Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 33 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
    ऋषिः - जाटिकायन देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - इन्द्रस्तव सूक्त
    53

    नाधृ॑ष॒ आ द॑धृषते धृषा॒णो धृ॑षि॒तः शवः॑। पु॒रा यथा॑ व्य॒थिः श्रव॒ इन्द्र॑स्य॒ नाधृ॑षे॒ शवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । आ॒ऽधृ॒षे॒ । आ । द॒धृ॒ष॒ते॒ । धृ॒षा॒ण: । धृ॒षि॒त: । शव॑: । पु॒रा ।यथा॑ । व्य॒थि:। श्रव॑: । इन्द्र॑स्य । न । आ॒ऽधृ॒षे॒ । शव॑: । ३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाधृष आ दधृषते धृषाणो धृषितः शवः। पुरा यथा व्यथिः श्रव इन्द्रस्य नाधृषे शवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । आऽधृषे । आ । दधृषते । धृषाण: । धृषित: । शव: । पुरा ।यथा । व्यथि:। श्रव: । इन्द्रस्य । न । आऽधृषे । शव: । ३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सर्व लक्ष्मी पाने को उपदेश।

    पदार्थ

    (धृषितः) हारा हुआ शत्रु (धृषाणः=०−णस्य) हरानेवाले [इन्द्र] का (शवः) बल (न) नहीं (आधृषे=०−ष्टे) कुछ भी हराता है, (आ) कुछ भी (दधृषते) हराता है। (यथा) क्योंकि (व्यथिः) व्यथा में पड़ा हुआ शत्रु (पुरा) निकट होकर (इन्द्रस्य) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष के (श्रवः) यश और (शवः) बल को (न) नहीं (आधृषे) कुछ भी हराता है ॥२॥

    भावार्थ

    अधर्मी दुष्ट मनुष्य धर्म्मात्मा बलवानों को कदापि नहीं हरा सकते ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(न) निषेधे (आधृषे) धृष अभिभवे आदादित्वं छान्दसम्। लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। आधृष्टे। ईषद्धर्षयति अभिभवति (आ) ईषदर्थे, किञ्चित् (दधृषते) धर्षयति अभिभवति (धृषाणः) युधिबुधि०। उ० २।९०। इति धृष अभिवे−आनच् कित्। षष्ठ्यर्थे सुः। धृषाणस्य धर्षकस्य (धृषितः) अभिभूतः (शवः) बलम्−निघ० २।९। (पुरा) समीपे (यथा) यस्मात् (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति व्यथ दुःखसंचलनयोः−इन्। दुःखितः (श्रवः) श्रूयमाणं यशः (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवतो जीवस्य (न) (आधृषे) (शवः) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शत्रुधर्षक बल

    पदार्थ

    १. वह इन्द्र (न आधृषे) = औरों से अभिभूत नहीं होता, (आदधृषते) = यह शत्रुओं को समन्तात् धर्षण करनेवाला होता है, (धृषाण:) = यह शत्रुओं का धर्षण करनेवाला है ही। (धृषित:) = [धृषितं] (शवः) = इसका बल शत्रुओं का धर्षक है [धूषितं अस्य अस्ति]। २. (इन्द्रस्य) = इस शत्रु-संहारक प्रभु का (अव:) = ज्ञान (पुरा यथा) = पहले की भाँति, अर्थात् सदा से (व्यथि:) = शत्रुओं को पीड़ित करनेवाला है। प्रभु का ज्ञान हमारे सब शत्रुओं का संहारक है। वस्तुत: उस प्रभु का (शव:) = बल (न आधृषे) = कभी भी शत्रुओं से धर्षणीय नहीं होता।

    भावार्थ

    हम प्रभु का ज्ञान प्राप्त करते हुए प्रभु के बल को धारण करते हैं और इसप्रकार शत्रुओं से धर्षणीय नहीं होते।

