अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
ऋषिः - बभ्रुपिङ्गल
देवता - बलासः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - बलासनाशन सूक्त
56
निर्बला॑से॒तः प्र प॑ताशु॒ङ्गः शि॑शु॒को य॑था। अथो॒ इट॑ इव हाय॒नोऽप॑ द्रा॒ह्यवी॑रहा ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । ब॒ला॒स॒ । इ॒त: । प्र । प॒त॒ । आ॒शुं॒ग: । शि॒शु॒क: । य॒था॒ । अथो॒ इति॑ । इट॑:ऽइव । हा॒य॒न: । अप॑ । द्रा॒हि॒ । अवी॑रऽहा ॥१४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्बलासेतः प्र पताशुङ्गः शिशुको यथा। अथो इट इव हायनोऽप द्राह्यवीरहा ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । बलास । इत: । प्र । पत । आशुंग: । शिशुक: । यथा । अथो इति । इट:ऽइव । हायन: । अप । द्राहि । अवीरऽहा ॥१४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(बलास) हे बल घटानेवाले क्षयरोग ! (इतः) यहाँ से (निः=निष्क्रम्य) निकल कर (प्रपत) चला जा, (यथा) जैसे (आशुंगः) शीघ्रगामी (शिशुकः) छोटा बछड़ा। (अथो) और भी (अवीरहा) वीरों का न नाश करनेवाला तू (अप=अपेत्य) हटकर (द्राहि) भाग जा, (इव) जैसे (हायनः) प्रति वर्ष होनेवाला (इटः) घास ॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को रोग और अज्ञान नाश करने में शीघ्रता करनी चाहिये, जिससे वीरों की सदा जय रहे ॥३॥
टिप्पणी
३−(निः) निष्क्रम्य (बलास) हे बलनाशक क्षयरोग (इतः) अस्मात् स्थानात् (प्र) प्रकर्षेण (पत) दूरं गच्छ (आशुंगः) आशु+गमेः−खच्, स च डित्। आशुगामी (शिशुकः) वत्सतरः (यथा) (अथो) अपि च (इटः) इट गतौ−क। घासः (इव) यथा (हायनः) हायन−अर्शआद्यच्। प्रतिवर्षभवः (अप) अपेत्य (द्राहि) द्रा कुत्सायां गतौ। पलायस्व (अवीरहा) वीराणाम् अहन्ता त्वम् ॥
विषय
आशुङ्गः शिशुको यथा, हायन: इट: इव
पदार्थ
१. हे (बनास:) = क्षयरोग! तु (इतः नि: प्रपत) = यहाँ से ऐसे हट जा (यथा) = जैसे कोई (आशुङ्गः) = शीघ्र गतिवाला (शिशुक:) = हिरनौटा [हिरन-शिशु] भाग खड़ा होता है। २. (अथो) = और (हायन: इट: इव) = वार्षिक घास की भौति-जैसे प्रतिवर्ष उग आनेवाली घास चली जाती है, उसी प्रकार तु (अपद्राहि) = दूर भाग जा। (अवीरहा) = तू हमारे वीरों को नष्ट करनेवाला न हो।
भावार्थ
क्षयरोग इसप्रकार दूर भाग जाए, जैसे एक शीघ्रगामी हिरनौटा भाग जाता है। वार्षिक घास की भाँति यह हमसे दूर हो जाए। यह हमारे वीरों को मारनेवाला न हो।
विशेष
रोगों का उत्कर्षेण विदारण करनेवाला यह 'उद्दालक' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(बलास) हे बलास रोग ! (इतः) इस शरीर से (निःपत) निकल चला जा, (यथा) जैसे कि (आशुंगः१) शीघ्रगामी (शिशुक:) मृग ! (अथो) तथा (इटः) चला गया (हायनः) वर्षकाल ( इव ) जैसे [फिर नहीं लौटता] वैसे ( उप द्राहि) तू शरीर से अलग होकर चला जा और (अवीरहा) इस वीर का हनन न कर। "इट: = इट गतौ (भ्वादिः)"।
टिप्पणी
[१. "आशुंगः; शिशुकः = शुशुक एतत्संज्ञो मृगः" (सायण)। अथवा शिशुकः वयस्को मुगः, अन्यो वा प्राणी।]
विषय
कफ रोग निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
(बलास) समस्त शरीर के बल को हरण करनेवाले हे कफजनित तपेदिक रोग ! तू (यथा आशुंगः शिशुकः) शीघ्रगामी हिरनौटे के समान (प्र पत) परे भाग जा। (अथो) और (हायनः इटः इव) प्रतिवर्ष उगनेवाले घास के समान तू (अवीरहा) हमारे पुत्रों या प्राणों का नाश न करता हुआ ही (अप द्राहि) परे भाग जा, नष्ट हो जा। सायण के मत में—(इत इत्र हायनः) गुजरे हुए वर्ष के समान तू भी चला जा।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘शुशुक्रो’, ‘इत इव प्तायनः’ इति सायणाभितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बभ्रुपिङ्गल ऋषिः। बलासो देवता। अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cancer and Consumption
Meaning
Let the consumption go out from here as a bolting foal, and go away without doing any damage to the patient, like withered sedge of yester year.
Translation
O wasting disease (balasa), run away fast from here, like a fast galloping foal (asunga). Then like grass; growing annually, disappear hence without harming our men or children (sisukah).
Translation
Let the consumption be gone away from this patient like a young foal which runs at speed, let it flee without harming the man like grass which annually grows up in abundance.
Translation
Begone, Consumption, from this body away, like a young foal that runs at speed. Then, not pernicious to our offspring, flee, like yearly visitant grass!
Footnote
Just as the grass that grows in the rainy season is removed, so should the disease be removed.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(निः) निष्क्रम्य (बलास) हे बलनाशक क्षयरोग (इतः) अस्मात् स्थानात् (प्र) प्रकर्षेण (पत) दूरं गच्छ (आशुंगः) आशु+गमेः−खच्, स च डित्। आशुगामी (शिशुकः) वत्सतरः (यथा) (अथो) अपि च (इटः) इट गतौ−क। घासः (इव) यथा (हायनः) हायन−अर्शआद्यच्। प्रतिवर्षभवः (अप) अपेत्य (द्राहि) द्रा कुत्सायां गतौ। पलायस्व (अवीरहा) वीराणाम् अहन्ता त्वम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal