अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
उ॑द॒प्रुतो॑ म॒रुत॒स्ताँ इ॑यर्त वृ॒ष्टिर्या विश्वा॑ नि॒वत॑स्पृ॒णाति॑। एजा॑ति॒ ग्लहा॑ क॒न्ये॑व तु॒न्नैरुं॑ तुन्दा॒ना पत्ये॑व जा॒या ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒द॒ऽप्रुत॑: । म॒रुत॑: । तान् । इ॒य॒र्त॒ । वृ॒ष्टि: । या । विश्वा॑: । नि॒ऽवत॑: । पृ॒णाति॑ । एजा॑ति । ग्लहा॑ । क॒न्या᳡ऽइव । तु॒न्ना । एरु॑म्। तु॒न्दा॒ना । पत्या॑ऽइव । जा॒या ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
उदप्रुतो मरुतस्ताँ इयर्त वृष्टिर्या विश्वा निवतस्पृणाति। एजाति ग्लहा कन्येव तुन्नैरुं तुन्दाना पत्येव जाया ॥
स्वर रहित पद पाठउदऽप्रुत: । मरुत: । तान् । इयर्त । वृष्टि: । या । विश्वा: । निऽवत: । पृणाति । एजाति । ग्लहा । कन्याऽइव । तुन्ना । एरुम्। तुन्दाना । पत्याऽइव । जाया ॥२२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वृष्टि विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(उदप्रुत) हे जल के भेजनेवाले (मरुतः) वायुगणो ! (तान्=ताम्) उस [वृष्टि] को (इयर्त्त) तुम भेजो, (या) जो (वृष्टिः) बरसा (विश्वाः) सब (निवतः) नीचे स्थानों को (पृणाति) भर देती है। (ग्लहा) वह ग्रहण करने योग्य [वृष्टि] (एरुम्) गतिशीलसमुद्र को (एजाति=एजति) पहुँचती है, (इव) जैसे (तुन्ना) व्यथा में पड़ी (कन्या) कन्या [अपने माता पिता आदि को], और (इव) जैसे (तुन्दाना) दुःख पाती हुई (जाया) पत्नी (पत्या=पतिम्) अपने पति को [पहुँचती है] ॥३॥
भावार्थ
जिस प्रकार वायु द्वारा वृष्टिजल संसार का उपकार करता हुआ समुद्र में शान्ति पाता है, इसी प्रकार मनुष्य परस्पर उपकार करके उस परब्रह्म में सुख प्राप्ति करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(उदप्रुतः) उदकस्योदः संज्ञायाम्। प० ६।३।५७। इति उदकस्य उदभावः। प्रुङ् गतौ−क्विप्। जलस्य प्रेरकाः (मरुतः) हे वायुगणाः (तान्) छान्दसो मकारस्य नकारः। ताम्। वृष्टिम् (इयर्त) ऋ गतौ−तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४५। इति लोटि तस्य तप्। अर्तिपिपर्त्योश्च पा० ७।४।७७। इति अभ्यासभ्य इत्वम्। इयृत। प्रेरयत (वृष्टिः) वर्षणम् (या) (विश्वाः) सर्वाः (निवतः) उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति गमेरर्थे वतिः। निम्नगतान् देशान् (पृणाति) पॄ पालनपूर्त्योः। पूरयति (एजाति) एजृ कम्पने−लडर्थे लेट्। एजति, गतिकर्मा−निघ० २।१४। गच्छति। प्राप्नोति (ग्लहा) अ० ४।३८।३। ग्रह उपादाने अप्, रस्य लः, टाप्। ग्राह्या वृष्टिः (कन्या) अ० १।१४।२। कमनीया। पुत्री (इव) यथा (तुन्ना) तुद व्यथने−क्तः। व्यथिता (एरुम्) मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०१। इति इण् गतौ−रु। गन्तारम्। समुद्रम् (तुन्दाना) तुद व्यथने−शानच्, नुम् गुणाभावश्च। व्यथ्यमाना (पत्या) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति अम् विभक्तेः आ। पतिम् (इव) (जाया) अ० ३।४।३। भार्या ॥
विषय
उदगुतः मरुतः
पदार्थ