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (धृषाणः) धर्षण करने वाला (शवः) इन्द्र का बल (आ दधृषते) सब का धर्षण करता है, (धृषितः) धर्षण किया जाता हुआ भी (न आधृषे) धर्षित होने योग्य नहीं होता। (पुरा) पुराकालों में (यथा) जैसे (व्यधिः) व्यथाकारी अर्थात् धर्षक (श्रवः) यश उसका रहा है, उस (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर का (शव:) बल (आधृषे न) अब भी धर्षित होने योग्य नहीं है।

    टिप्पणी

    [आ दधृषते = आ धर्षयति (सायण)। आधृषे =तुमन्नर्थे "केन्" प्रत्यय। धृषितः= नास्तिक न परमेश्वर को मानते, न ब्रह्माण्ड के उत्पादन और धारण और प्रलय में उस का बल ही मानते। वे अचेतन प्रकृति को ही उत्पादिका धारणकर्ती मानते हैं-यह ही परमेश्वर और उसके बल का धर्षण करना है। पुराकालों में ब्रह्माण्डों का उत्पादन, धारण प्रलय कितनी बार हुआ इसे कौन जानता है। ब्रह्माण्ड का प्रलय अर्थात् विनाश परमेश्वरकृत धर्षण का ही तो परिणाम है। "शवः बलनाम" (निघं२।९); तथा "शवतिर्गतिकर्मा" (निघं० २।१।२); तथा ' शव गतौ" (भ्वादिः)। इस सम्बन्ध में निरुक्तकार यास्काचार्य का कथन है कि "शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाष्यते। विकारमस्यार्येषु भाषन्ते शव इति" शव मृतशरीर (निरुक्त अ० २।पाद १। खण्ड २)। यह कथन वैदिक साहित्य के सम्बन्ध में नहीं, अपितु लौकिक संस्कृत साहित्य के सम्बन्ध में जानना चाहिये]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्र, परमेश्वर की महिमा।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (पुरा) पहले भी कभी (व्यथिः) कोई पीड़ा देने वाला अत्याचारी पुरुष (इन्द्रस्य श्रवः) इन्द्र के यश को और (शवः) बल को (न आ-धृषे) कभी दबा नहीं सका उसी प्रकार उसके (शवः) बल को अभीतक भी कोई (धृषितः) बड़ा विजेता भी (न आ. धृषे) दबाने में समर्थ नहीं हुआ है। बल्कि वह स्वयं (धृषाणः) सब का दबानेवाला, सर्वविजयी (धृषितः शवः) सब अभिमानी विजेताओं के बल को (आ दधृषते) दबा लेता है।

    टिप्पणी

    सुप सुपो भवन्ति इति षष्ठ्याः स्थाने प्रथमाः। धृषितः कर्तरि क्तः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जाटिकायन ऋषि। इन्द्रो देवता । १,३ गायत्री, २ अनुष्टुप। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Power of Indra

    Meaning

    The defeated dare not challenge, much less subdue, the might of potent and all victorious Indra. Indeed, as ever before, no tyrant can ever challenge the fame and power of Indra.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He is never dared against (nadhrsa), His daring strength dares against the darers. As in the old days, the tormenting glorious strength: of the resplendent Lord, has never been dared against.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    As ever any tyrant, path not defied the over-powering glamour and might of the Almighty Divinity so the most over-powering force of the world still is unable to assail His power and fame. In reality He is the highest Over-powering Lord who over-powers the force and fame of all.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    God is Unconquerable. His overpowering strength conquers even the unconquerable. As erst still, God is awe-inspiring. Unassailable is God's fame and force.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(न) निषेधे (आधृषे) धृष अभिभवे आदादित्वं छान्दसम्। लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। आधृष्टे। ईषद्धर्षयति अभिभवति (आ) ईषदर्थे, किञ्चित् (दधृषते) धर्षयति अभिभवति (धृषाणः) युधिबुधि०। उ० २।९०। इति धृष अभिवे−आनच् कित्। षष्ठ्यर्थे सुः। धृषाणस्य धर्षकस्य (धृषितः) अभिभूतः (शवः) बलम्−निघ० २।९। (पुरा) समीपे (यथा) यस्मात् (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति व्यथ दुःखसंचलनयोः−इन्। दुःखितः (श्रवः) श्रूयमाणं यशः (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवतो जीवस्य (न) (आधृषे) (शवः) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top