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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बृहच्छुक्र देवता - वैश्वानरः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्वतोरक्षण सूक्त
    77

    पुनः॑ प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा न॒ ऐतु॒ पुन॒श्चक्षुः॒ पुन॒रसु॑र्न॒ ऐतु॑। वै॑श्वान॒रो नो॒ अद॑ब्धस्तनू॒पा अ॒न्तस्ति॑ष्ठाति दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॑: । प्रा॒ण:। पुन॑: । आ॒त्मा । न॒: । आ । ए॒तु॒ । पुन॑: । चक्षु॑: । पुन॑: । असु॑: । न॒: । आ । ए॒तु॒ । वै॒श्वा॒न॒र: । न॒: । अद॑ब्ध: । त॒नू॒ऽपा: । अ॒न्त: । ति॒ष्ठा॒ति॒ ।दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ ॥५३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनः प्राणः पुनरात्मा न ऐतु पुनश्चक्षुः पुनरसुर्न ऐतु। वैश्वानरो नो अदब्धस्तनूपा अन्तस्तिष्ठाति दुरितानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन: । प्राण:। पुन: । आत्मा । न: । आ । एतु । पुन: । चक्षु: । पुन: । असु: । न: । आ । एतु । वैश्वानर: । न: । अदब्ध: । तनूऽपा: । अन्त: । तिष्ठाति ।दु:ऽइतानि । विश्वा ॥५३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    स्वास्थ्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुनः) बार-बार (प्राणः) प्राण, (पुनः) बार-बार (आत्मा) आत्मबल (नः) हमें (ऐतु) प्राप्त हो, (पुनः) बार-बार (चक्षुः) देखने का सामर्थ्य, (पुनः) बार-बार (असुः) बुद्धि (नः) हमें (ऐतु) प्राप्त हो। (अदब्धः) बेचूक, (तनूपाः) शरीरों का रक्षक (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी परमात्मा (नः) हमारे (विश्वा) सब (दुरितानि) कष्टों के (अन्तः) बीच में (तिष्ठाति) स्थित रहे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि सदा धर्म में प्रवृत्त रह कर परमेश्वर की आज्ञा पालन करें, जिससे विश्राम के पश्चात् और पुनर्जन्म में भी उत्तम शरीर और इन्द्रियाँ प्राप्त करके सुख भोगते रहें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० ४। म० १५ ॥

    टिप्पणी

    २−(पुनः) वारं वारम्। विश्रामानन्तरं द्वितीये जन्मनि वा (प्राणः) जीवस्थितिहेतुः प्राणवायुः (पुनः) (आत्मा) आत्मबलम् (नः) अस्मान् (ऐतु) आगच्छतु। प्राप्नोतु (पुनः) (चक्षुः) दर्शनशक्तिः (पुनः) (असुः) प्रज्ञा−निघ० ३।९। (नः) (ऐतु) (वैश्वानरः) सर्वनरहितः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (तनूपाः) शरीरपालकः (अन्तः) मध्ये। अन्तरान्तरेणयुक्ते। पा० २।३।४। इति द्वितीया (तिष्ठाति) लेट्। तिष्ठेत् (दुरितानि) दुःखानि (विश्वा) सर्वाणि ॥

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    विषय

    पुनः

    पदार्थ

    १. प्रतिदिन (पुन:) = फिर से (प्राण:) = प्राण (न:) = हमें (आ एतु) = प्रास हो। (पुनः) = फिर से आत्मा-मन हमें प्राप्त हो। (पुन:) = फिर से (चक्षुः) = दृष्टिशक्ति (नः आ एतु) = हमें प्राप्त हो और (पुन:) = फिर (असुः) = शरीर से मलों को परे फेंकने की शक्ति प्राप्त हो [अस क्षेपणे]। २. (वैश्वानरः) = [अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिना देहमाश्रितः। प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥] जाठराग्नि (न:) = हमारे (अन्त:) = अन्दर (विश्वा दुरितानि) = रोगनिदानभूत सब विकारों को (तिष्ठाति) = निवृत्त गतिवाला करता है। जाठराग्नि के ठीक होने पर रोग उत्पन्न नहीं होते। यह अग्नि (अदब्धः) = रोगादियों से हिंसित नहीं होता, यह (तनूपा:) = शरीर का रक्षक है।

    भावार्थ

    हमें प्रतिदिन प्राणशक्ति, मन, चक्षु, अपानशक्ति तथा रोगों को उत्पन्न न होने देती हुई जाठराग्नि प्राप्त हो।

