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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    79

    मा ते॒ मन॒स्तत्र॑ गा॒न्मा ति॒रो भू॒न्मा जी॒वेभ्यः॒ प्र म॑दो॒ मानु॑ गाः पि॒तॄन्। विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि र॑क्षन्तु त्वे॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । ते॒ । मन॑: । तत्र॑ । गा॒त् । मा । ति॒र: । भू॒त् । मा । जी॒वेभ्य॑: । प्र । म॒द॒: । मा । अनु॑ । गा॒: । पि॒तृ॒न् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒भि । र॒क्ष॒न्तु॒ । त्वा॒ । इ॒ह ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा ते मनस्तत्र गान्मा तिरो भून्मा जीवेभ्यः प्र मदो मानु गाः पितॄन्। विश्वे देवा अभि रक्षन्तु त्वेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । ते । मन: । तत्र । गात् । मा । तिर: । भूत् । मा । जीवेभ्य: । प्र । मद: । मा । अनु । गा: । पितृन् । विश्वे । देवा: । अभि । रक्षन्तु । त्वा । इह ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (ते) तेरा (मनः) मन (तव) वहाँ [अधर्म में] (मा गात्) न जावे, और (मा तिरो भूत्) लुप्त न होवे, (जीवेभ्यः) जीवों के लिये (मा प्र मदः) भूल मत कर, (पितॄन् अनु) पितरों [माननीय माता पिता आदि विद्वानों] से न्यून होकर (मा गाः) मत चल। (विश्वे) सब (देवाः) इन्द्रियाँ (इह) इस [शरीर] में (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षन्तु) रक्षा करें ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य अधर्म छोड़ कर सावधानी से सब प्राणियों पर उपकार करें, और माननीय पुरुषों से हेठे न रहकर जितेन्द्रिय और प्रबलेन्द्रिय रहें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(ते) तव (मनः) (तत्र) तस्मिन् कुकर्मणि (मा गात्) मा गच्छेत् (मा तिरो भूत्) अन्तर्हितं विलीनं न भवेत् (जीवेभ्यः) प्राणिनामर्थाय (मा प्र मदः) प्रपूर्वो मदिरनवधाने-लुङ्, पुषादित्वादङ्। प्रमादं मा कुरु (पितॄन् अनु) हीने च। पा० १।४।८६। इत्यनुर्हीने कर्मप्रवचनीयः। पितृभ्यो मातापित्रादिविद्वद्भ्यो न्यूनः सन् (मा गाः) गमनं मा कुरु (विश्वे) सर्वे (देवाः) इन्द्रियाणि (अभि) सर्वतः (रक्षन्तु) (त्वा) त्वाम् (इह) अस्मिन् शरीरे ॥

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    विषय

    मृत्यु की चिन्ता न करना

    पदार्थ

    १. हे पुरुष! (ते मनः तत्र मा गात्) = तेरा मन वहाँ-यमलोक में न जाए, अर्थात् तू मृत्यु की चिन्ता से ग्रस्त मत हो। (मा तिर:भूत) = तेरा मन तिरोहित-विलीन सा-चिन्ता में डूबा हुआ न हो। (मा जीवेभ्यः प्रमदः) = जीवित लोगों के विषय में अपने कर्तव्य में तू प्रमादयुक्त न हो। २. (पितृृन् मा अनुगा:) = हर समय चिन्ताकुल हुआ-हुआ तू पितरों के पीछे मत चला जा। (विश्वे देवा:) = सब देव-सूर्य आदि प्राकृतिक देव अथवा इन्द्रियों (त्वा) = तुझे (इह) = इस शरीर में (अभि रक्षन्तु) = सर्वतः रक्षित करें। तू सूर्यादि के सम्पर्क में स्वस्थ इन्द्रियोंवाला होता हुआ दीर्घजीवी बन ।

    भावार्थ

    हम मौत की ही चिन्ता न करते रहें। हमारा मन तिरोहित-सा न बना रहे। हम जीवित लोगों के प्रति अपने कर्तव्यों में प्रमाद न करें। सूर्यादि देवों के सम्पर्क में स्वस्थ तथा सुरक्षित जीवन बिताएँ।

