अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
74
मा त्वा॑ क्र॒व्याद॒भि मं॑स्ता॒रात्संक॑सुकाच्चर॒। रक्ष॑तु त्वा॒ द्यौ रक्ष॑तु पृ॑थि॒वी सूर्य॑श्च त्वा॒ रक्ष॑तां च॒न्द्रमा॑श्च। अ॒न्तरि॑क्षं रक्षतु देवहे॒त्याः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । अ॒भि । मं॒स्त॒ । आ॒रात् । सम्ऽक॑सुकात् । च॒र॒ । रक्ष॑तु । त्वा॒ । द्यौ: । रक्ष॑तु । त्वा । द्यौ: । रक्ष॑तु । पृ॒थि॒वी । सूर्य॑: । च॒ । त्वा॒ । रक्ष॑ताम् । च॒न्द्रमा॑: । च॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । र॒क्ष॒तु॒ । दे॒व॒ऽहे॒त्या: ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा क्रव्यादभि मंस्तारात्संकसुकाच्चर। रक्षतु त्वा द्यौ रक्षतु पृथिवी सूर्यश्च त्वा रक्षतां चन्द्रमाश्च। अन्तरिक्षं रक्षतु देवहेत्याः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । क्रव्यऽअत् । अभि । मंस्त । आरात् । सम्ऽकसुकात् । चर । रक्षतु । त्वा । द्यौ: । रक्षतु । त्वा । द्यौ: । रक्षतु । पृथिवी । सूर्य: । च । त्वा । रक्षताम् । चन्द्रमा: । च । अन्तरिक्षम् । रक्षतु । देवऽहेत्या: ॥१.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (त्वा) तुझको (क्रव्यात्) मांसभक्षक [पशुरोग, आदि] (मा अभि मंस्त) न किसी प्रकार मारे (संकसुकात्) नाश करनेवाले [विघ्न] से (आरात्) दूर-दूर (चर) चल। (द्यौः) प्रकाशमान ईश्वर (त्वा) तेरी (रक्षतु) रक्षा करे, (पृथिवी) पृथिवी (रक्षतु) रक्षा करे, (सूर्यः) सूर्य (च च) और (चन्द्रमाः) चन्द्रमा दोनों (त्वा) तेरी (रक्षताम्) रक्षा करें। (अन्तरिक्षम्) मध्यलोक [तुझको] (देवहेत्याः) इन्द्रियों की चोट से (रक्षतु) बचावे ॥१२॥
भावार्थ
जो मनुष्य विघ्नों से बचकर सब पदार्थों का यथावत् उपयोग करते और इन्द्रियों को वश में रखते हैं, वे सुखी रहते हैं ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(त्वा) त्वाम् (क्रव्यात्) अ० २।२५।५। मांसभक्षकः पशुरोगादिः (अभि) सर्वतः (मा मंस्त) मन ज्ञाने वधे च-लुङ्। मा वधीत्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः। क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु० १०।२९। (आरात्) दूरम् (संकसुकात्) अ० ५।३१।९। कस नाशने-ऊक, ह्रस्वः। नाशकात्। विघ्नात् (चर) गच्छ (द्यौः) प्रकाशमानः परमेश्वरः (अन्तरिक्षम्) मध्यलोकः (देवहेत्याः) ऊतियूतिजूति०। पा० ३।३।९७। हन गतौ वधे च-क्तिन्। इन्द्रियाणां हननात्। अन्यत् सुगमम् ॥
विषय
कामाग्नि तथा देवाग्नि से रक्षण
पदार्थ
१.हे पुरुष! (क्रव्यात्) = मांस को खा जानेवाला, तुझे अमांस [Emaciated दुर्बल] बना देनेवाला, यह कामाग्नि (त्वा) = तुझे (मा अभिमस्त) = 'मेरा यह आहार है' ऐसा अभिमान न करे। तू इस (संकसुकात्) = [कस् to destroy, संकसुक-bad, wicked] नष्ट कर देनेवाली दुरितमय [महापाप्मा] अग्नि से (आरात् चर) = दूर गतिवाला हो। कामाग्नि का तु शिकार न हो जाए। २. यह (द्यौः) = धुलोक (त्या रक्षतु) = तेरा रक्षण करे, (पृथिवी रक्षतु) = पृथिवी तेरा रक्षण करे। (सूर्यः च चन्द्रमा: च) = सूर्य और चन्द्रमा (त्वा रक्षताम्) = तेरा रक्षण करें। (अन्तरिक्षम) = यह अन्तरिक्षलोक भी (देवहेत्या:) = इस विधुदुप देववज्र से (रक्षतु) = तेरा रक्षण करे, अर्थात् किसी प्रकार की आधिदैविक आपत्ति तुझपर न आ पड़े।
भावार्थ
अध्यात्म में हम कामाग्नि का शिकार न हों तथा आधिदैविक जगत् में धुलोक, पृथिवी लोक व अन्तरिक्षलोक तथा सूर्य-चन्द्र आदि से आनेवाली आधिदैविक आपत्तियों से बचे रहें।
भाषार्थ
