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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा भुरिग्जगती सूक्तम् - शत्रुबलनाशन सूक्त
    64

    यथा॒ शेपो॑ अ॒पाया॑तै स्त्री॒षु चास॒दना॑वयाः। अ॑व॒स्थस्य॑ क्न॒दीव॑तः शाङ्कु॒रस्य॑ नितो॒दिनः॑। यदात॑त॒मव॒ तत्त॑नु॒ यदुत्त॑तं॒ नि तत्त॑नु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । शेप॑: । अ॒प॒ऽअया॑तै । स्त्री॒षु । च॒ । अस॑त् । अना॑वया: । अ॒व॒स्थस्य॑ । क्न॒दिऽव॑त: । शा॒ङ्कु॒रस्य॑ । नि॒ऽतो॒दिन॑: । यत् । आऽत॑तम् । अव॑ । तत् । त॒नु॒ । यत् । उत्ऽत॑तम् । नि । तत् । त॒नु॒ ॥९५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा शेपो अपायातै स्त्रीषु चासदनावयाः। अवस्थस्य क्नदीवतः शाङ्कुरस्य नितोदिनः। यदाततमव तत्तनु यदुत्ततं नि तत्तनु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । शेप: । अपऽअयातै । स्त्रीषु । च । असत् । अनावया: । अवस्थस्य । क्नदिऽवत: । शाङ्कुरस्य । निऽतोदिन: । यत् । आऽततम् । अव । तत् । तनु । यत् । उत्ऽततम् । नि । तत् । तनु ॥९५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अवस्थस्य) हिंसा में रहनेवाले, (क्नदीवतः) गाली बकने वाले, (शाङ्कुरस्य) शङ्का करनेवाले, (नितोदिनः) नित्य सतानेवाले पुरुष का (शेपः) पराक्रम (यथा) जिस प्रकार (अपायातै) मिट जावे (च) और (स्त्रीषु) स्तुतियोग्य स्त्रियों [वा उनके समान सज्जन प्रजाओं] में (अनावयाः) न पहुँचनेवाला (असत्) होवे, [उसी प्रकार हे राजन् !] (यत्) जो कुछ [उसका बल] (आततम्) फैला हुआ है, (तत्) उसे (अव तनु) संकुचित करदे और (यत्) जो कुछ [सामर्थ्य] (उत्तमम्) ऊँचा फैला है, (तत्) उसे (नि तनु) नीचा कर दे ॥३॥

    भावार्थ

    राजा सज्जनों के सतानेवाले अत्याचारियों को सदा वश में रक्खे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यथा) येन प्रकारेण (शेपः) अ० ४।३७।७। पराक्रमः (अपायातै) अय गतौ-लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। आडागमः। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। एकारस्य ऐकारः। अपगच्छेत् (स्त्रीषु) अ० १।८।१। स्तूयते सा स्त्री, ष्टुञ् स्तुतौ−ड्रट्, ङीप्। स्तुत्यासु नारीषु यद्वा ताभिस्तुल्यासु सत्प्रजासु (अनावयाः) अन्+आङ्+ वी गतौ-असुन्। अनागमनीयः (अवस्थस्य) अव हिंसायाम्-अच्+तिष्ठतेः-क। हिंसने स्थितिशीलस्य (क्नदीवतः) खनिकष्यज्यसि०। उ० ४।१४०। क्रद आह्वानरोदनयोः-इ प्रत्ययः, मतुप्, रस्य नकारः, सांहितिको दीर्घः। संज्ञायाम्। पा० ८।२।११। मस्य वः। दुर्वचनशीलस्य (शाङ्कुरस्य) मन्दिवाशिमथि०। उ० १।३८। शकि संशये, अन्तर्गतण्यर्थः-उरच् स्वार्थेऽण्। शङ्कोत्पादकस्य (नितोदिनः) तुद व्यथने-णिनि। नित्यपीडकस्य (यत्) सामर्थ्यम् (आततम्) आयतम् (तत्) (अवतनु) सङ्कोचय (यत्) (उत्ततम्) ऊर्ध्वविस्तृतम् (तत्) सामर्थ्यम् (नितनु) नितनं नीचीनं कुरु ॥