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    भाषार्थ

    (ते) तेरा (मनः) मन (तत्र) परलोक की ओर (मा गात्) न जाय, (मा तिरः) न तिरस्कृत या तिरोभूत (भूत्) हो, (मा जीवेभ्यः प्रमदः) न प्राणियों की सेवा में तू प्रमाद कर, (पितॄन्) [मृत] पितरों का (मा अनुगाः) अनुगामी न बन। (विश्वे देवाः) सब देवकोटि के आचार्य (त्वा) तुझे (इह) इस आश्रम में (अभि रक्षन्तु) सब प्रकार से सुरक्षित करें।

    टिप्पणी

    [मन्त्रों का विनियोग उपनयन संस्कार निमित्त हुआ है (मन्त्र १)। उपनयन का अर्थ है "अपने समीप लाना" (उप=समीप + नयन= लाना)। आचार्य माणवक को, उपनयन विधि द्वारा अपने आश्रम में ले आता है। "विश्वे देवाः" का अर्थ इसलिये आचार्य किया है। आश्रम के सभी आचार्य देवकोटि के होने चाहिये]‌। अथवा [इस आश्रम में रहकर तेरा मन निज माता-पिता के घर की ओर न जाता रहे, न आश्रम में रहकर तेरा मन टेढ़ो चालों वाला हो, न माता-पिता आदि की ही तू निरन्तर चिन्ता करता रहे]।

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    विषय

    दीर्घजीवन-विद्या

    भावार्थ

    हे पुरुष ! (ते मनः) तेरा चित्त (तत्र) उस निषिद्ध कर्म में (मा गात्) न जाय। (मा तिरः भूत्) तेरा चित्त तिरछा, कुपथ में भी न हो। (जीवेभ्यः) जीवों के हित के लिए (मा प्र मदः) तू प्रमाद मत कर। (पितॄन) अपने बूढ़े पालकों के पीछे पीछे मृत्यु के मुख में (मा अनु गाः) मत जा। प्रत्युत (त्वा) तुझ को (विश्वे देवाः) समस्त देव, विद्वान् गण और हृष्ट पुष्ट इन्द्रियें (इह) यहां, इस शरीर में चिरकाल तक (अभि रक्षन्तु) सब प्रकार से सुरक्षित रखें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    Your mind must not go counter to this path of progress onward, nor must it write itself off in despair, nor must you neglect other living beings out of pride and wantonness. Nor must you be merely servile to your parents and seniors, serve them by covering further distance in their line. And may the Vishvedevas, all divinities of nature, all nobilities of humanity and your own mind and senses support, protect and promote you to go fast forward.

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    Translation

    Let not your mind go that way (there). Let it not go lost. Do not overlook the living one. Do not go after the forefathers. May all the bounties of nature retain you well protected here.

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    Translation

    Let not your mind go there in the way of unrighteousness, let not you part from us, do not ignore the living men and follow not the track of the old men embracing declination and may all the physical farces including Divinity retain you safely in this body.

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    Translation

    Let not thy soul follow sin, nor be absorbed in it. Slacken not your efforts to serve humanity. Follow not your aged parents to death. Let all the organs retain thee here in safety.

    Footnote

    Here' refers to body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(ते) तव (मनः) (तत्र) तस्मिन् कुकर्मणि (मा गात्) मा गच्छेत् (मा तिरो भूत्) अन्तर्हितं विलीनं न भवेत् (जीवेभ्यः) प्राणिनामर्थाय (मा प्र मदः) प्रपूर्वो मदिरनवधाने-लुङ्, पुषादित्वादङ्। प्रमादं मा कुरु (पितॄन् अनु) हीने च। पा० १।४।८६। इत्यनुर्हीने कर्मप्रवचनीयः। पितृभ्यो मातापित्रादिविद्वद्भ्यो न्यूनः सन् (मा गाः) गमनं मा कुरु (विश्वे) सर्वे (देवाः) इन्द्रियाणि (अभि) सर्वतः (रक्षन्तु) (त्वा) त्वाम् (इह) अस्मिन् शरीरे ॥

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