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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कल्याण के लिए यत्न
    98

    अ॒भि त्वे॑न्द्र॒ वरि॑मतः पु॒रा त्वां॑हूर॒णाद्धु॑वे। ह्वया॑म्यु॒ग्रं चे॒त्तारं॑ पु॒रुणा॑मानमेक॒जम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । इ॒न्द्र॒ । वरि॑मत: । पु॒रा । त्वा॒ । अं॒हू॒र॒णात् । हु॒वे॒ । ह्वया॑मि । उ॒ग्रम् । चे॒त्तार॑म् । पु॒रुऽना॑मानम् । ए॒क॒ऽजम् ॥९९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वेन्द्र वरिमतः पुरा त्वांहूरणाद्धुवे। ह्वयाम्युग्रं चेत्तारं पुरुणामानमेकजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । इन्द्र । वरिमत: । पुरा । त्वा । अंहूरणात् । हुवे । ह्वयामि । उग्रम् । चेत्तारम् । पुरुऽनामानम् । एकऽजम् ॥९९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे संपूर्ण ऐश्वर्यवाले इन्द्र जगदीश्वर ! (त्वा त्वाम्) तुझको, तुझको (वरिमतः) तेरे विस्तार के कारण (अंहूरणात्) पापवाले कर्म से (पुरा) पहिले (अभि) सब ओर से (हुवे) मैं बुलाता हूँ। (उग्रम्) तेजस्वी, (चेत्तारम्) सत्य और असत्य के जाननेवाले, (पुरुनामानम्) अनेक उत्तम नामवाले, (एकजम्) अकेले उत्पन्न [अद्वितीय, तुझ प्रभु] को (ह्वयामि) मैं पुकारता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि उस जगदीश्वर को सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् जान कर पाप कर्म को छोड़ कर शुभ कर्म करते रहें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अभि) अभितः (त्वा) त्वाम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (वरिमतः) अ० ४।५।२। उरुत्वात्। विस्तारहेतोः (पुरा) पूर्वम् (त्वा) (अंहूरणात्) खर्जिपिञ्जादिभ्य ऊरोलचौ। उ० ४।९०। इति अहि गतौ−ऊर−प्रत्ययः, इदित्त्वान्नुम्। पामादिभ्यो नः। वा० पा० ५।२।१००। इति मत्वर्थे नः। आङ्पूर्वाद्धन्तेर्वा रूपमुन्नेयम्। अंहुरोंऽहस्वान्नहूरणमित्यप्यस्य भवति−निरु० ६।२७। अंहस्वतः पापयुक्तात् कर्मणः (हुवे) ह्वयामि (ह्वयामि) (उग्रम्) तेजस्विनम् (चेत्तारम्) सत्यासत्ययोर्विज्ञातारम् (पुरुनामानम्) पुरुभिर्बहुभिः प्रशस्तैर्नामधेयैर्युक्तम् (एकजम्) एकं जातम्। अद्वितीयम् ॥

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    विषय

    पुरा अंहूरणात्

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक राजन् । (वरिमत:) = तेरी शक्तियों के विस्तार के कारण (त्वा अभि हुवे) = मैं तुझे पुकारता हूँ। (अंहरणात् पुरा त्वा) [हुवे] = पराजय का कारण होनेवाले कुटिलगमन से पूर्व ही मैं तुझे पुकारता हूँ। २. (उग्रम्) = उद्गुर्णं बलवाले (चेत्तारम्) = विजय के उपायों को समझनेवाले, (पुरुणामानम्) = अनेक शत्रुओं को झुका देनेवाले, (एकजम्) = युद्धों में अकेले ही चमकनेवाले तुझे (हृयामि) = मैं पुकारता हूँ।

    भावार्थ

    राजा शत्रुओं के आक्रमण से होनेवाली दुर्गाति से पूर्व ही राष्ट्र-रक्षा की व्यवस्था करता है।

     

