अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सामंनस्यम्, नाना देवताः, त्रिणामा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
47
सं॒ज्ञप॑नं वो॒ मन॒सोऽथो॑ संज्ञप॑नं हृ॒दः। अथो॒ भग॑स्य॒ यच्छ्रा॒न्तं तेन॒ संज्ञ॑पयामि वः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽज्ञप॑नम् । व॒: । मन॑स: । अथो॒ इति॑ । स॒म्ऽज्ञप॑नम् । हृ॒द: । अथो॒ इति॑ । भग॑स्य । यत् । श्रा॒न्तम् । तेन॑ । सम्ऽज्ञ॑पयामि । व॒: ॥७४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
संज्ञपनं वो मनसोऽथो संज्ञपनं हृदः। अथो भगस्य यच्छ्रान्तं तेन संज्ञपयामि वः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽज्ञपनम् । व: । मनस: । अथो इति । सम्ऽज्ञपनम् । हृद: । अथो इति । भगस्य । यत् । श्रान्तम् । तेन । सम्ऽज्ञपयामि । व: ॥७४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
एकमता के लिये उपदेश।
पदार्थ
(वः) तुम्हारे (मनसः) मनन का (संज्ञपनम्) विज्ञापन (अथो) और भी (हृदः) हृदय का (संज्ञपनम्) संतोषक कर्म होवे। (अथो) और भी (भगस्य) भगवान् [की प्राप्ति] का (यत्) यो (श्रान्तम्) तप है, (तेन) उस कारण से (वः) तुमको (संज्ञपयामि) मैं संतुष्ट करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग पूर्ण विद्या प्राप्त करके शुद्ध हृदय से भगवान् की भक्ति करके संसार में विद्या प्रचार करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(संज्ञपनम्) ज्ञा मारणतोषणनिशामनेषु ज्ञापने स्तुतौ च−णिचि, ल्युट्। विज्ञापनं प्रकाशनम् (वः) युष्माकम् (मनसः) मननस्य विचारस्य (अथो) अपि च (संज्ञपनम्) सन्तोषणम् (हृदः) हृदयस्य (अथो) (भगस्य) भगवतः परमेश्वरस्य (यत्) (श्रान्तम्) श्रमु तपसि खेदे च भावे−क्त। तपः। जितेन्द्रियत्वम् (तेन) कारणेन (संज्ञपयामि) संतोषयामि। स्तौमि (वः) युष्मान् ॥
विषय
ज्ञान व ऐश्वर्य
पदार्थ
१. (वः) = तुम्हारे (मनस:) = ज्ञान-साधन मनरूप इन्द्रिय का (संज्ञपनम्) = सम्यक् ज्ञान-जनन हो। तुम्हारे मन ज्ञान-प्रासि में सम्यक् प्रवृत्त हों, (अथ उ) = अब निश्चय से (हृदः) = तुम्हारे हृदय का भी (संज्ञपनम्) = सम्यक् ज्ञान-जनन हो, तुम्हारे हृदयों में ज्ञान-प्राप्ति के लिए श्रद्धा हो। २. (अथ उ) = अब ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् गृहस्थ बनने पर (भगस्य यत् श्रान्तम्) = ऐश्वर्य का जो श्रमजनित तप है [नाम्यति अस्मिन्] (तेन) = ऐश्वर्य-प्राप्ति के लिए होनेवाले उस श्रम-जनित तप से (व:) = तुम्हें (संज्ञपयामि) = समान ज्ञानवाला करता हूँ। वस्तुत: जब तक राष्ट्र में 'श्रम से धन प्राप्ति की भावना' बनी रहती है तब तक लोगों में परस्पर प्रेम भी बना रहता है।
भावार्थ
हमारे मन व हृदय ज्ञान-प्राप्ति के कर्म में सम्यक् प्रवृत्त हों। हम सदा श्रमपूर्वक ही धनार्जन की वृत्तिवाले बनकर परस्पर प्रेम से रहें।
भाषार्थ
(वः) तुम्हारे (मनसः) मनों का (संजपनम्) सांमनस्य हो, (अथो) तथा (हृदः) हृदयों का (संज्ञपनम्) सांमनस्य हो। (अथो) तथा (भगस्य) भजनीय परमेश्वर का (यत्) जो (श्रान्तम्) तपोरूप वेदज्ञान है (तेन) उस द्वारा (वः) तुम्हें (संज्ञपयामि) हम एकमत वाले तथा सम्यक् ज्ञानसम्पन्न करते हैं।
टिप्पणी
[मनों का साम्मनस्य है एकविचार, हृदयों का साम्मनस्य है एकसदृश भावनाएं। श्रान्तम्= श्रमु तपसि खेदे च (दिवादिः)। तथा 'यस्य ज्ञानमयं तपः' (मुण्डक १।१।९)।]
विषय
एकचित्त होकर रहने का उपदेश।
भावार्थ
(वः) आप लोगों के (मनसः) चित्त को (सं-ज्ञपनम्) उत्तम रीति से ज्ञानसम्पन्न करता हूं। (अथो) और (हृदः) हृदयों को (संज्ञपनम्) उत्तम ज्ञानवान् करता हूं। (अथो) और (भगस्य) ऐश्वर्यशील राजा का (यत्) जो (श्रान्तम्) परिश्रम है (तेन) उससे भी (वः) आप लोगों को (सं-ज्ञपयामि) अच्छी तरह से परिचित कराता हूं। अर्थात् राजा के प्रतिनिधिगण प्रजा के चित्तों को शिक्षित करें, उनको राष्ट्र के हितों को विचारने का अवसर दें, हृदयों में एक दूसरे के प्रति सच्चे भाव उत्पन्न करें और प्रजाजन राजा के उत्तम भावों को जानें। इस प्रकार प्रजा शिक्षित, संगठित होकर राजा के अधीन रहे। मूर्ख और फुटैल प्रजा पर असत्य से राजा शासन न करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Unity and Prosperity
Meaning
The harmony and unity of your mind, the harmony and unity of your hearts, and the ultimate command of Bhaga, spirit of glory and prosperity that there is, with all these I enlighten and harmonize you.
Translation
Let there be a common understanding of your minds and common understanding of your hearts. And thefs, what is weariness of your good fortune, with that I make you understand each other. -
Translation
Let there be unanimity of your minds, let there be concordance of your hearts, and I make you know with the great turmoil which the King of the country is undertaking.
Translation
Let there be union of your minds, let there be union of your hearts. I admire you for your penance for the attainment of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(संज्ञपनम्) ज्ञा मारणतोषणनिशामनेषु ज्ञापने स्तुतौ च−णिचि, ल्युट्। विज्ञापनं प्रकाशनम् (वः) युष्माकम् (मनसः) मननस्य विचारस्य (अथो) अपि च (संज्ञपनम्) सन्तोषणम् (हृदः) हृदयस्य (अथो) (भगस्य) भगवतः परमेश्वरस्य (यत्) (श्रान्तम्) श्रमु तपसि खेदे च भावे−क्त। तपः। जितेन्द्रियत्वम् (तेन) कारणेन (संज्ञपयामि) संतोषयामि। स्तौमि (वः) युष्मान् ॥
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