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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिरा देवता - सोमः छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - चिकित्सा सूक्त
    57

    यच्चक्षु॑षा॒ मन॑सा॒ यच्च॑ वा॒चोपा॑रि॒म जाग्र॑तो॒ यत्स्व॒पन्तः॑। सोम॒स्तानि॑ स्व॒धया॑ नः पुनातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । चक्षु॑षा । मन॑सा । यत् । च॒ । वा॒चा । उ॒प॒ऽआ॒स्मि॒ । जाग्र॑त: । यत् । स्व॒पन्त॑: । सोम॑: । तानि॑ । स्व॒धया॑ । न॒: । पु॒ना॒तु॒ ॥९६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्चक्षुषा मनसा यच्च वाचोपारिम जाग्रतो यत्स्वपन्तः। सोमस्तानि स्वधया नः पुनातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । चक्षुषा । मनसा । यत् । च । वाचा । उपऽआस्मि । जाग्रत: । यत् । स्वपन्त: । सोम: । तानि । स्वधया । न: । पुनातु ॥९६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ओषधियों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो कुछ पाप (चक्षुषा) नेत्र से (च) और (यत्) जो कुछ (मनसा) मन से और (यत्) जो कुछ (वाचा) वाणी से (जाग्रतः) जागते हुए [अथवा] (स्वपन्तः) सोते हुए (उपारिम) हमने किया है। (सोमः) बड़े ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (नः) हमारे (तानि) उन पापों की (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (पुनातु) शुद्ध करे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर के विचार और युक्त आहार-विहार से सोते-जागते सदा धर्म का विचार और अनुष्ठान करते रहें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) पापम्। किल्बिषम्। मन्त्र २ (चक्षुषा) नेत्रेण (मनसा) मननसाधकेन चित्तेन (वाचा) वाण्या (उपारिम) अ० ६।४५।२। कृतवन्तः (जाग्रतः) जागृ निद्राक्षये−शतृ। जक्षित्यादयः षट्। पा० ६।१।६। इत्यभ्यस्तत्वात्। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमभावः। जागरदवस्थापन्नाः (स्वपन्तः) निद्रालवः (सोमः) सर्वैश्वर्यवान् जगदीश्वरः, (तानि) किल्बिषाणि (स्वधया) अ० २।२९।७। स्व+डुधाञ् धारणपोषणयोः−क, टाप्। आत्मधारणशक्त्या (नः) अस्माकम् (पुनातु) शोधयतु ॥

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    विषय

    चक्षुषा, मनसा, वाचा

    पदार्थ

    १. हम (यत्) = जो (चक्षुषा) = आँख से (यत् च) = और जो (मनसा) = मन से (यत् च) = तथा जो (वाचा) = वाणी से (उपारिम) = पाप कर बैठते हैं। (यत्) = जिस पाप को हम (जानत:) = जागते हुए या (स्वपन्त:) = सोते हुए कर बैठते हैं, (सोमः) = सोम (न:) = हमारे (तानि) = उन सब पापों को (स्वधया) = अपनी धारणशक्ति से (पुनातु) = शुद्ध कर डाले।

    भावार्थ

    सौम्य ओषधियों का प्रयोग हमें आँख, वाणी व मन से हो जानेवाले सब दोषों से मुक्त करता है। जागते-सोते कोई भी दोष इस ओषधि के प्रयोग से हमें पीड़ित नहीं कर पाता। इन ओषधियों के प्रयोग से हम मन में किसी का बुरा नहीं सोचते, किसी को दोषयुक्त दृष्टि से नहीं देखते तथा किसी के प्रति क्रोध-भरे वचन नहीं बोलते।

    विशेष

    आँख, वाणी व मन के दोषों से मुक्त होकर हम 'मित्रावरुणौ' के उपासक बनते हैं। सबके प्रति स्नेहवाले व प्राणिमात्र के प्रति निर्देषतावाले हम 'अथर्वा' बनते हैं-राग-द्वेष से दोलायमान न होनेवाले। अगले तीन सूक्तों का ऋषि यह 'अथर्वा' ही है।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो पाप (चक्षुषा) चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा, (मनसा) संकल्प-विकल्प द्वारा, (यत् च) और जो (वाचा) वाणी आदि कर्मन्द्रियों द्वारा (जाग्रतः) जागते हुए, (यत्) तथा जो (स्वपन्तः) स्वप्नावस्था में (उपारिम) हम ने उपगत किया है, प्राप्त किया है, (तानि नः) उन हमारे पापों को (सोमः) सोम-औषध, (स्वधया) स्वनिष्ठ शक्ति द्वारा, (पुनातु) पवित्र करे, उन का संशोधन करे।

    टिप्पणी

    [उपारिम =उप+ऋ (गरतौ), लिटि। सोम पद द्वारा सोम, और सोम जिनका राजा है वे सेंकड़ों ओषधियां अभिप्रेत हैं (मन्त्र १)]।

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    विषय

    पाप-मोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (जाग्रतः) जागते हुए हम लोग (यत्) जो कुछ (चक्षुषा) आँख से और (यत् च मनसा) जो कुछ मन से और (वाचा) वाणी से (उपारिम) प्राप्त करें, और (यत् स्वपन्तः) जो कुछ सोते हुए भी मन आदि से संकल्प विकल्प करें या वाणी से बात कहें (तानि) उन सब ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों के गृहीत ज्ञानों और किये कामों को (नः) हमारा (सोमः) सब का प्रेरक आत्मा या विद्वान् पुरुष (स्वधा) अपनी धारणा, मनन, विवेक शक्ति से (पुनातु) पवित्र करे। आंख आदि बाह्मेन्द्रिय, वाणी आदि कर्मेन्द्रिय और मन, अर्थात् अन्तःकरण इनके किये पर मनुष्य स्वयं अपनी बुद्धि से विवेक करे तो उसके आत्मा पर बुरा पाप संकल्प नहीं रहता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। देवता १,२ वनस्पतिः,३ सोमः। १,२ अनुष्टुभः,३ विराण्नामगायत्री। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Herbs and Freedom from

    Meaning

    Whatever faults of omission or commission we do by eye or mind, whatever with tongue and speech, whether awake or asleep, of all those may soma, the herb, and Soma, lord of peace, cleanse us and save us from them.

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    Subject

    Soma

    Translation

    Whether awake or asleep, whatever defect we have acquired through vision, mind or speech, may the blissful Lord (Soma plant) purify that with His power of sustenance.

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    Translation

    Let this moon or Soma herb cleanse us with its effective power from the oilments which we develop by overseeing, by more mental exertion, by more talking and which we develop my over sleeping and by over-walking.

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    Translation

    From every sin, we have committed, awake or sleeping, with our eye, mind or tongue, may God, with his pure nature, cleanse us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) पापम्। किल्बिषम्। मन्त्र २ (चक्षुषा) नेत्रेण (मनसा) मननसाधकेन चित्तेन (वाचा) वाण्या (उपारिम) अ० ६।४५।२। कृतवन्तः (जाग्रतः) जागृ निद्राक्षये−शतृ। जक्षित्यादयः षट्। पा० ६।१।६। इत्यभ्यस्तत्वात्। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमभावः। जागरदवस्थापन्नाः (स्वपन्तः) निद्रालवः (सोमः) सर्वैश्वर्यवान् जगदीश्वरः, (तानि) किल्बिषाणि (स्वधया) अ० २।२९।७। स्व+डुधाञ् धारणपोषणयोः−क, टाप्। आत्मधारणशक्त्या (नः) अस्माकम् (पुनातु) शोधयतु ॥

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