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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः देवता - अग्नाविष्णू छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नाविष्णु सूक्त
    84

    अग्ना॑विष्णू॒ महि॒ तद्वां॑ महि॒त्वं पा॒थो घृ॒तस्य॒ गुह्य॑स्य॒ नाम॑। दमे॑दमे स॒प्त रत्ना॒ दधा॑नौ॒ प्रति॑ वां जि॒ह्वा घृ॒तमा च॑रण्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ना॑विष्णू॒ इति॑ । महि॑ । तत् । वा॒म् । म॒हि॒ऽत्वम् । पा॒थ: । घृ॒तस्य॑ । गुह्य॑स्य । नाम॑ । दमे॑ऽदमे । स॒प्त । रत्ना॑ । दधा॑नौ । प्रति॑ । वा॒म् । जि॒ह्वा । घृ॒तम् । आ । च॒र॒ण्या॒त् ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नाविष्णू महि तद्वां महित्वं पाथो घृतस्य गुह्यस्य नाम। दमेदमे सप्त रत्ना दधानौ प्रति वां जिह्वा घृतमा चरण्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नाविष्णू इति । महि । तत् । वाम् । महिऽत्वम् । पाथ: । घृतस्य । गुह्यस्य । नाम । दमेऽदमे । सप्त । रत्ना । दधानौ । प्रति । वाम् । जिह्वा । घृतम् । आ । चरण्यात् ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    बिजुली और सूर्य के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्नाविष्णू) हे बिजुली और सूर्य ! (वाम्) तुम दोनों का (तत्) वह (महि) बड़ा (महित्वम्) महत्त्व है, (गुह्यस्य) रक्षणीय, वा गुप्त (घृतस्य) सार रस के (नाम) झुकाव की (पाथः) तुम दोनों रक्षा करते हो। (दमेदमे) घर-घर में [प्रत्येक शरीर वा लोक में] (सप्त) सात (रक्षा) रत्नों [धातुओं अर्थात् रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य] को (दधानौ) धारण करनेवाले हो, (वाम्) तुम दोनों की (जिह्वा) जय शक्ति (घृतम्) सार रस को (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (आ) भले प्रकार (चरण्यात्) बनावे ॥१॥

    भावार्थ

    जाठर अग्नि वा बिजुली अन्न को पकाकर उसके सार रस से सात धातु, रस, रुधिर आदि बनाकर शरीर को पुष्ट करता है और सूर्य पार्थिव जल को खींच कर मेघ बनाकर वृष्टि करके संसार का उपकार करता है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अग्नाविष्णू) देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। पूर्वपदस्यानङ्। हे विद्युत्सूर्यौ (महि) महत् (तत्) प्रसिद्धम् (वाम्) युवयोः (महित्वम्) महत्त्वं प्रभुत्वम् (पाथः) पा रक्षणे-लट्। रक्षथः (घृतस्य) साररसस्य (गुह्यस्य) अ० ३।५।३। गोपनीयस्य। गुप्तस्य (नाम) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति नमतेर्मनिन्, मलोपो दीर्घश्च। नमनं प्रापणम् (दमेदमे) गृहे गृहे (सप्तरत्ना) रमणीयान् सप्तधातून्। रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः। इति शब्दकल्पद्रुमः (दधानौ) धारयन्तौ (प्रति) प्रत्यक्षम् (वाम्) युवयोः (जिह्वा) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। इति जि जये-वन्, हुक् च। जयशक्तिः (घृतम्) साररसम् (आचरण्यात्) चरण गतौ कण्ड्वादौ-लेट्। आचरेत्। साधयेत् ॥

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    विषय

    अग्नाविष्णू

    पदार्थ

    १.हे (अग्नाविष्णू ) = अग्नि तथा विष्णुदेव, आगे बढ़ने की प्रवृत्ति तथा व्यापकता [उदारता] (वाम्) = आपका (तद् महित्वम्) = वह माहात्म्य, (महि) = महान् है, आप (गुह्यस्य) = हृदय-गुहा में स्थित (घृतस्य) = ज्ञानदीप्त प्रभु के (नाम पाथ:) = नाम का रक्षण करते हो। 'अग्नि तथा विष्णु' अप्रगति की भावना व उदारता हमें प्रभु का स्मरण कराती है। प्रभुस्मरण ही हमें उन्नत व उदार बनाता है। २. ये अग्नि और विष्णु (दमेदमे) = प्रत्येक शरीररूष गृह में (सप्त रत्ना) = रस, रुधिर, मांस, मेदस्, अस्थि, मज्जा, वीर्यरूप' सात रमणीय धनों को दधानौ- ध= रण करते हैं। (वां जिह्वा) = आपकी जिला (घृतम्) = ज्ञानदीत प्रभु को (आचरण्यात्) = सदा आभिमुख्येन प्राप्त हो। अग्नि व विष्णु की भावना हमें सदा प्रभु का स्मरण करानेवाली हो।

