अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सूक्त
76
यस्य॑ कृ॒ण्मो ह॒विर्गृ॒हे तम॑ग्ने वर्धया॒ त्वम्। तस्मै॒ सोमो॒ अधि॑ ब्रवद॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । कृ॒ण्म: । ह॒वि: । गृ॒हे । तम् । अ॒ग्ने॒ । व॒र्ध॒य॒ । त्वम् । तस्मै॑ । सोम॑: । अधि॑ । ब्र॒व॒त् । अ॒यम् । च॒ । ब्रह्म॑ण: । पति॑: ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य कृण्मो हविर्गृहे तमग्ने वर्धया त्वम्। तस्मै सोमो अधि ब्रवदयं च ब्रह्मणस्पतिः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । कृण्म: । हवि: । गृहे । तम् । अग्ने । वर्धय । त्वम् । तस्मै । सोम: । अधि । ब्रवत् । अयम् । च । ब्रह्मण: । पति: ॥५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
धन और जीवन की वृद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(यस्य) जिस पुरुष के (गृहे) घर में (हविः) देने और लेने योग्य व्यवहार (कृण्मः) हम करते हैं, (तम्) उस को (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (त्वम्) तू (वर्धय) बढ़ा। (तस्मै) उसी पुरुष के लिये (अयम्) यह (सोमः) ऐश्वर्यवान् (च) और (ब्रह्मणः) वेदविद्या का (पतिः) रक्षक पुरुष (अधि) अधिक (ब्रवत्) कथन करे ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य सबका हितैषी होवे, वह परमेश्वर के अनुग्रह से वृद्धि करके ऐश्वर्यशाली विद्वानों में बड़ाई पावे ॥३॥
टिप्पणी
३−(यस्य) धार्मिकस्य (कृण्मः) कुर्मः (हविः) दातव्यं ग्राह्यं कर्म (गृहे) निवासे (तम्) (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् (वर्धय) समर्धय (त्वम्) (तस्मै) पूर्वोक्ताय पुरुषाय (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (अधि) अधिकम् (ब्रवत्) कथयेत् (अयम्) प्रसिद्धः (च) (ब्रह्मणः) वेदस्य (पतिः) पालकः ॥
विषय
यज्ञ और समृद्धि
पदार्थ
१. (यस्य गृहे) = जिसके घर में (हविः कृण्मः) = यज्ञ करते हैं, हे (अग्ने) = परमात्मन्! (तम्) = उसे (त्वम्) = आप (वर्धय) = बढ़ाइए। यज्ञ से सब ऐश्वयों का वर्धन होता ही है। २. (तस्मै) = उस यज्ञशील पुरुष के लिए (सोमः) = यह शान्तस्वभाव का आचार्य (अधिब्रवत्) = आधिक्येन ज्ञान देनेवाला हो, (च) = और (अयम्) = यह (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु उसे ज्ञान दे।
भावार्थ
यज्ञ समृद्धि का साधन है। इस यज्ञशील को शान्तस्वभाव के आचार्य ज्ञान देते हैं, प्रभु भी इसके ज्ञान के वर्धक होते हैं।
भाषार्थ
(यस्य) जिस के (गृहे) घर में (हविः कृण्मः) हविर्यज्ञ हम करते हैं (तम्) उसे (अग्ने) हे अग्नि ! (स्वम्) तू ( वर्धय ) बढ़ा (तस्मै ) उस [की वृद्धि] के लिये (सोमः) सेनाध्यक्ष, (च) और (अयम्) यह ( ब्रह्मणस्पतिः) वेदविद्या का विद्वान् (अधिब्रवत्) अधिक उपदेश किया करे।
टिप्पणी
[मन्त्र में अग्नि द्वारा परमेश्वर तथा यज्ञियाग्नि दोनों का ग्रहण है। यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः” (यजु० ३२।१) "गृहस्थी व्यक्ति" को राजनैतिक बुद्धि के लिये भी अग्नि से प्रार्थना की गई है। एतदर्थ सोम अर्थात् सेनाध्यक्ष (यजु० १७।४०) और वैदिक विद्वान् का कथन भी मन्त्र में हुआ है, ताकि इन दोनों का सहयोग यज्ञकर्ता को मिल सके। मन्त्र २ में पारिवारिक श्रेष्ठता का, तथा ३ में राजनैतिक अर्थात् राष्ट्रिय श्रेष्ठता का वर्णन हुआ है। यज्ञियाग्नि स्वास्थ्य प्रदान द्वारा वृद्धि करती है, और वेदज्ञ विद्वान् वेदोपदेश द्वारा]।