(क्रव्याद) कच्चामांस खाने वाली अग्नि (त्वा) तुझे (मा अभिमंस्त) न अपनाए, (संकसुकात्) दुर्जन से (आरात्) दूर (चर) विचर, उसका संग न कर। (द्यौः) द्युलोक (त्वा रक्षतु) तेरी रक्षा करे, (पृथिवी रक्षतु) पृथिवी रक्षा करे, (सूर्यः च, चन्द्रमाः च) सूर्य और चन्द्रमा (त्वा) तेरी (रक्षताम्) रक्षा करे (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षस्थ वायु (रक्षतु) रक्षा करे (देवत्याः) इन्द्रियों की मार से।
टिप्पणी
[क्रव्याद्= क्रव्य (कच्चामांस) + अद् (भक्षणे)। शवाग्नि अल्पावस्था में मृतदेह के कच्चे मांस का भक्षण करती है। जीवनचर्या इस प्रकार की होनी चाहिये कि व्यक्ति १०० वर्षों से पूर्व न मरे। १०० वर्षों की आयु के आसपास देह जीर्ण हो जाता है, मानो पक जाता है, कच्चा नहीं रहता। संकसुक का अर्थ है, दुर्जन (उणा० २।३० पर दयानन्द तथा भट्टोजी दीक्षित)। दुर्जन का संग त्याज्य है। द्युलोक "स्वः और नाक" आदि लोकों की प्राप्ति द्वारा तेरी रक्षा करे, पृथिवी आवास और अन्न द्वारा रक्षा करे। सूर्य ताप, प्रकाश और वर्षा द्वारा रक्षा करे, चन्द्रमा शीतल प्रकाश द्वारा रक्षा करे। अन्तरिक्ष अर्थात् तत्स्थ स्वच्छ तथा संचारी वायु द्वारा तेरी इन्द्रियों को शुद्ध कर अपवित्र इन्द्रियों की मार से तुझे बचाए, इस प्रकार तेरी रक्षा करे। मन्त्र में उपनीत पुरुष के रक्षासाधनों का निर्देश किया है। देवाः= इन्द्रियाणि (यजु० ४०।४)]।
विषय
दीर्घजीवन-विद्या
भावार्थ
हे पुरुष (त्वा) तुझ को (क्रव्यात्) कच्चा मांस खाने वाला जन्तु (मा अमि मंस्त) न आ दबोचे। (संकसुकात्) नाश करने वाले, लोभी जीव से तू (आरात्) दूर रहकर (चर) चल (द्यौः) आकाश (त्वा) तेरी (रक्षतु) रक्षा करे। (पृथिवी रक्षतु) पृथिवी तेरी रक्षा करे। (सूर्यः च चन्द्रमाः च) सूर्य और चन्द्रमा (त्वा रक्षताम्) तेरी रक्षा करें। और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष, वायुमण्डल तेरी (देव-हेत्याः) दैवी आघातकारी पदार्थ से (रक्षतु) रक्षा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life
Meaning
May no flesh eating agent, natural or human, hurt and destroy you. Keep away from fatalities. May heaven protect you. May the earth protect you. May the sun and moon protect you. And may the middle region protect you from natural strike of calamity.
Translation
May not the flesh-consuming (fire) claim you (as victim). Keep off the corpse-devouring one. May the heaven save you, the earth save you; may the Sun and the moon save you; may the midspace save you from the dart (missile) divine.
Translation
Let not the flesh-consuming disease trouble you and keen yourself away from the fatal disease or calamity. May the heaven be your safety, may the earth and the sun become the source of protection to you, let the moon preserve you and let the firmament protect you from the physical catastrophe.
Translation
Let not a flesh-consuming animal or disease attack thee. Keep far away from an avaricious, violent person. Be Heaven and Earth and Sun and Moon thy protectors. May Air protect thee from the attack of Nature’s forces.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(त्वा) त्वाम् (क्रव्यात्) अ० २।२५।५। मांसभक्षकः पशुरोगादिः (अभि) सर्वतः (मा मंस्त) मन ज्ञाने वधे च-लुङ्। मा वधीत्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः। क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु० १०।२९। (आरात्) दूरम् (संकसुकात्) अ० ५।३१।९। कस नाशने-ऊक, ह्रस्वः। नाशकात्। विघ्नात् (चर) गच्छ (द्यौः) प्रकाशमानः परमेश्वरः (अन्तरिक्षम्) मध्यलोकः (देवहेत्याः) ऊतियूतिजूति०। पा० ३।३।९७। हन गतौ वधे च-क्तिन्। इन्द्रियाणां हननात्। अन्यत् सुगमम् ॥
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