१. (उदगुतः मरुतः) = जल के भेजनेवाले वायुओ! (तान् इयर्त) = उन वृष्टिजलों को तुम भेजो (यः वृष्टिः विश्वा निवतस्पणाति) = जो वृष्टि सब निम्न स्थलों को भर डालती है। (ग्लहा) = [माध्यमिका वाक] विद्युत् (एरु एजाति) = गतिशील मेघ को इसप्रकार कम्पित करती है (इव) = जैसे (पत्या तुन्ना कन्या) = पति से व्यथित कन्या माता-पिता को अथवा (इव) = जैसे (तुन्दाना जाया) = भय से व्यथित पत्नी पति को।
भावार्थ
मरुत् उस वृष्टि को प्राप्त कराएँ जिससे कि सब निम्नस्थल भर जाएँ। विद्युत् गर्जना से मेघ कम्पित-से हो उठे।
भाषार्थ
(उदप्रुतः) उदक से आप्लुत अर्थात् भरी हुई (मरुतः) हे मानसून वायुओ ! (ता=ताम्) उसे (इयर्त) प्रेरित करो ( या वृष्टिः) जो वृष्टि कि (विश्वाः निवतः) सब निम्नगामिनी नदियों को (पृणाति) पूरित कर दे। और जो (ग्लहा) मानसून द्वारा गृहीत की गई, न बरसाई गयी वृष्टि (एजाति) किसानों को कम्पा देती है तथा (इव) जैसे (तुन्ना) व्यथित हुई (कन्या) कन्या, तथा (इव) जैसे (पत्या) पति द्वारा (तुन्ना) व्यथित हुई (जाया) पतिसम्भुक्ता पत्नी (एरुम्) प्रेषक पिता को (तुन्दाना) व्यथित करती हुई होती है।
टिप्पणी
[इयर्त= ऋ गतौ, लोट्, जुहोत्यादित्वात् शपः श्लु:, "अर्तिपिपर्त्योश्च" (अष्टा० ७।४।७७) द्वारा अभ्यास को इकार। ग्लहा = गृह ग्रहणे। ग्लह च (भ्वादिः)। मानसून द्वारा गृहीत हुई वृष्टि। एरुम् = ईर् (गतौ, चुरादिः)+ उ (औणादिक १।७।२१), णिजर्थ अन्तर्भावित= गमन कराने वाला, निजकन्या को वैवाहिक विधिपूर्वक, पतिगृह में भेजनेवाला पिता। कन्या तथा जाया= इस सम्बन्ध में मनूक्त श्लोक स्मरणीय है। यथा– सा चेदक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागतापि वा। वैवाहिकेन विधिना पुनः संस्कारमर्हती॥ सा पुत्री-कन्या यदि अक्षतयोनि हो, या पतिगृह जा कर वापिस आ गई हो, तो विवाह की विधि से वह "पुनः" विवाहसंस्कार के योग्य होती है। "पुनः" शब्द द्वारा सूचित होता है अक्षतयोनि का तथा गत प्रत्यागता [क्षतयोनि] का पहिले विवाह हो चुका है। मन्त्रगत "तुन्ना" पद यह दर्शाता है कि अक्षत योनि का कन्यात्व अर्थात् कुमारीपन पूर्ववत् यथावस्थित है, परन्तु पतिगृह द्वारा व्यथित हुई वह पितृगृह में आ गई है। इसी प्रकार जाया भी पति द्वारा "तुन्ना" होकर पितृगृह लौट आई है। इस द्वारा पिता तो व्यथित होगा ही, (तुन्दाना)। पति द्वारा जाया के धकेले जाने का वर्णन अथर्ववेद में अन्यत्र भी हुआ है। यथा "जाया पत्या नुत्तेव कर्तारं बन्ध्वच्छतु" (१०।१।३)]
विषय
सूर्य-रश्मियों द्वारा जल वर्षा के रहस्य का वर्णन
भावार्थ
हे (मरुतः) वायुगणो ! तुम (तान्) उन (उदप्रुतः) जल से पूर्ण मेघों को (इयर्त) प्रेरित कर धकेल कर लाओ। (या) जिनसे होनेवाली (वृष्टिः) वर्षा (विश्वा निवतः) सब निम्न भागों और नीचे बहनेवाली नदियों को (पृणाति) पूर्ण कर दे। अथवा हे (उद-प्रुतः मरुतः) जल से पूर्ण मानसून वायुओ ! तुम (तां=ताम्) उस वृष्टि को (इयर्त) ला बरसाओ (या वृष्टिः) जो वृष्टि (विश्वा निवतः पृणाति) सब नदी नालों को भर डालती है। (तुन्ना कन्या इव) जिस प्रकार पीड़ित, दुःखित कन्या अपने पिता को व्यथित, कम्पित करती है और (तुन्दाना जाया पत्या इव) जिस प्रकार भय से व्यथित स्त्री अपने प्राणपति को व्यथित, कम्पित करती है उसी प्रकार (ग्लहा) मध्यमिका वाग्-विद्युत् मानो व्यथित-सा होकर (एरुम्) प्रेरक मेघ को भी (एजाति) कंपाती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंतातिर्ऋषिः। आदित्यरश्मयो मरुतश्च देवताः। १, ३ त्रिष्टुभौ। २ चतुस्पदा भुरिग् जगती॥ तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Rain and Wind
