अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । कर्मा॑णि । प॒श्य॒त॒ । यत॑: । व्र॒तानि॑ । प॒स्प॒शे । इन्द्र॑स्य । युज्य॑: । सखा॑ ॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । कर्माणि । पश्यत । यत: । व्रतानि । पस्पशे । इन्द्रस्य । युज्य: । सखा ॥२७.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(विष्णोः) सर्वव्यापक विष्णु के (कर्माणि) कर्मों [जगत् का बनाना, पालन, प्रलय आदि] को (पश्यत) देखो, (यतः) जिससे उसने (व्रतानि) व्रतों [सब के कर्त्तव्य कर्मों] को (पस्पशे) बाँधा है। (युज्यः) वह योग्य [अथवा सब से संयोग रखनेवाले दिशा, काल, आकाश आदि में रहनेवाला] परमेश्वर (इन्द्रस्य) जीव का (सखा) सखा है ॥६॥
भावार्थ
जिस परमेश्वर ने संसार रचकर सबको नियम में बाँधा है, वही सब में रमकर सबका हितकारी है ॥६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु०-६।४, १३।३३; और साम० उ०-८।२।५ ॥
टिप्पणी
६−(विष्णोः) व्यापकस्य (कर्माणि) जगदुत्पत्तिस्थितिसंहारादीनि (पश्यत) संप्रेक्षध्वम् (यतः) येन (व्रतानि) कर्त्तव्यकर्माणि (पस्पशे) स्पश बन्धनस्पर्शनयोः-लिट्। बद्धवान्। नियमितवान् (इन्द्रस्य) जीवस्य (युज्यः) युज-क्यप्, योग्यः। यद्वा। युज-क्विप्, भवे यत्। युञ्जन्ति व्याप्त्या सर्वान् पदार्थान् ते युजो दिक्कालाकाशादयस्तत्र भवः (सखा) मित्रम् ॥
विषय
इन्द्रस्य युग्यः सखा
पदार्थ
१. (विष्णोः) इस व्यापक प्रभु के (कर्माणि पश्यत) = कर्मों को देखो। (यत:) = जिन कर्मों से जीव (व्रतानि) = अपने व्रतों को (पस्पशे) = [स्पश बन्धनस्पर्शनयोः] स्पृष्ट करता है, या ब्रतरूप में अपने में बाँधता है। जैसेकि प्रभु दयालु हैं, तो यह उपासक भी दयालु होने का व्रत लेता है। २. वे विष्णु ही (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (युज्य: सखा) = सदा साथ रहनेवाले साथी है।
भावार्थ
प्रभु-स्तवन करते हुए हम प्रभु के अनुसार कर्मों को करने का यत्न करें। प्रभु की तरह ही दयालु बनें। ये प्रभु सदा हमारे साथ रहनेवाले साथी बनते हैं, यदि हम जितेन्द्रिय बनने का यत्न करते हैं।
भाषार्थ
(विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के (कर्माणि) जगत् के कर्मों को (पश्यत) देखो, (यतः) जिन से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (युज्यः सखा) योग्य मित्र जीवात्मा ने (व्रतानि) निज कर्तव्यकम या व्रतों को (पस्पशे) देखा या अपने साथ दृढ़वद्ध किया।
टिप्पणी
[प्राकृतिक-शासनविधि को देखा करो, और उसे निज व्रतों में ढाला करो, तभी विष्णु के योग्य सखा बन पाओगे। जीवात्मा और विष्णु–ये दोनों आपस में सखा हैं। यथा “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया" (ऋ० १।१६४।२०; अथर्व० ९।९।२०-२१)]।
इंग्लिश (4)
Subject
Omnipresent Vishnu
Meaning
Watch the acts of Vishnu whereby He reveals the laws of existence and the rules of conduct and whereby I see the rules and laws and bind myself in discipline. I am the friend of Indra at his service, and He is the friend of the human soul.
Translation
Behold the marvellous creations of omnipresent God who fulfills our noble aspirations. He is a true friend of the soul. (Also Rg. X.22.19)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.27.6AS PER THE BOOK
Translation
Observe the working of All-pervading Divinity by whom the holy observances of religion are made known, who is the friend of the soul, the possessor of the organs.
Translation
O man, study God's works of Creation, Sustenance and Dissolution of the universe, whereby He determines His laws. He is the closed-allied friend of the soul.
Footnote
See Yajur, 6-4,13-33
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(विष्णोः) व्यापकस्य (कर्माणि) जगदुत्पत्तिस्थितिसंहारादीनि (पश्यत) संप्रेक्षध्वम् (यतः) येन (व्रतानि) कर्त्तव्यकर्माणि (पस्पशे) स्पश बन्धनस्पर्शनयोः-लिट्। बद्धवान्। नियमितवान् (इन्द्रस्य) जीवस्य (युज्यः) युज-क्यप्, योग्यः। यद्वा। युज-क्विप्, भवे यत्। युञ्जन्ति व्याप्त्या सर्वान् पदार्थान् ते युजो दिक्कालाकाशादयस्तत्र भवः (सखा) मित्रम् ॥
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