भाषार्थ
(यस्य) जिस के (गृहे) घर में (हविः कृण्मः) हविर्यज्ञ हम करते हैं (तम्) उसे (अग्ने) हे अग्नि ! (स्वम्) तू ( वर्धय ) बढ़ा (तस्मै ) उस [की वृद्धि] के लिये (सोमः) सेनाध्यक्ष, (च) और (अयम्) यह ( ब्रह्मणस्पतिः) वेदविद्या का विद्वान् (अधिब्रवत्) अधिक उपदेश किया करे।
टिप्पणी
[मन्त्र में अग्नि द्वारा परमेश्वर तथा यज्ञियाग्नि दोनों का ग्रहण है। यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः” (यजु० ३२।१) "गृहस्थी व्यक्ति" की राजनैतिक बृद्धि के लिये भी अग्नि से प्रार्थना की गई है। एतदर्थ सोम अर्थात् सेनाध्यक्ष (यजु० १७।४०) और वैदिक विद्वान् का कथन भी मन्त्र में हुआ है, ताकि इन दोनों का सहयोग यज्ञकर्ता को मिल सके। मन्त्र २ में पारिवारिक श्रेष्ठता का, तथा ३ में राजनैतिक अर्थात् राष्ट्रिय श्रेष्ठता का वर्णन हुआ है। यज्ञियाग्नि स्वास्थ्य प्रदान द्वारा वृद्धि करती है, और वेदज्ञ विद्वान् वेदोपदेश द्वारा]।
विषय
तेज, बल और ऐश्वर्य की प्रार्थना।
भावार्थ
(यस्य गृहे) जिसके घर में हम (हविः) यज्ञ के योग्य चरु और अन्न की योग्य रूपसे आहुति (कृण्मः) करते हैं हे अग्ने ! (तम्) उसको (त्वं) तू (वर्धय) बढ़ा, (तस्मै) उसके प्रति (सोमः) ज्ञानी पुरुष और (अयं च) यह (ब्रह्मणः पतिः) वेद का पालक विद्वान् भी (अधि ब्रवत्) नित्य उपदेश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १-३ अनुष्टुभौ। २ भुरिग् अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Progress by Yajna
Meaning
Agni, presiding power of yajna, raise and advance the man in whose house we light the fire and offer havi into the vedi, and Soma and Brahmanaspati, spirit of peace and prosperity and the lord divine of Veda too would appreciate and speak for him.
Translation
In whose house we perform sacrifice, O adorable Lord, may you augment him in every way. May the blissful Lord bless him and so also this Lord of divine knowledge (brahmanaspati)
Translation
Let the fire of yajna lead for progress and advancement to him in whose house we priests offer the oblation in fire. Let the spiritual man and the learned man mastered in Vedic speech preach him.
Translation
Prosper this man, O Agni, in whose house we perform Havan. May a learned fellow and this guardian of the Vedas bless him!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यस्य) धार्मिकस्य (कृण्मः) कुर्मः (हविः) दातव्यं ग्राह्यं कर्म (गृहे) निवासे (तम्) (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् (वर्धय) समर्धय (त्वम्) (तस्मै) पूर्वोक्ताय पुरुषाय (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (अधि) अधिकम् (ब्रवत्) कथयेत् (अयम्) प्रसिद्धः (च) (ब्रह्मणः) वेदस्य (पतिः) पालकः ॥
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