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    विषय

    अवस्थ के मान व बल का विनाश

    पदार्थ

    १. हे राजन् ! (अवस्थस्य) = [अव-स्थ] इस नीचे दर्जे के, (कदीवतः) = [कद् आह्वाने] गवारों की भाँति लड़ाई के लिए ललकारनेवाले, (शाङ्करस्य) = कील के समान सबके मन में चुभनेवाले, (नितोदिन:) = निश्चय से पीड़ित करनेवाले इस दुष्ट का (यत् आततम्) = जो बल फैला हुआ है (तत् अवतनु) = उसे घटा दो, (यत् उत्ततम्) = जो पद उन्नत अवस्था तक पहुँचा हो (तत्) = उस पद को (नितनु) = नीचा कर दो। दुष्ट की शक्ति व मान का कम करना आवश्यक ही है। २. ऐसा इसलिए कीजिए (यथा) = जिससे इसका (शेपः) = कामवासना सम्बन्धी (मद अपायातै) = दूर हो जाए (च) = और वह दुष्ट (स्त्रीषु) = स्त्रियों में (अनावया: असत्) = न पहुँच सके उन्हें प्रलोभन में फंसाकर उनका मान नष्ट न कर सके। [अनावयाः अनागच्छत्]।

    भावार्थ

    राष्ट्र में यदि कोई पुरुष दुष्ट व व्यभिचार की वृत्तिवाला है तो राजा को उसे नष्ट बल व नष्ट-मानवाला कर देना चाहिए ताकि वह बल व मान के रोब से अनाचार न कर सके।

    अनाचार से दूर रहनेवाला अथर्वा [न डॉवाडोल होनेवाला] अगले दो सूक्तों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे ही (शेपः) व्यभिचारी की स्त्रीभोगसम्बन्धी इन्द्रिय (अपायातै) अपगत हो जाय, तब ही यह (स्त्रीषु च) स्त्रियों में (अनावयाः) न गति करने, न विचरने वाला (असत्) हो जाय। (अवस्थस्य) हिंसा में स्थित, (क्नदीवतः= क्रदीवतः) क्रन्दन करने वाले, (शाङ कुरस्य) शंकु की तरह पीड़ित करने वाले, (नितोदिनः) नितरां मानसिक व्यथाप्रद व्यभिचारी का (यत्) जो (आततम्१) फैला हुआ बल है (तत्) उसे (अवतनु) हे राजन् ! तू संकुचित कर, (यत्) और जो (उत्तमम्) समुन्नत बल है (तत्) उसे (नि तनु) नीचा कर दे।

    टिप्पणी

    [अपायातै= अप + अय (गतौ) + आट् + ऐ, "वैतोऽन्यत्र" (अष्टा० ३।४।९६)। अनावयाः= अ + नुट् + आ + वय् (गतौ) + असुन्। अवस्थस्य == अव (हिंसायाम्, भ्वादिः) + स्थ। क्नदीवतः= क्रदन करने वाले, पाप कर्मों के कारण रोने वाले (क्रदि रोदने च, भ्वादिः)]। [१. आततम्= वाममार्ग का अधिक विस्तार, फैल जाना। उत्ततम्= उस का अत्युग्रता में हो जाना।]

