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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    ऋषिः - चातन देवता - रुद्रः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - यातुधानक्षयण सूक्त
    55

    रु॒द्रो वो॑ ग्री॒वा अश॑रैत्पिशाचाः पृ॑ष्टीर्वोऽपि॑ शृणातु यातुधानाः। वी॒रुद्वो॑ वि॒श्वतो॑वीर्या य॒मेन॒ सम॑जीगमत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒द्र: । व॒: । ग्री॒वा: । अश॑रैत् । पि॒शा॒चा॒: । पृ॒ष्टी: । व॒: । अपि॑ । शृ॒णा॒तु॒ । या॒तु॒ऽधा॒ना॒:। वी॒रुत् । व॒:। वि॒श्वत॑:ऽवीर्या । य॒मेन॑ । सम् । अ॒जी॒ग॒म॒त् ॥३२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुद्रो वो ग्रीवा अशरैत्पिशाचाः पृष्टीर्वोऽपि शृणातु यातुधानाः। वीरुद्वो विश्वतोवीर्या यमेन समजीगमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुद्र: । व: । ग्रीवा: । अशरैत् । पिशाचा: । पृष्टी: । व: । अपि । शृणातु । यातुऽधाना:। वीरुत् । व:। विश्वत:ऽवीर्या । यमेन । सम् । अजीगमत् ॥३२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राक्षसों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (पिशाचाः) हे मांसभक्षक ! [रोगो वा प्राणियो] (रुद्रः) दुःखनाशक सेनापति ने (वः) तुम्हारे (ग्रीवाः) गले को (अशरैत्) तोड़ डाला है, (यातुधानाः) हे पीड़ादायको ! (वः) तुम्हारी (पृष्टीः) पसलियाँ (अपि) भी (शृणातु) तोड़े। (विश्वतोवीर्या) सब ओर से सामर्थ्यवाली (वीरुत्) विविध प्रकार से प्रकाशित होनेवाली शक्ति [परमेश्वर] ने (वः) तुमको (यमेन) नियम के साथ (सम् अजीगमत्) संयुक्त किया है ॥२॥

    भावार्थ

    प्रतापी राजा दुःखदायक शत्रु और रोगों का सदा प्रतीकार करे। उस परमात्मा ने सब के कर्मों को वेद द्वारा नियमबद्ध किया है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(रुद्रः) अ० २।२७।६। दुःखनाशकः सेनापति (वः) युष्माकम् (ग्रीवाः) गलावयवान् (अशरैत्) शॄ हिंसायां छान्दसं लुङि रूपम्। अशारीत्। शीर्णवान् (पिशाचाः) अ० १।१६।३। हे मांसभक्षका रोगाः प्राणिनो वा (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वस्थीनि (अपि) एव (शृणातु) छिनत्तु (यातुधानाः) अ० १।७।१। हे पीडाप्रदाः (वीरुत्) अ० १।३२।१। वि+रुह प्रादुर्भावे−क्विप्। विविधं प्रादुर्भवित्री शक्तिः, परमेश्वरः (वः) युष्मान् (विश्वतोवीर्या) सर्वतः सामर्थ्या (यमेन) नियमेन (सम् अजीगमत्) इण् गम्लृ गतौ वा णिचि लुङ्। संगमितवान् ॥

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    विषय

    रोगकृमि-विनाश

    पदार्थ

    १. हे (पिशाचा:) = हमारे मांस को खा जानेवाले रोगकृमियो ! (रुद्रः) = इस रोगद्रावक यज्ञाग्नि ने (वः ग्रीवा:) = तुम्हारी गर्दनों को (अशरत्) = हिसित किया है। हे (यातुधाना:) = यातना देनेवाले कृमियो! यह यज्ञाग्नि (व:) = तुम्हारी (पृष्टी: अपि शणातु) = पसलियों को भी तोड़ दे। २. विश्वतो (वीर्या वीरुत्) = यह अनन्तवीर्य-रोगों को कम्पित करने की शक्तिवाली-लतारूप ओषधि (व:) = तुम रोगकृमियों को (यमेन सम् अजीगमत्) = मृत्यु के साथ सङ्गत करे-तुम्हें समाप्त करनेवाली हो।