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    भाषार्थ

    (पुनः) फिर (प्राण:) प्राण, (पुनः) फिर (आत्मा) आत्मा (न:) हमें (एतु) प्राप्त हो; (पुनः) फिर (चक्षुः) चक्षुः (पुनः) फिर (असुः) असु (नः) हमें (रेतु) प्राप्त हो; (वैश्वानरः) सब नर-रियों का हितकारी (अदब्धः) अहिंसित तथा (तनूपाः) तनू का रक्षक परमेश्वर या शारीरिक अग्नि (विश्वा दुरितानि) सब दुष्फलों का निवारण करता हुआ (नः अन्तः) हमारे भीतर अर्थात् शरीर में (तिष्ठाति) स्थित रहे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में पुनर्जन्म के लिये इच्छा प्रकट की गई है। प्राण है श्वास-प्रश्वास, और असु है शरीर और शरीराङ्गों में संचारी प्राण]।

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    विषय

    रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (नः) हमारा (प्राणः) प्राण (पुनः) फिर भी (आ एतु) प्राप्त हो जाता है (आत्मा पुनः आ एतु) हमारा (आत्मा) जीव हमें पुनः भी प्राप्त हो जाता है। (चक्षुः पुनः) यह आंख और उसके सहयोगी अन्य इन्द्रियां भी फिर फिर प्राप्त हो जाती हैं। (नः असुः पुन: एतु) यह प्राण भी हमें पुनः पुनः प्राप्त हो जाता है। क्यो ? क्योंकि (नः) हमारा (वैश्वानरः) नेता, प्राणों का स्वामी आत्मा (अदब्धः) कभी भी नहीं मरता। प्रत्युत वही (तनूपाः) समस्त शरीर की रक्षा करता है और (विश्वा दुरितानि) समस्त पाप कर्मों को जानता हुआ भी निराश न होकर (अन्तः तिष्ठाति) भीतर धैर्यवान् होकर विराजता है।

    टिप्पणी

    जीवस्य चेन्धनाग्नेश्च सदा नाशो न विद्यते। समिधामुपयोगान्ते सन्नेवाग्निर्नं दृश्यते। प्राणान् धारयते योऽग्निः स जीव उपधार्यताम्। न जीवनाशोऽस्ति हि देहमध्ये मिथ्यैतदाहुर्मृत इत्यबुद्धाः॥ जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति दशार्धतैवास्य शरीरभेदः॥ २७॥ (महाभारते शान्ति० अ० १८५)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहच्छुक्र ऋषिः। नाना देवताः। १ जगती। २-३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health Protection by Nature

    Meaning

    Again let pranic energy come to us, again let the soul along with the psychic complex come to us, again the eye, and again the life energy come to us. Vaishvanara, cosmic spirit of watchful life over humanity, undaunted protector of our life and body against all evils and negativities of the world abides at the very centre of our being. (The word ‘again’ is explained by Swami Dayananda as ‘again in this life or in the next birth’ in his commentary on Yajurveda 4, 15.)

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    Translation

    May the out-breath and the soul come again to us. May the vision and life comeragain to us. May the benefactor of all men, the irrepressible protector of our bodies, stay between ‘us and the evils

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    Translation

    Let us attain vital breath again, let us get our self into us again, let us have eyes again and let the Vitality come to us again. Let the immortal soul protecting the body and dispelling away diseases take its Seat in my heart.

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    Translation

    Again return to us our breath and spirit, again come back to us our vision and intellect. The immortal soul, the lord of organs, our bodies' guardian, knowing our sins, being undismayed rests patiently in us.

    Footnote

    The first part of the hymn preaches the doctrine of the transmigration of soul.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(पुनः) वारं वारम्। विश्रामानन्तरं द्वितीये जन्मनि वा (प्राणः) जीवस्थितिहेतुः प्राणवायुः (पुनः) (आत्मा) आत्मबलम् (नः) अस्मान् (ऐतु) आगच्छतु। प्राप्नोतु (पुनः) (चक्षुः) दर्शनशक्तिः (पुनः) (असुः) प्रज्ञा−निघ० ३।९। (नः) (ऐतु) (वैश्वानरः) सर्वनरहितः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (तनूपाः) शरीरपालकः (अन्तः) मध्ये। अन्तरान्तरेणयुक्ते। पा० २।३।४। इति द्वितीया (तिष्ठाति) लेट्। तिष्ठेत् (दुरितानि) दुःखानि (विश्वा) सर्वाणि ॥

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