you go about dry mouthed.
Translation
O wife! let your heart which lies in me be dry, let your mouth wither in my love, parch and dry up with longing and go with lips which dried in my love.
Translation
Let thy heart wither for my love, and let thy mouth be dry for me. Parch and dry up with longing for me, go with lips that love of me hath dried.
Footnote
The learned bridegroom and the bride, full of mutual love should enter domestic life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(शुष्यतु) परितप्तं प्रेममग्नं भवतु (मयि) मद्विषये (ते) तव (हृदयम्) (अथो) अपि च (शुष्यतु) (आस्यम्) मुखम् (अथो) (नि) नित्यम् (शुष्य) शोषय (माम्) वरम् (कामेन) प्रेम्णा (अथो) (शुष्कास्या) परितप्तवदना (चर) गच्छ ॥
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