अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 80/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - पौर्णमासी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पूर्णिमा सूक्त
57
पौ॑र्णमा॒सी प्र॑थ॒मा य॒ज्ञिया॑सी॒दह्नां॒ रात्री॑णामतिशर्व॒रेषु॑। ये त्वां य॒ज्ञैर्य॑ज्ञिये अ॒र्धय॑न्त्य॒मी ते॒ नाके॑ सु॒कृतः॒ प्रवि॑ष्टाः ॥
स्वर सहित पद पाठपौ॒र्ण॒ऽमा॒सी । प्र॒थ॒मा । य॒ज्ञिया॑ । आ॒सी॒त् । अह्ना॑म् । रात्री॑णाम् । अ॒ति॒ऽश॒र्व॒रेषु॑ । ये । त्वाम् । य॒ज्ञै: । य॒ज्ञि॒ये॒ । अ॒र्धय॑न्ति । अ॒मी इति॑ । ते । नाके॑ । सु॒ऽकृत॑:। प्रऽवि॑ष्टा: ॥८५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
पौर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥
स्वर रहित पद पाठपौर्णऽमासी । प्रथमा । यज्ञिया । आसीत् । अह्नाम् । रात्रीणाम् । अतिऽशर्वरेषु । ये । त्वाम् । यज्ञै: । यज्ञिये । अर्धयन्ति । अमी इति । ते । नाके । सुऽकृत:। प्रऽविष्टा: ॥८५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के गुणों का उपदेश
पदार्थ
(पौर्णमासी) पौर्णमासी [सम्पूर्ण परिमेय पदार्थों की आधार शक्ति] (अह्नाम्) दिनों के बीच और (रात्रीणाम्) रात्रियों के (अतिशर्वरेषु) अत्यन्त अन्धकारों में (प्रथमा) पहिली (यज्ञिया) पूजा योग्य (आसीत्) हुई है। (यज्ञिये) हे पूजायोग शक्ति ! (ये) जो (त्वाम्) तुझे (यज्ञैः) पूजनीय व्यवहारों से (अर्धयन्ति) पूजते हैं, (अमी) यह सब [आगे और पीछे होनेवाले] (सुकृतः) सुकर्मी लोग (नाके) आनन्द में (प्रविष्टाः) प्रविष्ट होते हैं ॥४॥
भावार्थ
जो परमेश्वर सृष्टि और प्रलय से अनादि और अनन्त है, उसकी पूजा करके सब मनुष्य आनन्द पाते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(पौर्णमासी)-म० १। सम्पूर्णपरिमेयपदार्थाधारा शक्तिः (प्रथमा) आद्या (यज्ञिया) पूजार्हा (अह्नाम्) दिनानां मध्ये (रात्रीणाम्) (अतिशर्वरेषु) कॄगॄशॄवृञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। शॄ हिंसायाम्−ष्वरच्। शर्वरं तमः। अत्यन्तान्धकारेषु (ये) मनुष्याः (त्वाम्) पौर्णमासीम् (यज्ञैः) पूजनीयैः कर्मभिः (यज्ञिये) पूजार्हे (अर्धयन्ति) ऋधु वृद्धौ-णिच्। वर्धयन्ति। अर्चन्ति (अमी) इदानीन्तनाः (ते) दूरस्थाः। भूते भविष्यति च भवाः (नाके) सुखे (सुकृतः) सुकर्माणः (प्रविष्टाः) स्थिता भवन्ति ॥
विषय
पूर्णिमा यजन
पदार्थ
१. (अह्नाम्) = दिनों तथा (रात्रीणाम् अतिशर्वरेषु) = रात्रियों के प्रबल अन्धकारों में [अतिशयिता शर्वरी येषु], अर्थात् चाहे समृद्धि का प्रकाश हो चाहे असमृद्धि का अन्धकार हो, सदा ही (पौर्णमासी) = पूर्णिमा (प्रथमा यज्ञिया आसीत्) = सर्वप्रथम संगतिकरण योग्य है। मनुष्य को सदा ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने जीवन को सोलह कलाओं से पूर्ण बनाने का प्रयत्न करे। २. हे (यज्ञिये) = पूजनीय व संगतिकरणयोग्य पूर्णिमे! (ये) = जो (त्वाम्) = तुझे (यज्ञैः) = यज्ञों से (अर्धयन्ति) = [ऋधु वृद्धौ] बढ़ाते हैं, अर्थात् यज्ञों को करते हुए अपने जीवन में पूर्णिमा की तरह ही सोलह कलाओं से पूर्ण बनने का प्रयत्न करते हैं, (ते अमी) = वे ये (सकृतः) = पुण्यकर्मा लोग (नाके) = मोक्षलोक में (प्रविष्टा:) = प्रविष्ट होते हैं।
भावार्थ
हमारे जीवन में चाहे समृद्धि का प्रकाश हो वा असमृद्धि का अन्धकार हो, हमें सदा ही जीवन को सोलह कलाओं से पूर्ण बनाने के लिए यत्नशील होना चाहिए। यही पूर्णिमा का यजन है। यह हमें सुखमय लोक में प्राप्त कराएगा।
भाषार्थ
(अह्नाम) दिनों और (रात्रीणाम्) रात्रियों के (अतिशर्वरेषु) अतिशर्वर कालों में (पौर्णमासी) पौर्णमासी के सदृश प्रकाशमयी पारमेश्वरी माता (प्रथमा) सर्वप्रथम (यज्ञिया) यज्ञयोग्या (आसीत्) रही है। (यज्ञिये) हे यजनयोग्या मातः ! (ये) जो (त्वाम्) तुझे (यज्ञैः) यज्ञियकर्म द्वारा (अर्धयन्ति) निज हृदयों में तेरी वृद्धि करते हैं (ते अमी) वे ये (सुकृतः) सुकर्मी (नाके) दुःखरहित लोक में (प्रविष्टाः) प्रविष्ट हुए-हुए हैं। अर्धयन्ति= ऋधु वृद्धौ।
टिप्पणी
