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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शन्ताति देवता - आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपांभैषज्य सूक्त
    76

    यन्मे॑ अ॒क्ष्योरा॑दि॒द्योत॒ पार्ष्ण्योः॒ प्रप॑दोश्च॒ यत्। आप॒स्तत्सर्वं॒ निष्क॑रन्भि॒षजां॒ सुभि॑षक्तमाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । मे॒ । अ॒क्ष्यो: । आ॒ऽदि॒द्योत॑ । पार्ष्ण्यो॑: । प्रऽप॑दो: । च॒ । यत् । आप॑: । तत् । सर्व॑म् । नि: । क॒र॒न् । भि॒षजा॑म् । सुभि॑षक्ऽतमा: ॥२४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मे अक्ष्योरादिद्योत पार्ष्ण्योः प्रपदोश्च यत्। आपस्तत्सर्वं निष्करन्भिषजां सुभिषक्तमाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । मे । अक्ष्यो: । आऽदिद्योत । पार्ष्ण्यो: । प्रऽपदो: । च । यत् । आप: । तत् । सर्वम् । नि: । करन् । भिषजाम् । सुभिषक्ऽतमा: ॥२४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो [दुःख] (मे) मेरे (अक्ष्योः) दोनों नेत्रों में (पार्ष्ण्योः) दोनों एड़ियों में, (च) और (यत्) जो (प्रपदो) पाँव के दोनों पञ्जों में (आदिद्योत) चमक उठा है। (भिषजाम्) वैद्यों में (सुभिषक्तमाः) अति पूजनीय वैद्य रूप (आपः) परमेश्वर की व्यापक शक्तियाँ वा जलधारायें (तत्) उस (सर्वम्) सब को (निष्करन्) हटावें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वररचित पदार्थों के गुण जानकर अपना रोगनिवारण करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यत्) दुःखम् (मे) मम (अक्ष्योः) अ० २।३३।१। अक्ष्णोः (आदिद्योत) द्युत दीप्तौ लिटि छान्दसं परस्मैपदम्। आदिद्युते। समन्ताद् दिदीपे (पार्ष्ण्योः) अ० २।३३।५। गुल्फस्याधोभागयोः (प्रपदोः) अ० २।–३३।५। पादस्य पद्भावः। पादाग्रभागयोः (च) (यत्) (आपः) व्यापिकाः परमेश्वरशक्तयो जलधारा वा (तत्) सर्वम्। सकलं दुःखम् (निष्करन्) अ० २।९।५। लेटि रूपम्। इदुदुपधस्य०। पा० ८।३।४१। इति षत्वम्। बहिष्कुर्वन्तु (भिषजाम्) वैद्यानां मध्ये (सुभिषक्तमाः) अतिशयेन पूजनीया वैद्यरूपाः ॥

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    विषय

    जल से जलन का निराकरण

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो रोग (मे) = मेरी (अक्ष्यो:) = आँखों में (पार्ष्णयो:) = एडियों में (च) = और (यत्) = जो (प्रपदो:) = पौव के अग्नभाग में (आदिद्योत) = जलन-सी पैदा करता है, (तत् सर्वम्) = उस सब रोग को (आपः) = जल (निष्करन्) = दूर करते हैं। २. ये जल वस्तुत: (भिषजां सुभिषक्तमा:) = वैद्यों में सर्वोत्तम वैद्य हैं।

    भावार्थ

    किन्हीं रोगों में आँखें, एडियों व पाँवों के अग्रभाग में जलन उत्पन्न होती है। जलों के प्रयोग से यह जलन दूर की जाती है। जल इसके सर्वोत्तम औषध हैं।

     

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    भाषार्थ

    (यत्) जिस रोग ने (मे) मेरी (अक्ष्यो:) दोनों आंखों को (आदिद्योत) दाह युक्त किया है (यत् ) और जिसने (पार्ष्ण्यो:) दोनों एड़ियों ( प्रपदोश्च) दोनों पादों के अग्रभागों को दाह युक्त किया है, ( तत् सर्वम् ) उस सब दाह की (आपः) जल (निष्करन्) निर्गत कर देते हैं, अङ्गों से निकाल देते हैं, जो जल कि (भिषजाम् ) चिकित्सकों में (सुभिषत्तमाः) उत्तम चिकित्सक हैं।

    टिप्पणी

    [आप: द्वारा जल चिकित्सा का वर्णन हुआ है]

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    विषय

    हृदय रोग पर जल चिकित्सा।

    भावार्थ

    (यत्) जो रोग (मे) मेरे (अक्ष्योः) आंखों और (पाष्णर्योः) एड़ियों और (प्रपदोः च) पैरों के अगले हिस्सों में (आविद्योत) जलन पैदा करता है (तत् सर्वं) उस सब रोग को (आपः) जलधाराएं (निष्करन्) दूर कर देती हैं, क्योंकि वे ही (भिषजां) सब ओषधियों में (सुभिषक्-तमाः) उत्तम रोग की चिकित्सा करनेहारी हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। आपो देवताः। १-३ अनुष्टुभ्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apah, the Flow

    Meaning

    Whatever pain in my eyes, heels and feet ails and agitates me, may the streams of water, most efficacious of sanatives eliminate, and pacify me.

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    Translation

    Whatever burning was there in my eyes and in soles of my feet, the waters, the best healer among healers, have removed all that .

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    Translation

    These waters are most skilful physician amongst physician or most powerful medicine of all medicines. Let them remove all the rapture which injures my eyes, which injures my heels and which injures my toes.

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    Translation

    Whatever disease I have bad, that causes pain in the eyes, heels or toes, all this the waters; the best of medicines, shall cure.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यत्) दुःखम् (मे) मम (अक्ष्योः) अ० २।३३।१। अक्ष्णोः (आदिद्योत) द्युत दीप्तौ लिटि छान्दसं परस्मैपदम्। आदिद्युते। समन्ताद् दिदीपे (पार्ष्ण्योः) अ० २।३३।५। गुल्फस्याधोभागयोः (प्रपदोः) अ० २।–३३।५। पादस्य पद्भावः। पादाग्रभागयोः (च) (यत्) (आपः) व्यापिकाः परमेश्वरशक्तयो जलधारा वा (तत्) सर्वम्। सकलं दुःखम् (निष्करन्) अ० २।९।५। लेटि रूपम्। इदुदुपधस्य०। पा० ८।३।४१। इति षत्वम्। बहिष्कुर्वन्तु (भिषजाम्) वैद्यानां मध्ये (सुभिषक्तमाः) अतिशयेन पूजनीया वैद्यरूपाः ॥

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