Meaning
O Maruts, move the vapour laden clouds, the rain that fills all lakes and earthly depressions with water. The thunder of clouds shakes the atmosphere and streams flow to the sea as a lonely daughter goes to the parents’ home and a worried wife repairs to the husband and inspires him. (The symbolism suggests that the streams are, after all, children of the sea, and the showers are patronised by the sun and the sea.)
Translation
O cloud-bearing winds, may you send the water-laiden clouds, the rain, that will fill all the flowing streams. Let the thunder rush about, like a maiden heart, to the cloud like a wife being beaten by a husband. (tundana patyeva Jaya)
Translation
These monsoons full of vapors send down the rain which fills all the sloping places and rivers. The thunder like a troubled girl and like the wife coerced by her husband trembles in the cloud.
Translation
O monsoon, the bringer of water, send down rain which fills all lowlying places and streams moving down. This agreeable rain goes to the running ocean, Just as a distressed girl goes to her father, or an afflicted wife to her husband.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(उदप्रुतः) उदकस्योदः संज्ञायाम्। प० ६।३।५७। इति उदकस्य उदभावः। प्रुङ् गतौ−क्विप्। जलस्य प्रेरकाः (मरुतः) हे वायुगणाः (तान्) छान्दसो मकारस्य नकारः। ताम्। वृष्टिम् (इयर्त) ऋ गतौ−तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४५। इति लोटि तस्य तप्। अर्तिपिपर्त्योश्च पा० ७।४।७७। इति अभ्यासभ्य इत्वम्। इयृत। प्रेरयत (वृष्टिः) वर्षणम् (या) (विश्वाः) सर्वाः (निवतः) उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति गमेरर्थे वतिः। निम्नगतान् देशान् (पृणाति) पॄ पालनपूर्त्योः। पूरयति (एजाति) एजृ कम्पने−लडर्थे लेट्। एजति, गतिकर्मा−निघ० २।१४। गच्छति। प्राप्नोति (ग्लहा) अ० ४।३८।३। ग्रह उपादाने अप्, रस्य लः, टाप्। ग्राह्या वृष्टिः (कन्या) अ० १।१४।२। कमनीया। पुत्री (इव) यथा (तुन्ना) तुद व्यथने−क्तः। व्यथिता (एरुम्) मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०१। इति इण् गतौ−रु। गन्तारम्। समुद्रम् (तुन्दाना) तुद व्यथने−शानच्, नुम् गुणाभावश्च। व्यथ्यमाना (पत्या) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति अम् विभक्तेः आ। पतिम् (इव) (जाया) अ० ३।४।३। भार्या ॥
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