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    विषय

    नीच पुरुषों का दमन।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (अवस्थस्य) नीचे दर्जे के (क्नदीवतः) गंवारों की तरह बकने और सबको कलह और लड़ाई, दंगा फसाद के लिए ललकारने वाले, (शाङ्कुरस्य) कीले के समान सबके दिल में चुभने वाले, (नि-तोदिनः) सब को हर प्रकार से पीड़ा या व्यथा देने वाले का (यत्) जो धन, मकान आदि सम्पत्ति अथव बल (आ-ततम्) फैला हो, (तत्) उसको (अव तनु) घटा दे, और (यत् उत् ततम्) जो पद या मान उन्नत अवस्था तक पहुंचा हो उसको (नि तनु) नीचा कर दे। जिससे उसका (शेपः) काम सम्बन्धी मद, दुराचार करने का बल (अप-अयातै) दूर हो जाय, और वह (स्त्रीषु) जन समाज में रहने वाली स्त्रियों तक (अनावयाः असत्) न पहुंच सके, और उनको प्रलोभन में फांस कर या बल, पद या अधिकार से दबाकर स्त्रियों की इज्ज़त न ले सके। जो पुरुष दुराचारी अपने दुराचार से स्त्रियों पर बलात्कार करे और आचार में हीन, लोगों से कलहकारी होकर और लोगों को अपने दुराचार के कारण कष्ट देता है उसकी धन सम्पत्ति छीन ली जाय, उसका मान, पद, अधिकार घटा दिया जाय और समाज से बाहर कर दिया जाय जिससे उसके हाथों स्त्रियों का मान नष्ट न हो। ग्रीफ़िथ ने तीसरा मन्त्र अश्लील जानकर छोड़ दिया है। कारण, सायण ने इस सूक्त को, कौशिक सूत्र का विनियोग देखकर व्यमिचारी ‘जार’ के पक्ष में बड़ी निर्लज्जता से लगाया है। ह्विटनी भी उसी प्रवाह में बह गया है। कौशिक ने केवल यह लिखा है कि इस सूक्त से ‘बाधकं धनुर्विष्यति आशयेऽश्मानं प्रहरति।’ व्यभिचारी को न आने देने के लिए धनुष से बाण फेंके या उसके संकेत स्थान पर पत्थरों से ठोके। कदाचित् कौशिक का यह अभिप्राय है कि व्यभिचारी आदमी को वेद के इस मन्त्र की रूह से धनुष बाण से मारने और पत्थरों से उसको ‘संगसार’ करने का दण्ड देना चाहिए। यह उचित भी जान पड़ता है। मनु ने स्त्रीसंग्रह प्रकरण में [ मनु० २। ३५२-३७२ ] दुराचारी स्त्री-व्यसनी पुरुष के कठोर दमन का विधान लिखा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः देवताः। १ गायत्री। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ३ त्र्यवसाना षट्पदा भुरिग् जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Root out Violence

    Meaning

    The power and passion of the violent abuser, fear-monger and habitual tormentor, if expanded, must be cut down, if rising, must be brought down and negated, so that he is not able to move among men and women.

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    Translation

    So that the male organ of the infidel, standing very close, inviting (for intercourse), with’ pillar-like male organ, and the in-thrusting, keeps away and remains unable to reach women, may you make that unstreched which is streched and make that droop, which stands up erect (yad atatam ava tat tanu yad uttatam nitat tanu),

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.95.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    O King! decrease whatever strength of the enemy is growing and lower that which has excelled in such a manner as enterprise of the man who is violent, who uses abusive language, who creates dubiousity, who always inflict injuries to others, fade away and he be not be able to approach women.

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    Translation

    O King, diminish the multiplying strength and wealth, lower down the exalted position of a violent reviler, mental torturer and physical tormentor, whereby his carnal lust be extinguished and he be disabled to approach and molest women!

    Footnote

    Griffith has not' translated this verse, taking it to be obscene. Sayana, following the application of Kaushika sutras has applied this verse to an immoral person. Kaushika has written that a debauchee should be stoned to death and pierced with arrows. These remarks are wide of the mark, as there is no mention of obscenity in the verse.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यथा) येन प्रकारेण (शेपः) अ० ४।३७।७। पराक्रमः (अपायातै) अय गतौ-लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। आडागमः। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। एकारस्य ऐकारः। अपगच्छेत् (स्त्रीषु) अ० १।८।१। स्तूयते सा स्त्री, ष्टुञ् स्तुतौ−ड्रट्, ङीप्। स्तुत्यासु नारीषु यद्वा ताभिस्तुल्यासु सत्प्रजासु (अनावयाः) अन्+आङ्+ वी गतौ-असुन्। अनागमनीयः (अवस्थस्य) अव हिंसायाम्-अच्+तिष्ठतेः-क। हिंसने स्थितिशीलस्य (क्नदीवतः) खनिकष्यज्यसि०। उ० ४।१४०। क्रद आह्वानरोदनयोः-इ प्रत्ययः, मतुप्, रस्य नकारः, सांहितिको दीर्घः। संज्ञायाम्। पा० ८।२।११। मस्य वः। दुर्वचनशीलस्य (शाङ्कुरस्य) मन्दिवाशिमथि०। उ० १।३८। शकि संशये, अन्तर्गतण्यर्थः-उरच् स्वार्थेऽण्। शङ्कोत्पादकस्य (नितोदिनः) तुद व्यथने-णिनि। नित्यपीडकस्य (यत्) सामर्थ्यम् (आततम्) आयतम् (तत्) (अवतनु) सङ्कोचय (यत्) (उत्ततम्) ऊर्ध्वविस्तृतम् (तत्) सामर्थ्यम् (नितनु) नितनं नीचीनं कुरु ॥

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