    भावार्थ

    यज्ञाग्नि रोगकमियों को ध्वंस करती है।

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    भाषार्थ

    (रुद्रः) रुद्ररूप परमेश्वर (पिशाचाः) हे मांसभक्षको ! (वः) तुम्हारी (ग्रीवाः) ग्रीवा की नस-नाड़ियों को (अशरैत्) काट दे, (यातुधानाः) हे यातना के निधानो ! (वः) तुम्हारी (पृष्टीः) पसलियों को (अपि ) भी, रुद्र (शृणातु) काट दे। (विश्वतोवीर्या) सर्वाधिक शक्ति वाली (वीरुत्) भेषज (वः) तुम्हें (यमेन) मृत्यु के साथ (सम् अजीगमत्) संगत कर दे।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर के प्रति आत्म-समर्पण से परमेश्वर रौद्र रूप प्रकट कर शरीर के मांस को खा जाने वाले तथा यातना देने वाले काम, क्रोध, इर्ष्या आदि दुर्भावों और दुष्कर्मों का विनाश कर देता है। परमेश्वर ही है औषध, जोकि इनके विनाश में सर्वतोवीर्या है। यथा– भेषजमसि भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय भेषजम्। सुखं मेषाय मेष्यै ।। यजु० ३॥५९॥ महीधर, उव्वट ने भी रुद्र को भेषज कहा है। यद्यपि मन्त्र वर्णित पिशाचों और यातुधानों के 'शरीर' नहीं, न उनकी ग्रीवाएं और पृष्टियां हैं, तथापि उन्हें पुरुष मान कर उनके पौरुषविधिक अंगों का वर्णन कविता रूप में हुआ है। यथा "यथो एतत् पौरुषविधिकैरङ्गै: स्तूयन्ते इत्यचेतनेष्वप्येतत् भवति। अभिक्रन्दन्ति हरितेभिरासभि:" (ऋ० १०।९४।२) इति ग्रावस्तुतिः (निरुक्त ७।२७)]

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    विषय

    दुष्टों के दमन का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (पिशाचाः) मांस खाने वाले दुष्ट पुरुषो ! एवं मांस खा खा कर जीने पाले परभोजी (Paresites) रोगजन्तुभो ! (वः) तुम्हारी (ग्रीवाः) गर्दनें (रुद्रः) रुद्र अर्थात् तुमको रुलाने वाला राजा और वैद्य (अशरैत्) काट ले। और हे (यातुधानाः) पीड़ादायक जन्तुओ ! वही रुद्र (वः पृष्टीः) तुम लोगों की पीठों को (अपि) भी (शृणातु) तोड़ डाले। और (विश्वतोवीर्या) समस्त प्रकार के बलों वाली या सब ओर अपना बल दिलाने वाली (वीरुत्) नाना प्रकार से फैलने वाली ओषधि लता जिस प्रकार रोग-जन्तुओं का नाश करती है उसी प्रकार वह (विश्वतो वीर्यां) सर्व बलवती (वीरुत्) विशेष प्रकार से रोकने में समर्थ रुद्र की शक्ति (वः) तुम दुष्ट पुरुषों को (यमेन) व्यवस्था के साथ (सम् मजीगमत्) सम्बन्ध करे, जिससे ये राष्ट्र में पीड़ा न दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-२ चातन ऋषिः। अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १-२ त्रिष्टुभौ। २ प्रस्तार पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Germs and other Organisms

    Meaning

    O blood sucking germs and insects, let Rudra, blazing fire of mid-day yajna, break your neck. O contagious evil doers, let the fire break the back of your resistance too. Let all round powerful herb of versatile efficacy join you with death.

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    Subject

    Rudrah

    Translation

    O blood-suckers, the terrible punisher (rudra) has broken your necks. May he, O tormenting germs, crush your ribs also. The plant, having all sorts of power, has made you approach the death.

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    Translation

    Let the powerful furious fire break the necks of the disease germs, let it split as under the ribs of the contagious germs and the medicinal herb possessing universal power as the remedy of these germs has allied itself with the physician who controls the diseases.

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    Translation

    O flesh-eating diseases or cannibals, may a physician or a king break your necks. O painful diseases or violent persons, may he split your ribs asunder! The Omnipotent God hath proclaimed His law for the actions of you all.

    Footnote

    He: A physician or a king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(रुद्रः) अ० २।२७।६। दुःखनाशकः सेनापति (वः) युष्माकम् (ग्रीवाः) गलावयवान् (अशरैत्) शॄ हिंसायां छान्दसं लुङि रूपम्। अशारीत्। शीर्णवान् (पिशाचाः) अ० १।१६।३। हे मांसभक्षका रोगाः प्राणिनो वा (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वस्थीनि (अपि) एव (शृणातु) छिनत्तु (यातुधानाः) अ० १।७।१। हे पीडाप्रदाः (वीरुत्) अ० १।३२।१। वि+रुह प्रादुर्भावे−क्विप्। विविधं प्रादुर्भवित्री शक्तिः, परमेश्वरः (वः) युष्मान् (विश्वतोवीर्या) सर्वतः सामर्थ्या (यमेन) नियमेन (सम् अजीगमत्) इण् गम्लृ गतौ वा णिचि लुङ्। संगमितवान् ॥

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