    भावार्थ

    हम आगे बढ़ने की भावनाबाले व उदार वृत्तिवाले बनें। ऐसे बनकर हम सदा प्रभु का स्मरण करें तब हम अपने जीवन में सातों रत्नों को धारण करनेवाले बनेंगे।

     

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    भाषार्थ

    (अग्नाविष्णू) हे अग्नि और विष्णु ! [सूर्य !] (वाम्) तुम दोनों की (तत्) वह (महि महित्वम्) महामहिमा है कि तुम (गुह्यस्य घृतस्य) छिपे घृत के (नाम) नाम अर्थात् नमन, प्रह्वीभाव जिसमें होता है उस दुग्ध का (पाथः) पोन करते हो। (दमे दमे) घर-घर में (सप्त) सात (रत्ना = रत्नानि) रत्नों को (दधानौ) धारित-पोषित करते हुए (वाम्) तुम दोनों की (जिह्वा) जिह्वा (घृतम्) छिपे घृत की (प्रति) ओर (आचरण्यात) गति करती है।

    टिप्पणी

    [विष्णु= सूर्यः, विष्लृ व्याप्तौ। व्याप्तरश्मियों के द्वारा सूर्य व्याप्त है। घृत दूध में छिपा होता है। उस समय उसका नाम दूध होता है घृत नहीं। "पाथः" द्वारा भी दूध का ही वर्णन प्रतीत होता है। यह पिया भी जाता है। दुग्धाहुति वैदिक साहित्य सम्मत है। अग्नि को "सप्तजिह्व" कहते है। यह दुग्ध की आहुतियों का पान निज ज्वालारूपी जिह्वाओं द्वारा करती है, और सूर्य रश्मिरूपी जिह्वाओं द्वारा पान करता है। जब घर-घर में दुग्धाग्निहोत्र हों, तो यज्ञधूम के सात परिणाम होते हैं, जिन्हें कि सप्त रत्न कहा है। यथा - (१) सुगन्ध; (२) वायुशुद्धिः (३) रोग कीटाणुओं [Germs] का हनन= रक्षोहा (अथर्व० ४।२३।३) (४) अमीवचातन [रोगनाश] (५) स्वास्थ्य, (६) दीर्घायुः, (७) सामयिकवर्षा। मन्त्र में "गुह्य" का अर्थ है गुहा में निहित। घृत की गुहा है दुग्ध, इस में घृत गुह्यरूप में छिपा रहता है। अतः दुग्धाहुतियों द्वारा "गुह्य" घृत की आहुतियां सम्पन्न हो जाती है। मन्त्र में "पाथः" का "कर्म" है "नाम", न कि [गुह्यघृत]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fire and the Sun

    Meaning

    Agna-Vishnu, fire and the sun, fire and cosmic yajna, great is your grandeur and glory. You consume as well as protect, for sure, the hidden essence and power of ghrta, joyous flow of the beauty and sweetness of life. Bearing seven jewels of the beauty, power and prosperity of life in and to every home, may your flames and rays of light receive the ghrta of homely yajna.

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    Subject

    Agna - Visnu (pair)

    Translation

    O fire divine, and O sacrifice, (really) great is your that renown; both of you drink the mystic purified butter, bestowing seven treasures in each and every home. May the tongue of both of you taste that (mystic) purified butter at every sacrifice.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.30.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    Glorious is that might of fire and yajna that these two drink the oblation of the ghee which has very mysterious utility and advantage. These two placing various wealth in every home (through yajna performances) take the offered ghee through tongue, the burning flame.

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    Translation

    This is your glorious might, O soul and God! Ye indeed drink the essence of devotion reposed in the inmost recesses of the heart. Placing in everybody the seven costly treasures, lot your conquering strength establish explicitly that essence.

    Footnote

    Seven costly treasures: five organs of cognition, mind and intellect, or रस (juice), रुधिर (blood), माँस (flesh), मेद(fat), अस्ति (bone), मज्जा(marrow), वीर्य(semen).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अग्नाविष्णू) देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। पूर्वपदस्यानङ्। हे विद्युत्सूर्यौ (महि) महत् (तत्) प्रसिद्धम् (वाम्) युवयोः (महित्वम्) महत्त्वं प्रभुत्वम् (पाथः) पा रक्षणे-लट्। रक्षथः (घृतस्य) साररसस्य (गुह्यस्य) अ० ३।५।३। गोपनीयस्य। गुप्तस्य (नाम) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति नमतेर्मनिन्, मलोपो दीर्घश्च। नमनं प्रापणम् (दमेदमे) गृहे गृहे (सप्तरत्ना) रमणीयान् सप्तधातून्। रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः। इति शब्दकल्पद्रुमः (दधानौ) धारयन्तौ (प्रति) प्रत्यक्षम् (वाम्) युवयोः (जिह्वा) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। इति जि जये-वन्, हुक् च। जयशक्तिः (घृतम्) साररसम् (आचरण्यात्) चरण गतौ कण्ड्वादौ-लेट्। आचरेत्। साधयेत् ॥

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