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवाले परमेश्वर ! (वरिमतः) सर्वव्यापक होने से (अंहुरणात्) हनन होने से (पुरा) पूर्व ही (त्वा) तुझे (अभि हुवे) स्वाभिमुख बुलाता हूं। (उग्रम्) तुझ उग्र को, (चेत्तारम्) ज्ञानी को, (पुरुणा मानम्) बहुत नामों वाले अथवा नाना शत्रुओं को नत करने वाले को, तथा (एकजम्) अकेले ही जगत् पैदा करने वाले को (ह्वयामि) मैं आह्वान करता हूं।

    टिप्पणी

    [देवासुर-संग्राम में आसुर शक्तियों अर्थात् काम, क्रोध लोभ, मोह आदि द्वारा निज हनन को अनुभव करता हुआ उपासक, जगत् के कर्ता का, साक्षात् आह्वान करता है। वरिमतः = गुरु + इमनिच्: वर् आदेश, "प्रियस्थिर" (अष्टा० ६।४।१५७) द्वारा। अंहूरणात् ="अंहुरः अंहस्वान्; अंहूरणमित्यप्यस्य भवति" (निरुक्त ६।५।२७), तथा ४।२५); अंहूर = आ+ हन+र। एकजम् = अथवा "एकेन प्रकृतिरूपेण कारणेन जनयतीति" (अथर्व० १०।८।५)]।

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    विषय

    राष्ट्ररक्षा का उपाय।

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! राजन् ! विद्वन् आचार्य ! (वरिमतः) तेरे महान् होने के कारण ही मैं (त्वा अभि) तेरे समीप रहता हूं और (पुरा अंहूरणात्) किसी घोर पाप या संकट के पूर्व ही (त्वा हुवे) तुझे पुकारता हूं, क्योंकि मैं चाहता हूं कि सदा (उग्रम्) बलवान् (चेत्तारम्) स्वयं ज्ञानी (पुरु-नामानम्) बहुत प्रकार की वशीकरण साधनों से सम्पन्न (एक-जम्) अकेले, स्वयं सामर्थ्यवान् पुरुष को (ह्वयामि) संकट में बुलाऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता, ३ सोमः सविता च देवते। १, २ अनुष्टुभौ। ३ भुरिग् बृहती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Protection

    Meaning

    Before the possibility of an onslaught of sin and distress, O lord omnipotent, Indra, I invoke you as the lord of boundless bliss and well being, blazing in glory, giver of enlightenment, commanding universal majesty, the sole manifestation of incomparable divinity. (And I am then unassailable.)

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    Subject

    Indrah

    Translation

    O resplendent Lord, due to your greatness, even before distress I call upon you; I call upon you, the formidable, the correcter, the one having many names and born alone.

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    Translation

    O King! due to your supremacy I call you before and affliction comes, I call for my rescue to you who is vigorous, conscious of things to happen, possessed of many splendors and equal to none.

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    Translation

    O God, before affliction comes, I call Thee, on account of Thy greatness. I invoke Thee, the Mighty, the Knower of Truth and Untruth, the Bearer of many names, and the Peerless!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अभि) अभितः (त्वा) त्वाम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (वरिमतः) अ० ४।५।२। उरुत्वात्। विस्तारहेतोः (पुरा) पूर्वम् (त्वा) (अंहूरणात्) खर्जिपिञ्जादिभ्य ऊरोलचौ। उ० ४।९०। इति अहि गतौ−ऊर−प्रत्ययः, इदित्त्वान्नुम्। पामादिभ्यो नः। वा० पा० ५।२।१००। इति मत्वर्थे नः। आङ्पूर्वाद्धन्तेर्वा रूपमुन्नेयम्। अंहुरोंऽहस्वान्नहूरणमित्यप्यस्य भवति−निरु० ६।२७। अंहस्वतः पापयुक्तात् कर्मणः (हुवे) ह्वयामि (ह्वयामि) (उग्रम्) तेजस्विनम् (चेत्तारम्) सत्यासत्ययोर्विज्ञातारम् (पुरुनामानम्) पुरुभिर्बहुभिः प्रशस्तैर्नामधेयैर्युक्तम् (एकजम्) एकं जातम्। अद्वितीयम् ॥

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