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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - विष्णु सूक्त
    39

    त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। इ॒तो धर्मा॑णि धा॒रय॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । प॒दा । वि । च॒क्र॒मे॒ । विष्णु॑: । गो॒पा: । अदा॑भ्य: । इ॒त: । धर्मा॑णि । धा॒रय॑न् ॥२७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । पदा । वि । चक्रमे । विष्णु: । गोपा: । अदाभ्य: । इत: । धर्माणि । धारयन् ॥२७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (गोपाः) सर्वरक्षक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा) जानने योग्य वा पाने योग्य पदार्थों [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) समर्थ [शरीरधारी] किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों वा धारण करनेवाले [पृथिवी आदि] को (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥५॥

    भावार्थ

    जो परमेश्वर नानाविध जगत् को रचकर धारण कर रहा है, उसी की उपासना सब मनुष्य नित्य किया करें ॥५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु० ३४।४३; और साम० उ० ८।२।५।

    टिप्पणी

    ५−(त्रीणि) (पदा) पदानि ज्ञातव्यानि प्राप्तव्यानि वा कारणस्थूलसूक्ष्मरूपाणि, अथवा भूम्यन्तरिक्षद्युलोकरूपाणि पदार्थजातानि (वि चक्रमे) विक्रान्तवान्। समर्थानि सावयवानि कृतवान् (विष्णुः) अन्तर्यामीश्वरः (गोपाः) अ० ५।९।८। गोपायिता। रक्षकः (अदाभ्यः) अ० ३।२१।४। अहिंस्यः। अजेयः (इतः) अस्मात्कारणात् (धर्म्माणि) धर्मान् धारकाणि पृथिव्यादीनि या (धारयन्) पोषयन्। वर्धयन् वर्तत इति शेषः ॥

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    विषय

    विष्णुः गोपाः अदाभ्यः

    पदार्थ

    १. वे (विष्णु:) = व्यापक प्रभु (गोपा:) = गोपायिता [रक्षक] हैं, (अदाभ्यः) = अहिंस्य हैं, किसी से भी अभिभूत करने योग्य नहीं हैं। वे प्रभु (त्रीणि पदा विचक्रमे) = तीन कदमों को रखते हैं, इन लोकों का निर्माण करते हैं, धारण करते हैं और प्रलय करते हैं। २. (इत:) = [इतं गतम् अस्यास्तीति इत:] वे गतिशील प्रभु (धर्माणि) = भूतों को धारण करनेवाले 'पृथिवी,अन्तरिक्ष व युलोक' को (धारयन्) = धारण करते हैं। सब गतियों के स्रोत वे प्रभु ही हैं, वे इन सब लोकों को धारण कर रहे हैं।

    भावार्थ

    वे प्रभु व्यापक, रक्षक व अहिंस्य हैं, वे इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय करते हैं। सब गतियों के स्रोत होते हुए वे इन लोकों को धारण कर रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (गोपाः) रक्षक (विष्णुः) सर्वव्यापक (अदाभ्यः) अपराभवनीय परमेश्वर ने (त्रीणि पदा) तीन पादों का (विचक्रमे) विक्षेप किया। (इतः) इन पादों द्वारा (धर्माणि) ब्रह्माण्ड के धारक तत्त्वों का (धारयन्) धारण करते हुए।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Omnipresent Vishnu

    Meaning

    Vishnu, intrepidable, potent protector and sustainer of the world of existence, created the threefold order of the universe and pervades it, thereby ordaining and sustaining the laws of its creative evolution, sustenance and involution.

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    Translation

    The omnipresent God, the preserver of the indomitable, created three regions, the earth, mid-region and the celestial. He sustains and preserves the sanctity of all vital functions that keep life ticking.(Also Rg. X.22.18)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.27.5AS PER THE BOOK

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    Translation

    The All-pervading Divinity who is the guardian of all and whom none can overpower has created the objects of the universe in three order ordaining the laws of nature from within.

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    Translation

    The Unconquerable, Protecting, All-pervading God, establishing His sacred laws, is thenceforth the Creator of the three steps of the causal, subtle and gross forms.

    Footnote

    Three steps may also mean. Earth, Atmosphere and Sun, or the three conditions of the soul, waking (Jagrit) sleeping (swapna) (sushupti) profound sleep. These words may also mean, creation, sustenance and dissolution of the universe. See Yajur, 34-43

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(त्रीणि) (पदा) पदानि ज्ञातव्यानि प्राप्तव्यानि वा कारणस्थूलसूक्ष्मरूपाणि, अथवा भूम्यन्तरिक्षद्युलोकरूपाणि पदार्थजातानि (वि चक्रमे) विक्रान्तवान्। समर्थानि सावयवानि कृतवान् (विष्णुः) अन्तर्यामीश्वरः (गोपाः) अ० ५।९।८। गोपायिता। रक्षकः (अदाभ्यः) अ० ३।२१।४। अहिंस्यः। अजेयः (इतः) अस्मात्कारणात् (धर्म्माणि) धर्मान् धारकाणि पृथिव्यादीनि या (धारयन्) पोषयन्। वर्धयन् वर्तत इति शेषः ॥

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