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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - जातवेदाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
    70

    व्र॒तेन॒ त्वं व्र॑तपते॒ सम॑क्तो वि॒श्वाहा॑ सु॒मना॑ दीदिही॒ह। तं त्वा॑ व॒यं जा॑तवेदः॒ समि॑द्धं प्र॒जाव॑न्त॒ उप॑ सदेम॒ सर्वे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्र॒तेन॑ । त्वम् । व्र॒त॒ऽप॒ते॒ । सम्ऽअ॑क्त: । वि॒श्वाहा॑ । सु॒ऽमना॑: । दी॒दि॒हि॒ । इ॒ह । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । सम्ऽइ॑ध्दम् । प्र॒जाऽव॑न्त: । उप॑ । स॒दे॒म॒ । सर्वे॑ ॥७८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्रतेन त्वं व्रतपते समक्तो विश्वाहा सुमना दीदिहीह। तं त्वा वयं जातवेदः समिद्धं प्रजावन्त उप सदेम सर्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्रतेन । त्वम् । व्रतऽपते । सम्ऽअक्त: । विश्वाहा । सुऽमना: । दीदिहि । इह । तम् । त्वा । वयम् । जातऽवेद: । सम्ऽइध्दम् । प्रजाऽवन्त: । उप । सदेम । सर्वे ॥७८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शारीरिक और मानसिक रोग हटाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (व्रतपते) हे उत्तम नियमों के रक्षक परमेश्वर ! [वा विद्वान् !] (त्वम्) तू (व्रतेन) उत्तम नियम से (समक्तः) संगति करता हुआ (सुमनाः) प्रसन्नचित्त होकर (विश्वाहा) सब दिन (इह) यहाँ पर (दीदिहि) प्रकाशमान हो। (जातवेदः) हे प्रसिद्ध बुद्धि वा धनवाले ! (प्रजावन्तः) उत्तम प्रजाओंवाले (सर्वे वयम्) हम सब लोग (समिद्धम्) अच्छी भाँति प्रकाशमान (तम् त्वा) उस तुझको (उप सदेम) पूजा करते रहें ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर और विद्वानों के वेदोक्त धर्मों पर चलकर सामाजिक उन्नति करके सदा प्रसन्न रहें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(व्रतेन) अ० २।३०।२। वरणीयेन नियमेन (त्वम्) (व्रतपते) सत्कर्मणां पालक परमेश्वर विद्वन् वा (समक्तः) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-क्त। संगतः (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः (दीदिहि) अ० २।६।१। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। इति वलोपः। दीप्यस्व (इह) अस्माकं मध्ये (तम्) (त्वा) (वयम्) (जातवेदः) अ० १।७।२। हे प्रसिद्धप्रज्ञ। प्रसिद्धधन (समिद्धम्) सम्यग्दीप्तम् (प्रजावन्तः) प्रशस्तपुत्रपौत्रभृत्यादिसहिताः (उप सदेम) षद्लृ विशरणगत्यादिषु-लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इत्यङ्। उपसद्यास्म। परिचर्यास्म (सर्वे) ॥

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    विषय

    व्रतपति प्रभु का मिलकर उपासन

    पदार्थ

    १. हे (व्रतपते) = व्रतों के रक्षक प्रभो ! (त्वम्) = आप (व्रतेन समक्त:) = व्रत के द्वारा, पुण्य कर्मों के द्वारा संस्कृत-सम्भावित-सम्यक् इष्ट [पूजित] होते हो। व्रतों द्वारा समक्त हुए-हुए आप (विश्वाहा) = सदा (सुमना:) = शोभन मनवाले-हमारे विषय में अनुग्रहबुद्धियुक्त होते हुए (इह) = यहाँ हमारे घर में (दीदिहि) = दीत होओ। २. हे (जादवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (समिद्धम्) = सम्यक् (दीप्ततं त्या) = उन आपको (प्रजावन्त:) = पुत्रों के समेत सर्वे (वयम्) = हम सब (उपसदेम) = उपासित करें। हम सब मिलकर आपकी उपासना करनेवाले बनें। यह उपासना ही हमें व्रतमय जीवनवाला बनाकर ईया, क्रोध आदि से बचाएगी।

    भावार्थ

    पुण्यकर्मों द्वारा हम व्रतपति प्रभु को अपने जीवन में सम्भावित करें। हम मिलकर प्रातः-सायं घर में प्रभु का उपासन करें। यह उपासन हमें ईर्ष्या व क्रोध से दूर रक्खेगा।

    ये उपासक अपने को ईर्ष्या, क्रोध आदि से ऊपर उठाते हैं, अत: 'उपरिबभ्रव' कहलाते हैं। गोदुग्ध का सेवन इन्हें ऊपर उठने में सहायक होता है। ये 'उपरिबभ्रवः' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

     