[मन्त्र में "अतिशर्वरेषु” पाठ है न कि "अतिशर्वरीषु"। "शर्वरी" का अर्थ रात्री होता है, न शर्वर का। शर्वर का अर्थ है हिंसा, विनाश अर्थात समाप्ति, शृ हिंसायाम्। "अह्नाम् अतिशर्वरेषु" का अर्थ है "दिनों की अति हिंसाओं, अर्थात् समाप्तियों में", सायंकालों में। तथा "रात्रीणाम् अतिशर्वरेषु" का अर्थ है "रात्रियों की अति हिंसाओं अर्थात् समाप्तियों में" प्रातःकालों में। सायंकालों और प्रातःकालों में ध्यान द्वारा यज्ञिया-परमेश्वर का पौर्णमासी की तरह पूर्ण प्रकाश होता है। परमेश्वर माता यज्ञिया है, पूजनीया, संगतियोग्या, तथा आत्मसमर्पणयोग्या है (यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु) इस प्रक्रिया के अनुसार ही, यजनकर्त्ता, माता के समृद्ध-दर्शन को पाता है, और नाक में प्रविष्ट होकर पूर्वप्रविष्ट दिव्य मुक्तात्माओं के संग को प्राप्त करता है (यजु० ३१।१६)]।
विषय
परमपूर्ण ब्रह्मशक्ति।
भावार्थ
(पौर्णमासी) पूर्ण ब्रह्म की सर्वव्यापिनी और सबकी उत्पादिका शक्ति (प्रथमा) सबसे पूर्ण और सबसे अधिक श्रेष्ठ (यज्ञिया) यज्ञ, परमात्मा की वह शक्ति (आसीत्) है, जो (अह्नान्) दिनों और (रात्रीणाम्) रातों के समय में (अतिशर्वरेषु) और शर्वरी = महाप्रलय कालों को भी अतिक्रमण करके वर्तमान रहती है। हे (यज्ञिये) यज्ञमय परमेश्वर की उत्पादक शक्ते ! (ये) जो (त्वां) तुझको (यज्ञैः) यज्ञों, प्रजापति की नाना शक्तियों के अनुकरणों द्वारा (अर्धयन्ति) समृद्ध करते, ब्रह्म की ही महिमा को बढ़ाते हैं (ते) वे (सुकृतः) पुण्यात्मा लोग (नाके) परम सुखमय लोक में (प्रविष्टाः) प्रविष्ट होते हैं। ईश्वर के गुणों को अपने भीतर धारण कर अपने आत्मा को उन्नत करके परोपकार के कार्य करनेवाले महात्मा लोग उस उत्पादक प्रभु का साक्षात् करते और मुक्ति लाभ करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। पौर्णमासी प्रजापतिर्देवता। १, ३, ४ त्रिष्टुप्। ४ अनुष्टुप्।चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Purnima
Meaning
Paurnamasi, full moon night, light divine of life, is the first and foremost adorable among days and nights both dark and starry. Adorable Paurnamasi, divinity of life, those who love and worship you with yajnas and yajnic homage, they, holy of thought and action, enter and abide in the heaven of bliss.
Subject
Full Moon Night
Translation
The night of full moon is most worthy of worship among the days and deep darkness of the nights. O pious one, those who adore you with sacrifices, they, the righteous ones, enter the sorrowless world.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.85.4AS PER THE BOOK
Translation
The full-mooned night is the first of all the days, nights and darkened night’s deep darkness, which is assigned for the performance of yajna. Those pious perform the yajnas assigned to this Paurnamasi, enjoy the pleasure of heaven.
Translation
The All-pervading, All-creating power of God is first of all worthy of adoration among the days and in the night’s deep darkness. O Venerable God, those pious souls, who honor Thee with worship, enter into Thy blissful abode!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(पौर्णमासी)-म० १। सम्पूर्णपरिमेयपदार्थाधारा शक्तिः (प्रथमा) आद्या (यज्ञिया) पूजार्हा (अह्नाम्) दिनानां मध्ये (रात्रीणाम्) (अतिशर्वरेषु) कॄगॄशॄवृञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। शॄ हिंसायाम्−ष्वरच्। शर्वरं तमः। अत्यन्तान्धकारेषु (ये) मनुष्याः (त्वाम्) पौर्णमासीम् (यज्ञैः) पूजनीयैः कर्मभिः (यज्ञिये) पूजार्हे (अर्धयन्ति) ऋधु वृद्धौ-णिच्। वर्धयन्ति। अर्चन्ति (अमी) इदानीन्तनाः (ते) दूरस्थाः। भूते भविष्यति च भवाः (नाके) सुखे (सुकृतः) सुकर्माणः (प्रविष्टाः) स्थिता भवन्ति ॥
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