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    भाषार्थ

    (व्रतपते) व्रत की रक्षा करने वाले हे पति ! (त्वम्) तू (व्रतेन) व्रत द्वारा (समक्तः) सम्यक् स्निग्ध हुआ (विश्वाहा) सब दिन अर्थात् सर्वदा (सुमनाः) सुप्रसन्नचित्त हुआ (इह) इस घर में (दीदिहि) चमक। और (जातवेदः) हे जातवेदः अग्नि ! (तम्) उस (समिद्धम्) सम्यक् प्रदीप्त (त्वा) तेरे (उप) समीप (वयम्) हम (प्रजावन्तः) प्रजाओं वाले (सर्वे) सब (सदेम) बैठा करें।

    टिप्पणी

    [समक्तः= सम्यक् + अञ्जु व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः)। म्रक्षण=Annoint, smear (आप्टे), अर्थात् प्रेम द्वारा स्निग्ध। अभिप्राय यह कि जब तेरे क्रोध को हमने शान्त कर दिया मन्त्र (३), तब तू व्रत धारण कर कि फिर मैं क्रोध नहीं करूंगा, इस प्रकार सुप्रसन्नचित्त होकर घर में प्रसन्नता से चमकता रह। और हम सब मिलकर, सन्तानों समेत, यज्ञिय जातवेदा-अग्नि के समीप बैठा करें]। विशेष वक्तव्य-सूक्त ७८ में ४ मन्त्र हैं। प्रथम के दो मन्त्रों में "गन्डमाला" का वर्णन है, और शेष दो मन्त्रों में पति की ईर्ष्या और मन्यु के शमन का और तदनन्तर उसके "सुमनाः" होने का वर्णन हुआ है। इस प्रकार प्रथम "द्विक" का उत्तर "द्विक" के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। सम्भवतः ईर्ष्या, द्वेष, मन्यु आदि मानसिक विकारों और गण्डमाला का परस्पर सम्बन्ध हो।

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    विषय

    गण्डमाला की चिकित्सा।

    भावार्थ

    हे (व्रतपते) व्रतका पालन कराने हारे कर्मों के आचार्य ! हे (जातवेदः) जातवेदा ! जातप्रज्ञ विद्वन् ! (त्वं) तू (व्रतेन) अपने महान् व्रत नियत-कर्त्तव्य पालन के कार्य से (सम्-अक्तः) भली प्रकार सुशोभित हो, (विश्वाहा) सदा ही (सु-मनाः) उत्तम हृदय और सुचित्त, शुभसंकल्प होकर या उत्तम विद्वान्, ज्ञानवान् होकर (इह) इस लोक में प्रकाशित हो और अन्यों को प्रकाशित कर। और हे (जातवेदः) जातप्रज्ञ, विद्वन् ! (तं) उस प्रसिद्ध (सम्-इद्धम्) प्रकाशवान् (त्वाम्) तेरे समीप हम (सर्वे प्रजावन्तः) सब प्रजा वाले राजगण और गृहस्थी लोग (उप सदेम) आवें, तेरी उपासना और सत्संग करें, तेरे ज्ञानोपदेश से लाभ उठाएं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १, २ अपचित-नाशनो देवता, ३ त्वष्टा देवता, ४ जातवेदा देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Excrescences

    Meaning

    O master of the vows of self-discipline, keep to the vows of your discipline, always be good and happy at heart, and shine here in life. O Jataveda, light of life and life of the fire of yajna, lighted at heart and in the vedi of yajna, we pray, let us abide by you in the discipline of life, be blest with noble progeny and live happy at heart, one and all. (In this Sukta it is clearly shown that physical excrescences are not only physical, they are also related to states of mind, mental excrescences such as jealousy, hate and anger. The cure of ailments has to be not only physical but also mental. The mind must be at peace. There should be no blind spots, no communication gap, no cleverness and no pretence, and we must keep to our vows of discipline like the fire of yajna and the universal Jataveda.)

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    Subject

    Jatavedah

    Translation

    O Lord of vows, adorned with vow, may you shine every day with friendly feeling. You as such, so kindled and augmented, O omniscient (Jataveda) may we all, along with our progeny, wait upon.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.78.4AS PER THE BOOK

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    Translation

    O learned husband; you are the custodian of sacred vows that you have pledged, therefore you keep up your vow, always shine in good spirit. We (the wife and other members) with children sit near you who is shining with glamour.

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    Translation

    O God, the Fulfiller of vows, sticking to Thy Law, shine Thou forth in the world for ever friendly-minded. May we all with children, O God, the Knower of all created objects, worship, Thee Enkindled.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(व्रतेन) अ० २।३०।२। वरणीयेन नियमेन (त्वम्) (व्रतपते) सत्कर्मणां पालक परमेश्वर विद्वन् वा (समक्तः) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-क्त। संगतः (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः (दीदिहि) अ० २।६।१। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। इति वलोपः। दीप्यस्व (इह) अस्माकं मध्ये (तम्) (त्वा) (वयम्) (जातवेदः) अ० १।७।२। हे प्रसिद्धप्रज्ञ। प्रसिद्धधन (समिद्धम्) सम्यग्दीप्तम् (प्रजावन्तः) प्रशस्तपुत्रपौत्रभृत्यादिसहिताः (उप सदेम) षद्लृ विशरणगत्यादिषु-लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इत्यङ्। उपसद्यास्म। परिचर्यास्म (सर्वे) ॥

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